घोघाबापा का प्रेत – 2

गतांक से आगे…

सज्जन सिंह अपने सुपुत्र सामन्त और दूसरे कुछ योद्धाओं के साथ तेज ऊंटनियों पर रवाना हुए.

दो रास्ते थे, एक बहुत लम्बा रास्ता सौराष्ट्र होकर जाता था जो कि आबादी वाला था और रेगिस्तान से होकर नहीं जाता था.

दूसरा रास्ता रेगिस्तान के रेतीली खतरनाक आँधियों से भरा हुआ था, लेकिन बहुत छोटा था.

सज्जन सिंह ने खतरनाक रेतीला रास्ता ही चुना, क्योंकि महमूद की सेना एक के बाद एक गढ़ को ध्वस्त करती हुई तीव्र गति से पहुँच रही थी. एक-एक पल कीमती था.

सौराष्ट्र के जंगलों को दोपहर तक पार करके ये छोटा सा काफिला रेगिस्तान के सामने आ खड़ा हुआ. सामने दूर-दूर तक सिर्फ रेत ही रेत चमकती दिखाई देने लगी.

[घोघाबापा का प्रेत – 1]

सज्जन ने पुत्र की ओर देखा. आँखों को हाथ से धूप से बचाता हुआ वह भी हिम्मत और हौंस के साथ इस रेत के समुद्र को नाप रहा था.

सज्जन के मन में ख्याल आया कि इस बेचारे को रेगिस्तान का कोई अनुभव नहीं है. केवल दुस्साहस और ताकत के बल पर इस रेगिस्तान को नहीं पार किया जा सकता है.

सज्जन ने कहा, “बेटा, तू इधर से नहीं आबू के रास्ते से झालोर जा. मैं सीधे रस्ते जाता हूँ.”

सामन्त अपने पिता की बात समझ गया और त्योरियां चढ़ा कर बोला, “क्यों बापू, इस रास्ते से मुझे क्या हो जाएगा? सच बताना, अपने बेटे को इस रास्ते ले जाते हुए डर तो नहीं लग रहा है?”

“घोघाराणा की संतानें कभी यम से भी डरी हैं क्या?” कह कर उसने अपने पुत्र को गले से लगा लिया, और बोला, “अगर हम दोनों अलग अलग मार्ग पकड़ेंगे तो इस समय अच्छा रहेगा. मैं घोघागढ़ जल्दी पहुंच कर घोघाबाप्पा के साथ हमलोग, उस यवन को रोकने की रणनीति बना लेंगे. और तू इधर से रास्ते में पड़ने वाले राजाओं को इस युद्ध में शामिल होने और सोमनाथ को बचाने का आह्वान कर देना.”

“बापू यह क्या?” सामन्त अपने पिता की आँखों में पानी देखकर विचलित हो गया.

“कुछ नहीं बेटा, यह तो रेत की चमक से पानी आ गया आँख में.”

और फिर सामन्त ने अपने पिता को अपने सहयोगी सोनिया के साथ उस रेत के अथाह समुद्र में जैसे कूदते हुए देखा. पिता के ऊंटनी को हांकने की छटा देखी, पिता के गर्व से बैठने का ढंग देखा, और उडती हुई दाढ़ी की फरफराहट देखी. कैसे सफाई और तेजी से यह रेगिस्तान का राजा चला जा रहा था. ऐसे गौरवशाली पिता का पुत्र होने में गर्व तो होना ही चाहिए.

सज्जन सिंह अपने साथ सोनिया और अपनी प्रिय ऊंटनी को लेकर चल पड़ा रेत की आँधियों को तीव्र गति से चीरते हुए अपने गढ़ की ओर.

जिस ऊँटनी पर सज्जन सिंह बैठा उसका नाम पदमड़ी था. समूचे रेगिस्तान के आसपास के राज्यों में कोई उसका सानी नहीं था. सज्जन सिंह के इशारे वो पल में समझ जाती थी, और जब रेत में द्रुत गति से चलती थी, तो देखने वालों को लगता था कि जैसे उड़ रही हो.

“बापा सोमनाथ और घोघाराणा दोनों की लाज अब तेरे हाथ में है पदमड़ी बहू.” पदमड़ी ने भी गरदन को हिला कर सज्जन को आभास दे दिया कि वो समझ रही है वक़्त की नज़ाकत और कीमत, और फिर उसने अपना वेग तीव्रतम कर दिया.

चलते चलते शाम हो आई, और फिर रात भी आ गई. वहीँ एक छोटा सा टीला दिखा, जहाँ कुछ पेड़ थे और पानी भी उपलब्ध था. वहां रुक कर विश्राम करने का सोचा गया.

अब यहाँ से आगे रेगिस्तान की जानलेवा आँधियों का अविजित साम्राज्य शुरू होता था. सोनिया भी ये बात जानता था, इसलिए सुबह होते ही वो घबरा कर पीछे हटकर, रास्ता छोड़ने की बात करने लगा.

सज्जन ने उसको बहुत समझाया, यहाँ तक कि सोनिया की ऊँटनी को दो-चार सोंटी लगा भी दिया गुस्से में. लेकिन सोनिया की ऊँटनी भी थमक कर खडी ही रही.

सज्जन समझ गया कि दरअसल ऊंटनी नहीं, ये सोनिया ही साथ नहीं चलना चाहता है अब. और अंत में सोनिया वहां से विपरीत दिशा में अपनी ऊंटनी दौड़ाता भाग खड़ा हुआ.

निश्चित मौत जानते हुए भी मातृभूमि पर न्योछावर हो जाने वाले वीर विरले ही होते हैं.

सज्जन सिंह अकेला ही आगे बढ़ा. पदमड़ी में आसान रास्ता खोज निकालने की अद्भुत दृष्टि थी. दूसरा और तीसरा दिन भी बीत गया और विश्राम स्थल लायक जगह मिलती रही.

अब चौथे दिन दोपहर तक, सूर्य की धूप प्रखर होकर आँखों में चुभने लगी. चारों ओर रेत के उड़ते बगूले देख प्रतीत हुआ जैसे पदमड़ी भी थक रही है. भट्ठी जैसी लू चल रही थी.

“पदमड़ी देख तू हार खा रही है.” सज्जन ने उसको उकसाते हुए कहा.

पदमड़ी ने थोड़ी तेजी दिखाई, लेकिन पहले जैसा उत्साह नहीं था. सज्जन ने उतर कर उसको पानी पिलाया, उसको बिठाकर उसके शरीर से रेत झाड़ी, और फिर उसकी आँखों को अपनी हथेलियों से बंद करके पुचकारता रहा. शाम थोड़ी शीतलता लाई, और पदमड़ी का उत्साह फिर से पूर्ववत हो गया.

सज्जन उसके बगल में अभी सोया ही हुआ था कि पदमड़ी उठ खड़ी हुई. वो तडफड़ा कर नथुने फुलाए कूदने लगी. सज्जन उसकी भाषा समझ कर कूदकर उसके ऊपर चढ़ा और बोला, “क्या है? क्या है? क्या तू पागल हो गई है पदमड़ी बहु?” लेकिन वो कूदती रही.

सज्जन ने लाड़ प्यार दिखाया, फिर भी न मानी तो उसने दो सोंटी लगा दिया, लेकिन पदमड़ी पर कुछ असर न हुआ. वो वैसे ही बेचैन रही. फिर वो पूरब की और मुंह उठाकर दौड़ पड़ी. सज्जन ने हाथ जोड़कर कहा, “बाप्पा सोमनाथ, रहम करो.”

अचानक चारों ओर से रेत के बवंडर गोलाकार होकर तीव्र गति से उठे और जिधर दिखाई दे, हर ओर छा गए. पदमड़ी घबराई और बैठ गई. सज्जन उसके गले से लिपट कर उसके और अपनी आँखों, कानों और नाक से रेत के कण निकालने लगा.

थोड़ी देर में बवंडर जैसे ही आया था वैसे ही चला गया. उसने पीछे देखा तो भयंकर आंधी दूर हो चुकी थी, ऐसा लगा जैसे इनको रेत चखाने ही आई थी. “पदमड़ी, बच गए हम. भोला शम्भू ने दया की.”

कुछ दिन और ऐसे ही आँधियों को झेलते, बचते-बचाते चलने के बाद अचानक फिर से पदमड़ी ने चीख मारी, और थमक कर खड़ी हो गई. बहुत प्रयासों के बाद भी जब वो न हिली तो सज्जन ने उतर कर उसकी नकेल थामा और पैदल ही सामने दिखते टीले की ओर बढ़ गया.

टीला पार करते ही सज्जन को एक उजाड़ सा गाँव दिखा और प्राणों को घोंट देने वाली सड़ती लाशों की बदबू उसके नथुनों से टकराई. अत्यधिक निर्भीक सज्जन भी इस विनाशकता को देख कर काँप गया और फिर अत्यंत प्रयत्नपूर्वक साहस जुटा कर गाँव को पार किया.

उसके मन में ख्याल आया कि इतना नीच कार्य, निहत्थे गाँव वालों को निःसंकोच मौत के घाट उतारने का दुष्कर्म, मलेच्छों के सिवाय और कोई नहीं कर सकता है.

अब उसने सेना के वहां से प्रस्थान करने की दिशा ज्ञात की और उसी ओर बढ़ चला. वो सोच रहा था कि अब घोघागढ़ जाने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि या तो गजनी की सेना घोघागढ़ को भी जीत कर आगे बढ़ आई है या फिर घूमकर उसको पार कर गई है.

कुछ भी हो, उसका लक्ष्य तो महमूद को रोकना था. जब तक वो अब घोघागढ़ पहुंचेगा और सहायता लेकर आएगा, तब तक तो महमूद की सेना सोमनाथ पहुँच चुकी होगी. और जाने अब घोघागढ़ में कोई जीवित हो भी या नहीं. इसलिए वो अकेला ही अपने दांत भींच कर उस ओर बढ़ चला.

सज्जन दो-चार घड़ी ही गाँव छोड़कर आगे रेगिस्तान में पहुंचा होगा कि सामने रेत के उड़ते बगूलों में उसको कुछ ऊंटनियां आती जान पड़ीं. उसने यत्नपूर्वक पदमड़ी को रोका, और नजदीक आती ऊंटनियों की ओर देखा, वे सात थीं. उनपर बड़ी बड़ी विकराल आँखें और दाढ़ी वाले यवन बैठे हुए थे.

एक नायक सा लगने वाले यवन ने अपने साथियों से कुछ कहा और उन सबने सज्जन को घेर लिया. सातों में से एक हिन्दुस्तानी लग रहा था, शायद कुछ अशर्फियों की लालच में रास्ता बताने और दुभाषिये का कार्य करने को तैयार हुआ होगा.

नायक के कुछ कहने पर दुभाषिये ने सज्जन से पूछा, “क्या इस सारे रेगिस्तानी रास्तों की तुझे जानकारी है?” सज्जन को भाषा अपमानित लगने के बाद भी उसने अपना रोष दबाते हुए कहा, “हाँ है, लेकिन आप लोग कौन हैं?”

“हम कौन हैं, ये तो तुझे अभी मालूम पड़ जाएगा, लेकिन ये बता कि गुजरात के सोमनाथ तक जाने का सीधा रास्ता कौन सा है?”

सज्जन को अपनी आशंकाएं सच प्रतीत हुईं, और वो महादेव को नमन करता हुआ मन ही मन हँस पड़ा. ‘ये मलेच्छ मेरे होते हुए मेरे सोमनाथ बाप्पा का मंदिर तोड़ेंगे? इसलिए तो महादेव की प्रेरणा से मुझे इस रास्ते आना पड़ा. इस सारी मलेच्छ सेना को इसी रेगिस्तान के बवंडरों में जीवित दफ़न कर देने से बढ़िया क्या हो सकता था.”

प्रत्यक्षतः उसने खुद के चेहरे को सामान्य बनाते हुए कहा, “चलो, ले चलूँ.”

“तू अच्छी तरह से तो जानता है न रास्ता? कितने दिन का है?”

“मैं अभी वहीँ से आ रहा हूँ. बहुत बार आया गया हूँ. 10-12 दिन का रास्ता है.”

“ठीक है चल हमारे साथ सेना के भीतर, लेकिन तेरी ऊंटनी हमारे कब्जे में रहेगी.”

“मैंने अपनी ऊंटनी के बिना आज तक रेगिस्तान में पैर नहीं रखा है. इसके बिना मैं कुछ नहीं कर सकता.” सज्जन ने दो टूक कह दिया.

“तेरी ऊँटनी तुझे मिल जायेगी. अभी चल हमारे बादशाह के पास.”

“चलो.” कहकर सज्जन उनके साथ उनकी सेना में घुस गया. सेना की विशालता देख कर ही उसको समझ आया कि कैसे ये गजनी का महमूद इतनी विजय कर के यहाँ तक आ पहुंचा है.

यह कोई एक सैनिक छावनी नहीं बल्कि पूरा एक ऐसा महानगर था, जिसमें जहाँ जहाँ तक नजर जाती, छावनियां ही छावनियां दिख रही थीं. हाथ में मशाल थामे इधर से उधर विचरते हजारों हथियारबंद सैनिक.

ये सब देखकर सज्जन को मार्ग में पड़ने वाले सुल्तान मुल्तान, नान्दोल, सपालदक्ष (अजमेर) इत्यादि राज्यों के परिणामों को सोचकर, उसकी पीठ में सिहरन दौड़ गई.

‘घोघागढ़ इन आतंकियों के रास्ते में पड़ा कि नहीं?’ ये पूछने और जानने के अपने निश्चय को दबा कर वो चलते-चलते गहरी सांस भरकर बुदबुदा उठा, “जैसी सोमनाथ की इच्छा.”

क्रमशः

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