सत्ता प्रतिष्ठानों को कब्ज़ाने वामपंथ का सांस्कृतिक जेहाद

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आप को याद होगा कुछ दिन पहले हिंदी की एक लेखिका ने, हमारी माताओं-बहनों के छठ पर सिन्दूर लगाने को सिन्दूर पोतना कह कर मज़ाक उड़ाने की कोशिश की थी.

बड़ा हंगामा हुआ और हमारी अनेक बहनों ने उसे करारा जवाब दिया था. अंत में उस लेखिका को वो पोस्ट हटानी पड़ी थी.

मगर इससे हुआ क्या? उलटे उस लेखिका को अतिरिक्त चर्चा मिली जिसके लिए वो लालायित रहती हैं, लेकिन बड़ा नुक्सान यह हुआ कि बिना गहराई में गए कुछ एक हिन्दू पुरुष-महिलाओं के मन में अपनी संस्कृति को लेकर संशय उत्पन्न हो गया.

आजकल जब हम सब एकजुट होकर पद्मावती फिल्म का विरोध कर रहे हैं, कुछ एक लेखिकाओं ने उनके जौहर पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया. बिना संदर्भ, परिस्थिति, काल और दुश्मन को जाने-समझे कई महिला पुरुष लगे ताली पीटने.

लिखने वालों ने बड़ी धूर्तता से इसे माता सीता और लक्ष्मीबाई से जोड़ कर पद्मावती के बलिदान को गलत दिखा दिया और अपनी बात के समर्थन में एक से एक कुतर्क गढ़े.

इन्हे यह बतलाने का भी कोई फायदा नहीं हुआ कि दसियों जंगली भेड़ियों से एक महिला नहीं लड़ सकती और लड़ कर हारने के बाद उनका क्या अंजाम होता, मगर ये कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं.

इस संदर्भ में कहने को बहुत कुछ है मगर संक्षिप्त में एक मित्र की यह टिप्पणी यहां सार्थक है कि “जौहर भी युद्ध था. आक्रांता जिस चीज़ के लिए आया, वह उसे न मिले यह युद्ध की नीति थी. अभिमन्यु की मृत्यु पर उत्तरा सती नहीं हुई. लेकिन, ख़िलजी की नज़र, महाराणी पर थी, उनके सखियों पर थी, पर युद्ध जीतकर भी वह हाथ मलता रह गया.”

मगर इन्हें तर्कों से कोई मतलब नहीं. इनकी मानसिकता अगर समझना है तो आप पाएंगे कि ये गिरोह माता सीता की चर्चा के दौरान श्री राम पर प्रश्न खड़ा करता है.

इन्हें हर उस बात पर सवाल खड़ा करना होता है जो हमारे ऐतिहासिक आदर्श हैं और हमे प्रेरित करते रहे हैं.

इन्हें कोई यह बतलाये कि हम हर साल रावण का पुतला जला कर अपना आक्रोश प्रकट करते हैं, इस तरह से तो हमें खिलजी के पुतले को हर साल टुकड़े टुकड़े करने का उत्सव मनाना चाहिए. उसके लिए यह मौन धारण कर लेंगे.

इन्हें यह नहीं पता कि इस सिन्दूर लगाने और अन्य संस्कृति ने ही हमें सदियों से एकजुट कर रखा है और इसके कई सामाजिक और प्राकृतिक संदर्भ है.

रानी पद्मावती के एक बलिदान ने हमारे अंदर एक आग प्रज्जवलित कर रखी है. यही सब कारण हैं जो हम लम्बी गुलामी में भी सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र और ज़िंदा रह पाए.

इसी गिरोह की एक लेखिका एक कविता लिखती हैं, नारी की देह को लेकर, जिसमें सती, जौहर, घूंघट, अग्निपरीक्षा आदि को लेकर बड़ी संवेदना परोसने की कोशिश की गई.

इसे अनेक महिलाओं-पुरुषों द्वारा लाइक भी किया जा रहा मगर कोई यह नहीं देख रहा कि यह सब प्रथा अब इतिहास की बात है जबकि आज के दिन बुर्का, हलाला और ट्रिपल तलाक बड़े मुद्दे हैं, मगर इनका उस कविता में कोई ज़िक्र क्यों नहीं?

इन फर्ज़ी नारीवादियों का विश्लेषण करने पर कई रोचक जानकारियाँ मिल सकती हैं. मगर चिंता की बात यह है कि इनके लिखे से समाज कितना दूषित हो रहा है. इनकी तथाकथित नारी स्वतंत्रता ने हमारे घरों और समाज में कितना विघटन किया है, इसे समझने में हम चूक कर रहे हैं.

सास बहू के सीरियल ने सत्यानाश कर रखा है. महिलाओं को इतना पूर्वाग्रहित कर दिया है कि पूछो मत. क्या हमारी दादी-नानी सच में पुरुष पीड़ित थीं? नहीं, बल्कि घर में उनका पूरा हुकुम चलता था और वे परिवार को भी एकजुट रखने का काम करती थी.

मगर क्या इन लेखकों का मकसद सिर्फ अपनी चर्चा करवाना, अपनी दस-बीस किताब बिकवाना, या कोई मंच बोलने के लिए मिलता रहे, इतना भर ही है?

इनको ये व्यक्तिगत लाभ तो मिलते ही हैं. मगर समाज को विघटित करके इनको क्या मिल रहा है? इन्हें जो मिल रहा है उससे अधिक इनके वामपंथ को क्या मिल रहा है, इसे जानने और समझने की ज़रूरत है.

इस पर मैं विस्तार से लिखने ही वाला था कि सुबह सुबह मित्र राजीव की ये पोस्ट पढ़ी. संक्षिप्त में यहां रख रहा हूँ. जरूर पढ़े और अंत में मेरा निष्कर्ष भी देखे.

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कल्चरल मार्क्सवाद वामपंथियों की सबसे विषैली शाखा है. जर्मनी में यह वामपंथ के फ्रैंकफर्ट स्कूल के नाम से फैली है. और आप भारत में या दुनिया में जहाँ कहीं भी जो भी गंदगी देखते हैं, वह वहीं से निकलती है.

मूलतः यह सांस्कृतिक मार्क्सवाद या पोस्ट-मॉडर्निज्म क्या है? जब मार्क्सवाद दुनिया में अपनी पकड़ और प्रासंगिकता खो बैठा तो इन वामपंथियों ने चोला और पैंतरा बदल लिया. पर मूल उद्देश्य वही है जो पहले था – सत्ता पर कब्जा. पर उन्होंने उसके पीछे की समझ को थोड़ा विस्तृत किया. इस बात को पहचाना कि सत्ता के कई बाजू हैं. राजनीतिक सत्ता सिर्फ एक पक्ष है. उससे बड़ी सत्ता है लोगों के मस्तिष्क पर कब्जा. और उसके सहारे राजनीतिक सत्ता पर भी कब्जा किया जा सकता है.

मूल मार्क्सवाद बड़ा सरल और सीमित था… उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा करके सत्ता पर कब्ज़ा. उसके मोहरे भी सीमित थे – मजदूरों को भड़का कर, ट्रेड यूनियनों के माध्यम से अराजकता फैला कर उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा.

तो इस अराजकता के लिए निर्मित नैरेटिव भी सीमित था – लोगों को अमीर-गरीब या मालिक-मजदूर के नाम पर बाँटना और लड़ाना. यह नैरेटिव बहुत ही एकांगी और क्रूड था. लोगों ने जल्दी ही समझ लिया कि इंडस्ट्री के हित में ही मजदूरों का भी हित है. और दोनों के संघर्ष में सिर्फ वामपंथी नेताओं का हित है. सत्ता सिर्फ एक के हाथ से निकल कर दूसरे के हाथ में चली जाती है, जो और भी ज्यादा क्रूर और निरंकुश है.

सांस्कृतिक मार्क्सवाद ज्यादा कुटिल और विषैला है. यह भी उसी संघर्ष, अराजकता और गड़बड़ी की नींव पर बना है जिसपर कम्युनिज्म बना था. पर इस दानव के बारह जोड़े हाथ हैं. इसका संघर्ष का नैरेटिव ज्यादा विस्तृत है. यह सिर्फ अमीर-गरीब का संघर्ष नहीं है. क्योंकि गरीब को समृद्धि का मार्ग दिखा कर उस संघर्ष को खत्म किया जा सकता है. पर आज संघर्ष के कई नैरेटिव हैं, शोषण की अनेक कहानियाँ हैं. स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक, बच्चे, अश्वेत, होमोसेक्सुअल… जहाँ जिस बहाने से जो कहानी फिट होती हो, उसे चलाते हैं. उद्देश्य वही है – संघर्ष, अव्यवस्था, अराजकता… सत्ता पर कब्ज़ा.

ढाल है पॉलिटिकल करेक्टनेस

आप वामपंथ पर सवाल कर सकते हैं… उन्होंने स्त्री को आगे कर दिया… बोलकर देखिये. नारीवादी आप पर टूट पड़ेंगी. अल्पसंख्यक को आगे कर दिया… भावनाएँ आहत हो जाएंगी. ये सभी उनके मोहरे हैं.

मार्क्सवाद अकेला मजदूर का मोहरा लेकर खेल रहा था. पर अब यह खेल ज्यादा जटिल है. लीजिये, स्त्री-विमर्श के नामपर पुरुष और स्त्री को आमने सामने खड़ा कर दिया. नारी स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें लंपट बना दिया…. समाज के मूल, परिवार को ही तोड़ दिया.

चाइल्ड एब्यूज़ का हौवा खड़ा करके बच्चों को अनुशासनहीन बना दिया. बाप अब बच्चे को डाँट तक नहीं सकता. पूर्ण अराजकता ही उद्देश्य है.

हर किसी को वास्तविक, काल्पनिक या अतीत के अन्याय और शोषण की कहानियाँ पकड़ा दीं. जो बातें दो पीढ़ी से खत्म हो चुकी हैं उन्हें कुरेद कुरेद कर जिंदा किया गया, उनकी कहानियाँ बनाई और चलाई गईं.

नहीं, इन्हें किसी भी अन्याय के निराकरण से कोई लेना देना नहीं है. जिनका निराकरण हो चुका है, उससे भी कोई मतलब नहीं है. इन्हें समाज में संघर्ष, अव्यवस्था और अराजकता खड़ी करनी है… उसी अराजकता में इन्हें शासन पर कब्ज़ा करने की उम्मीद है.

आप सहज ही समझ सकते हैं, भारत की राजनीति की कौन सी धारा इस गंदे नाले से निकल कर आ रही है. पश्चिम में इन्हें बौद्धिक स्तर पर काफी निबटा गया है. कम से कम इनकी पहचान की गई है. भारत में हम अब भी सत्ता के खेल को राजनीतिक दलों के स्तर पर ही देखते हैं. एक पूरे सांस्कृतिक आयाम से अनभिज्ञ हैं.

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मेरे मतानुसार यह एक सांस्कृतिक जेहाद है, जो वामपंथ कर रहा है. यही काम ईसाई धर्म परिवर्तन समूह कई सदी से दुनिया में करते आये हैं. हम भी इसका शिकार हैं.

कोई पूछ सकता है कि धर्म परिवर्तन का सत्ता से क्या लेना देना? उनके लिए यह बताना जरूरी है कि धर्म परिवर्तन के द्वारा सत्ता आसानी से हासिल की जा सकती हैं.

यह काम, इस्लाम पहले अपने तलवार के दम पर करता आया है. मगर अब यह भी सांस्कृतिक जेहाद का प्रयोग करने लगा है.

तीन बौने खानों को बॉलीवुड में सुपर स्टार के रूप में प्लांट करना इसी रणनीति का हिस्सा है. हमारी नई पीढ़ी इन तीनों के कारण किस हद तक जेहाद की शिकार हैं हम खुद नहीं समझ पा रहे.

वामपंथ ने हमारी सोचने की शक्ति पर कब्ज़ा कर रखा है. अगर हमें सच में स्वतंत्र हो कर जीना है तो हमें इस खेल को समझ कर हमारे विरुद्ध रचे जा रहे षड्यंत्र को विफल करना होगा.

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