हमें नहीं देखना है अपने आदर्शों का बाज़ारू चित्रण

बहुत पहले, एक बार शशि कपूर जो कि यूँ तो अपने जमाने के चोटी के अभिनेता थे और बेहतरीन कलात्मक फिल्मों के निर्माता भी थे उनको महाभारत पर एक फ़िल्म बनाने का खयाल आया.

तय हुआ कि फ़िल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल होंगे. जब फ़िल्म table पर discuss की जाने लगी कि महाभारत पर बनने वाली फिल्म एक पीरियड फ़िल्म होगी जिसे बहुत भव्य बनाना पड़ेगा. महंगे महंगे सेट्स बनाने पड़ेंगे, और फ़िल्म बहुत बड़े पैमाने पर बनेगी.

और श्याम बेनेगल की समस्या ये थी कि वो कलात्मक रुचि की फ़िल्म बनाते थे. उनकी फिल्में कुछ खास किस्म के दर्शकों को ही पसंद आती थीं…

अब इतनी महंगी फ़िल्म अगर आम आदमी, masses न देखें तो उसकी कीमत ही वसूल नहीं होगी और महाभारत एक ऐसा कथानक है जिसपर सस्ती फ़िल्म बनाई ही नहीं जा सकती… और महंगी फ़िल्म को श्याम बेनेगल जैसा फिल्मकार डुबो देगा.

सो तय हुआ कि महाभारत की कहानी को adapt किया जाए. महाभारत एक युद्ध महाकाव्य है. उस कहानी को दो तरीके से adapt किया जा सकता था. या तो उसे under world के war के रूप में फिल्माया जाये या फिर corporate war के रूप में…

शशि कपूर और श्याम बेनेगल ने उसे दो औद्योगिक घरानों की आपसी लड़ाई, एक corporate war फ़िल्म के रूप में adapt किया और हिंदी सिनेमा की एक कालजयी रचना तैयार हुई ‘कलयुग’.

उस फिल्म में भीष्म भी थे, द्रोण भी और कृष्ण भी, कर्ण, युधिष्ठिर और दुर्योधन भी थे और द्रौपदी भी… फ़िल्म में न कोई नाच गाना था और न फूहड़ नाटकीयता…

शशि कपूर, विक्टर बनर्जी, राज बब्बर, रेखा, अनंत नाग, कुलभूषण खरबंदा, अमरीश पुरी, एके हंगल की फ़िल्म कलयुग एक बेहतरीन कलात्मक फ़िल्म थी…

पर वो masses के लिए नहीं बनाई गई थी… श्याम बेनेगल जैसा निर्देशक और शशि कपूर जैसा निर्माता masses के लिए फ़िल्म बना ही नहीं सकते…

एक दूसरा उदाहरण भी याद आता है मुझे. नब्बे के दशक में चंद्र प्रकाश जी ने एक सीरियल बनाना शुरू किया. नाम था चाणक्य… उसके सिर्फ 4 या 5 एपिसोड ही प्रसारित हो पाए TV पे…

दर्शक ही नहीं मिले… TRP इतनी कम थी कि सीरियल चंद एपिसोड बाद ही बंद हो गया. चंद्र प्रकाश जी की कमज़ोरी है कि वो घटिया, छिछोरी, फूहड़, नाटकीय कृति बना ही नही सकते. सबकी अपनी अपनी सीमाएं होती हैं.

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पिछले एक हफ्ते से सोशल मीडिया पर फ़िल्म पद्मावती को ले के चिहाड़ मची है. लोग बाग उद्वेलित हैं. फेसबुक उबाल खा रहा है.

पर आज जो लोग उबल रहे हैं, उनको साल भर पहले उबाल खाना चाहिए था… साल भर पहले जब पहली बार ये सुनने में आया कि संजय लीला भंसाली रानी पद्मावती पे फ़िल्म बनाएगा तो मैं तो तभी उबाल खा गया था.

इस संजय लीला भंसाली की औकात मुझे पहले दिन से ही पता है. मुझे पता है कि ये आदमी खूब तड़क भड़क वाले रंग बिरंगे महंगे सेट्स और अत्यधिक फूहड़ अश्लील नाटकीयता, नाच गाना परोसे बिना फ़िल्म बना ही नहीं सकता.

संजय लीला भंसाली की नायिका फूहड़ नाच गाना न करे, अंग प्रदर्शन न करे, कामुक न हो ऐसा हो ही नहीं सकता.

भंसाली जैसा आदमी हमारी अस्मिता आस्था को उस लेवल पर जा के सोच समझ ही नही सकता… वो अपनी फिल्मी मानसिकता, अपने छिछले छिछोरे घटिया मानसिक स्तर से ऊपर आ ही नही सकता.

दूसरी बात ये कि जिस आदमी को 100 या 200 करोड़ रूपए लागत लगा के फ़िल्म बनानी है उसे फूहड़ अश्लील घटिया फ़िल्म ही बनानी होगी…

एक सवाल और है कि हमारे देश में class दर्शक हैं कितने? Classic फ़िल्म देखने जाएगा कौन?

जहां दर्शकों का स्तर ही Big Boss वाला हो, गोलमाल वाला हो, या फिर सलमान और शाहरूख खान की घटिया छिछोरी फिल्मों का हो, वहां आप एक महंगी पर सुरुचिपूर्ण कलात्मक फ़िल्म की कल्पना कर भी कैसे सकते हैं?

इसलिए साल भर पहले जब ये खबर आई कि संजय लीला भंसाली रानी पद्मावती पे फ़िल्म बना रहा है और अभी फ़िल्म लिखी ही जा रही थी तो शायद सबसे पहले Social Media पर मैंने इसके खिलाफ अभियान छेड़ा, लिखना शुरु किया…

फेसबुक के लोकप्रिय लेखकों के Inbox में जा जा के उनसे request की कि इस विषय पे लिखिए… मित्रों ने लिखा भी… पर ज़मीनी स्तर पर कुछ असर न हुआ…

हमारी औकात भर हम जितना कर सकते थे हमने किया. यहां से चित्तौड़ भीलवाड़ा तक भी गए. भीलवाड़ा में कुछ मित्र थे, उनके माध्यम से वहां कुछ ज़मीनी विरोध की कोशिश भी की, पर तब तक तो स्वयं चित्तौड़ के लोग ही गहरी नींद सोये थे.

फिर 6 महीने बाद जब फ़िल्म Floor पर चली गयी तो कर्णी सेना जैसे संगठनों की नींद खुली, कुछ हल्का फुल्का विरोध हुआ पर फ़िल्म का निर्माण रोका न जा सका.

अब जबकि फ़िल्म बन के तैयार है तो लोग विरोध कर रहे हैं. पूर्व में हमने देखा है कि ऐसी फिल्में हल्के फुल्के विरोध के बाद रिलीज़ हो जाती हैं और मुफ्त की publicity भी पा जाती हैं.

कायदन ये होना चाहिए था कि भंसाली जैसा आदमी रानी पद्मावती जैसे संवेदनशील विषय पर फ़िल्म बनाने और तथ्यों को तोड़ मरोड़ के पेश करने की सोच भी न सके.

अब ज़रूरत है कि फ़िल्म हमेशा के लिए बैन हो जाये… हमें अपने आदर्शों का बाज़ारू चित्रण नहीं देखना है.

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