वे छः भाई थे और शहर की एक अत्यंत पुरानी संकरी गली में, बरसों से मरम्मत से महरूम प्राचीन हवेली नुमा मकान में रहते थे.
उनके पिताजी को मोहल्ले के लोग सम्मान से या न जाने पेशे से, हकीम साहब कहते थे.
आज भी हकीम साहब जब घर से बाहर निकलते तो अपनी रंग उड़ी शेरवानी पहनकर ही निकलते थे.
जब बड़े भाई की शादी हुई तो जगह की कमी के कारण एक फ्लैट लेकर साफ़ सुथरी सोसाइटी में रहने लगे. वहीं मेरी उनसे मुलाकात हुई.
ईद का त्यौहार सारा परिवार एक साथ मनाता था और ऐसे ही एक मौके पर बड़ी मुहब्बत से उन्होंने मुझे उस हवेली में आमंत्रित किया.
तब अहसास हुआ कि परिवार वास्तव से अपने समाज में बहुत सम्मानित है. पीढ़ियों से हरियाणा में रहते हुए भी परिवार बहुत नफीस उर्दू बोलता था.
हकीम साहब ने बड़े गौरव से बताया कि हम कन्वर्टिड मुसलमान नहीं हैं बल्कि हमारा खानदान मुगलों के साथ ही भारत आया था.
धंधे के सिलसिले में मैं शहर से बाहर रहने लगा. अब उनसे मुलाकात कभी साल-छः महीने में ही होती थी.
एक दिन उनकी बेटी की शादी का निमंत्रण मिला.
पुराने दोस्तों से मुलाकात होगी और एक मुस्लिम पारम्परिक शादी को एन्जॉय करने का अवसर मिलेगा इसलिए छुट्टी लेकर मैं बारात आने से दो घंटे पहले ही पहुँच गया था.
उत्सव का वातावरण था.
“हवेली से बारात चल पड़ी है… हवेली वालों का फोन नहीं मिल रहा, दुलहन ब्यूटीपार्लर से नहीं आई है, कोई देगे को देखो गोश्त पक गया होगा”. ऐसा शोर उठ रहा था.
बार बार हवेली का ज़िक्र आता. मैंने कौतुहलवश मित्र से पूछ ही लिया, “बारात कहाँ से आ रही है मिया”.
उसने तपाक से कहा, “अरे आप को नहीं पता. अपने छोटे भाई का बेटा ही तो है बब्बन. अरे तुमने तो बचपन में उन्हें साथ खेलते देखा होगा”.
फिर न जाने क्यों मैं कुछ अनमना सा होने लगा और मुँह में कसैलापन सा घुल गया. ये शायद मेरे ‘विकृत’ संस्कार की वजह से था.
धूम धाम से बारात आई. भाई एक दूसरे के गले मिल रहे थे और मैं भीड़ भाड़ का फायदा उठा कर धीरे से निकल लिया.