जब इंदिरा ने की थी हिन्दू पुनर्जागरण की लहर के अपहरण की कोशिश

मप्र के झोतेश्वर स्थित आश्रम में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती से मिलने जाती इंदिरा; चित्र साभार : नितिन पोपट

शायद आज किसी को विश्वास ना हो, राम जन्म भूमि आंदोलन की फाउंडर इंदिरा गांधी थीं.

1980 में मीनाक्षीपुरम में हुई व्यापक धर्मांतरण की घटना के पश्चात, विश्व हिन्दू परिषद के विराट हिन्दू सम्मेलनों द्वारा हिंदुओं में पैदा की गयी पुनर्जागरण की लहर को कैश करने के लिए इंदिरा हिंदुत्व की शरण में आने को मजबूर हो गईं थीं.

विश्व हिन्दू परिषद के पुनर्जागरण की सबसे बड़ी विशेषता थी हिन्दू समाज में तेजी से पैदा हुआ सवर्ण-दलित एकता का व्यापक भाव…

विराट हिन्दू सम्मेलन के तत्वावधान में जगह जगह दलित बस्तियों में सहभोज के कार्यक्रम होते थे…

वे सहभोज अब के नेताओं वाले प्रोजेक्टेड सहभोज यानी किसी धनिक दलित के यहाँ नहीं, वरन संघ के सवर्ण वर्ग के स्वयंसेवकों के, समाज के कतई निचले वर्ग के साथ साधारण तरीके से बैठ उन्हीं के द्वारा बनाये और परोसे जाने वाले भोजन से होते थे.

और साथ ही विराट हिन्दू सम्मेलनों में विभिन्न नदी तालाबों से लाया हुया जल विशाल कलशों में एकत्रित कर फिर घर ले जाने के लिए छोटी छोटी शीशियों में वितरित होता था.

कुल मिला कर पुनर्जागरण का यह आंदोलन हिंदुओं में बड़ी तेजी से एकता का भाव पैदा कर रहा था.

तब राजनीति की चतुर खिलाड़ी इंदिरा ने हिन्दू एकता की इस लहर को अच्छी तरह अनुभव कर, बिना देरी किये इसके अपहरण की प्लानिंग करना शुरू की.

उन्होंने आनंदमयी के आश्रम की यात्राओं की संख्या बढ़ा दी… देवरहा बाबा की शरण ली…

उनको हिंदुत्व के लटके झटके सिखाने के लिए धीरेन्द्र ब्रह्मचारी हर समय साथ रहते ही थे… चंद्रास्वामी भी उनकी किचिन केबिनेट में दखल रखने ही लगे थे.

साथ ही जनता के बीच आने के समय उन्होने हिन्दू मेकअप को गहरा करना शुरू किया… रुद्राक्ष की बड़ी माला के साथ माथे पर भी बड़ी बिन्दानुमा बिंदी दिखना शुरू हो गयी थी.

उधर सिक्ख आतंकवाद को कुचलने के लिए किए गए ऑपरेशन ब्लू स्टार ने हिंदुओं के एक वर्ग के बीच इंदिरा की छवि शेरनी वाली बना ही दी थी… लेकिन इंदिरा इस छवि को ‘हिन्दू शेरनी’ के रूप में बदलना चाहती थी…

अतः आश्रम, बाबाओं की शरण के अलावा अपनी ‘हिन्दू इमेज मेकिंग’ मुहिम की सबसे बड़ी चाल चलते हुये उन्होंने अपने एक विश्वस्त दाऊदयाल खन्ना के माध्यम से कोर्ट में रामजन्म भूमि का ताला खोले जाने की अर्जी डलवा दी.

लेकिन इन प्रयासों के बीच ही इन्दिरा की हत्या हो गयी… और उनके कुटिल दरबारियों ने हिन्दू एकता और पुनर्जागरण की लहर को बड़ी दुष्टता से कथित शेरनी के साथ जोड़ सिक्खों के प्रति घृणा में बदल दिया…

सिक्खों के व्यापक नरसंहार से संघ-विश्व हिन्दू परिषद की विराट हिन्दू सम्मेलन और दलितों के साथ सहभोज वाली मेहनत, कपूर की तरह पानी पानी हो गयी थी…

इंदिरा चलीं गयी, लेकिन फ़िज़ा में ‘मेरे खून का एक एक कतरा……’ वाला भाषण छोड़ गयीं थीं…

लाशों की सौदागर कांग्रेस ने इस भाषण के सहारे इंदिरा की डैड बॉडी को भरपूर कैश कर लोकसभा में अभूतपूर्व बहुमत हासिल कर लिया…

तब दाउदयाल खन्ना के ताला खोले जाने वाले प्रार्थना पत्र को संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने अपने हाथ में सम्हाला… और श्री राम के सहारे हिन्दू समाज के एकीकरण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अनथक संघ एक बार फिर जी जान से जुट गया.

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