मेल गिब्सन ज्यादातर एक्शन फिल्मों के नायक के तौर पर पहचाने जाते हैं. उन्होंने कुछ फ़िल्में डायरेक्ट भी की हैं.
“हैकसॉ रिज” नाम की ये फिल्म, दूसरे विश्वयुद्ध की एक सच्ची घटना पर आधारित है. युद्धों पर फ़िल्में बनने की एक वजह ये भी है कि उनमें मार-धाड़ दिखाने के भरपूर मौके मिलते हैं.
लेकिन हिंसा दिखाते समय बात भी हिंसा की ही हो रही हो वो भी जरूरी नहीं. जैसे हिन्दुओं में अहिंसक, वैष्णव जैसे संप्रदाय होते हैं वैसे ही ईसाईयों में भी एक “सेवेंथ डे अड्वेंटिस्ट” (Seventh day adventist) कहलाने वाले अहिंसक लोग होते हैं. फिल्म का नायक डेस्मंड डॉस भी ऐसा ही एक व्यक्ति है.
बचपन में ही कभी डेस्मंड डॉस अपने छोटे भाई को मरणासन्न स्थिति में पहुंचा चुका था और इस घटना के प्रभाव से वो अहिंसक होने लगा.
इसाइयत के दस कमांडमेंट्स में से एक “दो शेल्ट नॉट किल” (Thou shalt not kill) में अटूट श्रद्धा रखने वाला डॉस एक घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने में डोरोथी नाम की नर्स से मिलता है और उस से शादी भी करना चाहता है.
उसकी इलाज के काम में भी रूचि हो जाती है. उसी वक्त जापानी पर्ल हार्बर पर हमला करते हैं और डॉस सेना में भी शामिल होना चाहता है. उसके पिता पहले विश्वयुद्ध में शामिल रहे थे, शायद हिंसा देखने की वजह से उनका मानसिक संतुलन कुछ बिगड़ा हुआ सा था. वो बेटे के सेना में जाने के फैसले से बहुत खुश भी नहीं थे.
वो हथियार नहीं उठाएगा, इस शर्त पर डेस्मंड डॉस सेना की मेडिकल कॉर्प्स में शामिल होता है. वो डोरोथी से शादी की बात भी कर लेता है.
अब जहाँ वो ट्रेनिंग के लिए पहुँचता है वहां उसे ट्रेन करने वाले और उसके साथी दोनों उसके हथियार ना उठाने और अहिंसक होने से उसे गिरा हुआ मानते हैं. आखिर देश पर हमला करने वालों के खिलाफ कोई हथियार क्यों नहीं उठाएगा?
उसके साथ वाले उसे तंग करते रहते हैं, सर्जेंट होवेल और कप्तान ग्लोवर उसे मनोवैज्ञानिक कारण बता कर निकालना चाहते हैं, लेकिन कागज़ों की वजह से ऐसा मुमकिन नहीं था. मेडिकल कॉर्प्स की वजह से जब उसे सीधा नहीं निकाल पाते, मार पीट का भी असर नहीं होता, किसी तरह डॉस हिंसक नहीं होता तो वो लोग दूसरा तरीका आजमाते हैं.
उसे बन्दूक उठाने का आदेश दिया जाता है और इनकार करने पर नाफ़रमानी के आरोप में कोर्ट मार्शल कर दिया जाता है. कप्तान ग्लोवर अब डोरोथी को लेकर आता है और उसे समझाने की कोशिश करता है कि अगर वो खुद को गुनाहगार कबूल ले तो बच जाएगा.
मुकदमा चल ही रहा था कि डॉस के पिता एक एक्ट लिए चले आते हैं. उसके मुताबिक डेस्मंड ने कुछ गलत नहीं किया था, मुकदमा भी ख़ारिज हो जाता है. कुल मिलकर जैसे तैसे डेस्मंड डॉस सेना में पहुंचा और पहुँचते ही उसे पेसिफिक (प्रशांत महासागर) के इलाके के ओकिनावा की जंग में ड्यूटी मिलती है.
ये लगभग नामुमकिन सा मोर्चा था जहाँ एक बिलकुल दिवार सी खड़ी, सीधी पहाड़ी के ऊपर जंग चल रही थी. जापानी ऊपर थे और अमरीकी नीचे से पहाड़ी पर चढ़ चढ़ कर हमला करने जाते.
गाजर मुली की तरह दोनों तरफ के सैनिक कट-मर रहे थे. पहाड़ी पर अमेरिकी सिपाहियों के फर्स्ट ऐड में वहीँ डेस्मंड भी सर्जेंट हॉवेल के साथ था. सब उसे कायर मानते हैं लेकिन वो घायलों की मदद के अपने काम में लगा रहता है.
रात भर की जंग तो जैसे तैसे कटती है मगर अगली सुबह जापानी और सैनिकों के साथ जोरदार हमला कर देते हैं. 77वीं इन्फेंट्री बटालियन के डॉस के कई साथी शहीद हुए और अमेरिकी पीछे हटने लगे. बाकी लोग ढलान से उतर रहे थे कि घायलों की पुकार डॉस के कान में पड़ी.
डेस्मंड डॉस वापस गोलियों की बाढ़ में लौटा और घायलों की मदद करने लगा. अमेरिकी जब मान रहे थे कि उनके सभी काम लायक सिपाही उतर आये हैं, और जो ऊपर छूटे उन्हें जापानी जिन्दा नहीं छोड़ेंगे, तभी जहाँ सिपाहियों के उतरने चढ़ने की रस्सी टंगी थी वहां से एक घायल का बंधा शरीर उतरता दिखा.
सिपाही दौड़े, उन्होंने घायल को खोला, उसे अस्पताल भेजा और सोचने लगे जिसने इसे रस्सी से लटकाया वो भी उतरेगा. थोड़ी देर में दूसरा शरीर वैसे ही बंधा उतरता दिखा. घायल सिपाहियों को ऐसे ही रस्सी से बाँध बाँध उतारे जाते देख अचंभित होते सैनिकों को थोड़ी देर में पता चला कि जिसे वो बन्दूक ना उठाने की वजह से कायर मानते थे, वो डॉस अभी ऊपर ही है. जब वो मरने के डर से भाग आये थे, डॉस घायलों की मदद कर रहा था.
बाकी को तो छोड़िये, जिस सर्जेंट हॉवेल ने उसे नाफ़रमानी के जुर्म में निकालने की कोशिश की थी, उसे भी डॉस ही बचा के निकालता है.
अगले दिन डॉस की हिम्मत से प्रेरित अमेरिकी फिर से हमला करते हैं. बिलकुल फिल्मों जैसा ही नाटकीय तरीके से वो जीतते भी हैं. डॉस अगले दिन घायल हो जाता है और उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.
ये फिल्म सत्य घटना पर आधारित है. बाद में डेस्मंड डॉस को अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने पच्छत्तर सिपाहियों को बचा-बचा कर उतारने के लिए मैडल ऑफ़ ऑनर दिया था. मान लें कि एक सिपाही को बचाने में वो दो-ढाई सौ मीटर दौड़ा होगा. तो इस हिसाब से 75 सिपाहियों को बचाने का मतलब डेस्मंड गोलियों की बौछार के बीच कम से कम दो किलोमीटर तो जरूर दौड़ा था. असल जिन्दगी में डेस्मंड डॉस ने लौटकर डोरोथी से ही शादी की थी, उनकी मौत 2006 में हुई.
इसे एडिटिंग जैसी चीज़ों के लिए ऑस्कर भी मिला है, इसलिए काफी कसी हुई फिल्म है. ये फिल्म आस्था की फिल्म है. एक व्यक्ति के अटूट विश्वास के जीतने की कहानी दिखाती है. इस व्यक्ति की आस्था कर्म में थी कर्म के फलों से इसे कोई लेना देना ही नहीं था.
अहिंसा के नतीजे के तौर पर उसे जेल होगी या पिट जायेगा, इस बात से उसे फर्क नहीं पड़ता. जिसने नुकसान करने की कोशिश की हो उसे भी बचाने से बाज़ नहीं आता. जैसा कि भगवद्गीता के चौथे अध्याय के चौदहवें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं :
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा.
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते..4.14..
यहाँ भगवान बताते हैं कि कर्म मुझ पर प्रभाव नहीं डालते ना ही फल में मेरा कोई लालच है. मुझे जो जानता है वह भी कर्मों से नहीं बन्धता है. ना तो 75 सिपाहियों को छोड़कर उतर आने में डॉस का कुछ जा रहा था, ना ही उसे ये पता था कि वो 75 को बचाने का मैडल पायेगा. एक को बचाने की कोशिश में भी मर सकता था. जब दोनों ओर का मोह छोड़ दिया तो वो इनसे ऊपर उठ गया था. यहीं थोड़ा आगे अट्ठारहवें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं :
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः.
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्..4.18..
मतलब जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है, योगी है. अब कई लोगों को ये बात अजीब सी लग सकती है, कि करने में ना करना और कुछ ना करने में करना कैसे होगा?
इसके लिए नायक डॉस के अहिंसा के सिद्धांत पर फिर से विचार कीजिये. क्या अहिंसा करने के लिए कुछ करना पड़ता है? नहीं, अहिंसा करने का मतलब होता है हिंसक कर्मों को ना करना. यानि अकर्म (हिंसा ना करने) से ही कर्म (यानि अहिंसा) हो जाती है. योग के आठ हिस्सों में से पहले, यम में जब अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य जैसे नियमों का पालन करना होता है तो इनमें से कोई भी अलग कर्म नहीं है. सब के सब अकर्म होते हैं.
ज्ञानकर्म संन्यास योग के इसी अध्याय में ग्यारहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं :
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्.
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः..4.11..
यानि जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ. भगवद्गीता में कई जगह ऐसे श्लोक मिल जायेंगे जहाँ कहा जाता है कि जिम्मेदारी भक्त की अकेले की नहीं है, बल्कि जितने प्रयास भक्त कर रहा होता है उसका इक्वल एंड अपोजिट रिएक्शन भगवान पर भी लागू हो जाता है. कह सकते हैं कि ये कोई कपोल-कल्पित सिद्धांतों की नहीं सीधा वैज्ञानिक नियमों की बात होती है जिनसे कोई बाहर नहीं होता. हमेशा की तरह मेरी सलाह है कि खुद ढूंढ कर पढ़िए.
बाकी ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है. पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?