बालक

बैंक में लगने के साथ ही हम में लक्षणीय सुधार आए थे. बाल (जितने थे) कभी बिखरे न होते. बाक़ायदा कंघी रखा करते थे हम ज़ेब में.

कितना भी पसीना आए, दुर्गंधी न आए शरीर से इसका बड़ा ख़याल रखा जाता. नाखून कभी बढ़ने नहीं दिए जाते. हमेशा हवाई चप्पलों में घूमनेवाला मैं, बिना जूतों के कभी न गया बैंक! 1984 से लगीं यह आदतें, मुंबई के वास्तव में बड़ी काम आयीं.

दूसरे दिन ही फर्स्ट क्लास का पास बना लिया मैंने. दूसरे दर्जे की भीड़ रास न आनेवाली थी. कान्जुर मार्ग से भायखला के लिए लोकल पकड़ता. भायखला स्टेशन के दो नंबर प्लेटफार्म पर मेरे डिब्बे के सामने बैठे जूता पॉलिश करनेवाले लड़के से पॉलिश करवाता और फिर ही ब्रांच के लिए निकलता.

पॉलिश करनेवाला एक करीब तेरह-चौदह की उम्र का बच्चा था. मस्त चमका देता जूतों को! एक भी दिन नागा नहीं किया मैंने. ऑफकोर्स छुट्टियों के दिन छोड़कर…

उस दिन लोकल से उतरा तो एक महाशय पहले से खड़े पॉलिश करवा रहे थे इससे. एक हाथ में ब्रीफकेस, आँखों पर चश्मा लगाए और दूसरे हाथ में टाइम्स. एक जूते की पॉलिश होते ही अपने डिब्बे पर रखे ग्राहक के पांव के पास ब्रुश से खड़काकर इशारा किया इसने.

ग्राहक ने दूसरा पांव रख दिया उसके डिब्बे पर. पॉलिश होने के बाद फिर ब्रश टकटकाते ही ज़ेब में से पांच का सिक्का निकाल, फेंक दिया डब्बे पर उस व्यक्ति ने, जिसे लड़के ने चुपचाप उठा लिया! अब मेरी बारी थी. अपना एक पांव उसके सामने करते हुए मैंने कहा;

“मुझे लगा अभी कहोगे तुम, पैसा हाथ में दो साब! वो दीवार फिलिम के माफक!”

“वो फ़िलिम था सर! अपुन इतना शानपत्ती करेंगा न तो बाजू में और भी हैं पॉलिश करनेवाले…”

किशोर की लाचारी पर दया नहीं आई, अलबत्ता उसकी समझदारी का कौतुक हुआ मुझे. उस दिन के बाद कभी किसी और से जूते पॉलिश नहीं करवाए मैंने. इसीसे करवाता हमेशा.

एक शनिवार की शाम, इसी लड़के को फर्स्ट क्लास के अपने ही कूपे में चढ़ते देख आश्चर्य हुआ मुझे. पहले तो पहचान ही न पाया. पूरा हुलिया ही बदला हुआ था इसका. जीन्स, टीशर्ट और स्पोर्ट्स शूज में स्मार्ट लग रहा था. मैंने पूछ लिया;

“अबे, फर्स्ट क्लास है ये… गलती से चढ़ गया क्या? चेकिंग हुई तो खाली फुकट फंस जाएगा!”

“आज थोड़ा जल्दी जारेला है न अपुन, इसके वास्ते वांधा हो गया. अभी प्राइम टाइम में भोत भीड़ होता है लोकल में. फिकर नक्को, इतना गर्दी में कोई नहीं पूछता! सायन में उतरता है अपुन, उधर सब पहचानता है…”

मैं मुलुंड में रहता था. सायन तक ढेर सारी बातें हुयीं इससे. वह धारावी की झोपड़पट्टी में रहता था. रोज सुबह पहली लोकल से अपने ठीये पर भायखला पहुँच जाता. मैंने जल्दी निकलने का कारण पूछ लिया;

“आज जल्दी क्यों निकल रहे हो? धंदा मंदा है क्या?”

“नहीं सर. अपुन का धंदा छे बजे तलक ही होता है. सात बजे स्कूल होता है न अपुन का!”

उत्सुकता जग गई मेरी. बातों-बातों में जो पता चला, यूँ था…

रामनाथ नाम था इसका. भायखला के एन.एम्. जोशी मार्ग स्थित VSM नाईट स्कूल में पढ़ता था वह. रात घर लौटता. बूट-पॉलिश का ही धंधा करनेवाला उसका बाप, पटरी पार करते हुए ट्रेन के नीचे आकर चल बसा था. उसके जाने के बाद इसने वही काम अपना लिया. विधवा माँ, वहीँ धारावी में ही, किसी गृह-उद्योग में मजदूरी करने जाती थी.

“बड़ी अच्छी बात है यार! क्या करोगे पढ़कर? कुछ तो ज़रूर सोचा ही होगा, जब इतना है तो!”

“सर, CA होना मंगता है मेरेको!”

उसका आत्मविश्वास गजब का था. इसके बाद मैं जब भी पॉलिश करवाता, कई बार ज्यादा पैसे दे दिया करता. कभी-कभी वह पैसे ही न लेता. किसी ‘बालक-दिन’ को मैंने उसको एक फाइव-स्टार का चॉकलेट दिया तो पूछ लिया उसने;

“आज चाकलेट? किसीका जनम दिन-बनम दिन था क्या सर?”

“अबे, आज बालक-दिन है, जानता नहीं तू?”

“अच्छा, बोलके!!! पन अपुन किधर बालक है? अपुन थाईच नहीं कभी. कितने सालों से अपने पैर पर खड़ा है साब…”

बड़े ही सामान्य ढंग से कह रहा था वह. किसी प्रकार की कोई शिकायत या कड़वाहट, कतई न थी उसके स्वर में. एक प्रीमोनीशन हुई थी, यह लम्बी रेस का घोड़ा है. दूर तक जाएगा! हालांकि उसकी बात ने पूरा दिन बेचैन किये रखा मुझे! कितने ही ऐसे बच्चे होंगे, किन्तु यह ज़ज्बा शायद एकाध ही में मिले.

यह बात सन 2002 की है. इसके बाद फिर 2014 में एकबार भायखला जाना हुआ. उसी स्थान पर, कोई दूसरा किशोर बैठा था जूता पॉलिश करते हुए. पॉलिश करने की इच्छा हुई और जा खड़ा हुआ उसके सामने. पॉलिश करवाते हुए बात भी कर रहा था उससे मैं…

“जिस जगह तुम बैठे, यहाँ एक रामनाथ नाम का लड़का बैठा करता था. जानते हो? अभी इधर नहीं बैठता क्या वह?”

“वो इधर कायको आयेगा साब? वो अभी बड़ा अकाउंटेंट बन गयेला है…… एक मिनट साब, तुम भंडारी सर है क्या? वो बोलकर रखा अपुन को कि कभी किसीने पूछा तो ये नाम बताके पूछने को…”

मेरे आश्चर्य की सीमा न थी. मैं कुछ बोला तो नहीं, प्रश्न पूछ लिया उससे;

“तुम क्या करते हो? सिर्फ़ जूता पॉलिश ही, या पढ़ते-लिखते भी हो कहीं?”

“साब, इधर काइच एक नाईट स्कूल में पढ़ता है अपुन. दिन में धंधा करता है. धारावी में रहता था. रामू भैया छोडके गए तो अपना डब्बा और यह जगह अपुन को देके गए…”

उसने कहा तो फिर पूछ लिया मैंने;

“क्या करोगे पढ़-लिखकर? कुछ सोचा है?”

वह बोला;
“इसमें सोचने का क्या साब? अपुन भी रामू भैय्या के जैसाइच बड़ा वाला अकाउंटेंट बनना मंगता है!”

उस जूता-पॉलिश के डब्बे में, उस जगह में ही, शायद कोई विशेषता थी जो वहां बैठनेवाले, जूता पॉलिश करनेवाले एक साधारण ग़रीब बच्चे में, यह ज़ज्बा पैदा करने का सामर्थ्य रखती थी!
…मुझे लगा!!!

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