थोड़ा पुराना भारतीय टीवी का शुरूआती दौर याद करें तो रामायण के प्रसारण के समय में सड़कों का खाली होना याद आ जाता है.
इसके साथ ही जो दूसरी बात याद आती है, वो ये कि उसे देखने वाले बच्चे नक़ल किसकी करते थे?
एक भाई के बाथरूम जाते ही दूसरा दरवाजे के बाहर से चिल्लाता, “ओ बाली, हिम्मत है तो बाहर आकर युद्ध कर!”
आश्चर्यजनक रूप से भाइयों को राम-लक्ष्मण, भारत-शत्रुघ्न नहीं बनना होता था, वो लड़ने वाले बाली-सुग्रीव बनते.
महाभारत के काल में भी लोग दोस्तों को आने पर “आओ मित्र दुर्योधन”, कहते सुनाई देते थे.
टीवी-फिल्मों के खलनायक, कई बार नायकों से ज्यादा प्रभाव छोड़ते हैं.
ऐसी ही अपराधियों पर बनी एक फिल्म है ‘सिटी ऑफ़ गॉड’.
अगर सम्बन्ध ढूँढने निकले हों तो बता दें कि ब्राज़ील के नशीली दवाओं और हथियारों की तस्करी वाले सबसे खतरनाक गिरोह को रेड कमांड या रेड कमांडो कहते हैं.
ये 1969 में बना था जब वामपंथियों को नशे वगैरह के तस्करों के साथ जेल में बंद कर दिया गया और वो मिलकर एक हो गए.
भारत में एक गॉड्स ओन कंट्री कहलाने वाला क्षेत्र भी है जो हिंसा और अपराध के लिए जाना जाता है.
सिटी ऑफ़ गॉड भी ऐसी ही हिंसा और अपराध पर, तस्कर गिरोहों के संघर्ष की कहानी है. इसे उसी इलाके के एक पत्रकार बनने की तमन्ना रखने वाले लड़के की नजर से दिखाते हैं.
शुरू के दृश्य में मुर्गी पकाने की तैयारी हो रही होती है और मुर्गी भाग जाती है. हथियारबंद झुण्ड मुर्गी को पकड़ने के लिए उसका पीछा कर रहा होता है जब गली में एक तरफ रॉकेट नाम के लड़के के सामने वो मुर्गी रूकती है.
गली की दूसरी तरफ हथियारबंद गिरोह था और रॉकेट सोचता है वो सब उसे ही मारने हैं. ठिठके, बेबस खड़े रॉकेट के साथ ही कहानी साठ के दशक में फ़्लैश-बैक में चली जाती है.
अब कहानी एक गरीब से शहर के बाहरी इलाके में होती है जहाँ चोरी-लूट करने वाले तीन अपना माल मोहल्ले के लोगों के साथ भी बांटते हैं और बदले में मोहल्ले वाले उन्हें पुलिस से सुरक्षा देते हैं.
इनमें से एक गूज़, रॉकेट का भाई होता है. इन तीनों चोर-लुटेरों को एक लिटिल डाइस नाम का लड़का एक होटल में डाका डालने के लिए उकसाता है.
लिटल डाइस पुलिस पर नजर रखता है और किसी को मारे बिना सिर्फ लूट के इरादे से तीनों, क्लिपर, शेग्गी और गूज़ होटल में घुसते हैं. महत्वाकांक्षी लिटिल डाइस बीच लूट में ही गोली चला देता है, तीनों लुटेरों के भागने पर होटल में भी कुछ लोगों को मार डालता है.
हत्याओं पर हरकत में आई पुलिस से बचने के लिए क्लिपर जाकर चर्च में भर्ती हो जाता है. शेग्गी पुलिस की गोली का शिकार हो जाता है और गूज़ को पैसे के चक्कर में लिटिल डाइस ही मार देता है. शेग्गी का भाई उस वक्त लिटिल डाइस का दोस्त था और उसे गूज़ की हत्या करते देख रहा होता है.
कहानी दस साल आगे बढ़ जाती है जहाँ ये शहर का बाहरी कोना एक विशाल झुग्गी में तब्दील हो चुका होता है. गूज़ का भाई रॉकेट बड़ा हो चुका है और फोटोग्राफी का शौक़ीन होता है.
लिटिल डाइस का अब ड्रग्स का व्यापार था और वो खुद को लिटिल ज़ी बुलाता है, उसका इलाके में सिर्फ एक कैर्रोट नाम का प्रतिद्वंदी होता है.
यहाँ से कहानी रॉकेट के जैसे तैसे अखबार में काम करने की कोशिशों और दूसरी तरफ लिटिल ज़ी और कैर्रोट की वर्चस्व की लड़ाई पर आ जाती है. इसी क्रम में लिटिल ज़ी जिस लड़की से एकतरफा प्यार करता था उसके बॉयफ्रेंड, जो कि नेड था, उसे पीट देता है.
लड़की को भी बलात्कार झेलना पड़ता है. नेड का नाराज भाई लिटिल ज़ी को छुरा मार देता है, बदला लेने के लिए लिटिल जी का विशाल हथियारबंद गिरोह नेड के भाई और चाचा को मार डालता है.
उस समय अकेला पिट गया नेड अब जाकर विरोधी कैर्रोट के गिरोह में शामिल हो जाता है और फिर झुग्गी के दोनों गिरोहों में भीषण मार काट शुरू हो जाती है.
इसी क्रम में एक दिन रॉकेट जो फोटोग्राफ लेता रहता था वो लिटिल ज़ी की फोटो लेता है और रील अपने अख़बार वाले दफ्तर में साफ़ करने छोड़ता है.
इन झुग्गियों में घुस कर तस्वीर लेने से अख़बार वाले डरते थे, ऐसे में जब एक पत्रकार को वो तस्वीरें दिखती हैं तो वो फ़ौरन उसे उठा कर छाप देती है.
अखबार में अपनी फोटो छपने के लिए लिटिल ज़ी जरूर उसे मार डालेगा, यही सोचता रॉकेट वापस आ रहा था जब मुर्गी वाली घटना होती है. फ़्लैशबैक ख़त्म होकर अब कहानी आगे बढ़ती है.
नाराज होने के बदले, लोग अब उसे जानने लगेंगे ये सोचकर अखबार में आने पर खुश होता लिटिल ज़ी और तस्वीरें खिंचवाने तैयार होता है, लेकिन तभी पुलिस आ जाती है. उसी वक्त वहां कैर्रोट और उसका गिरोह भी आ जाता है. गिरोहों की लड़ाई में पड़ने के बदले पुलिस आगे बढ़ जाती है.
नेड से एक डकैती के दौरान एक सिक्यूरिटी गार्ड की हत्या हुई थी, उसका बेटा कई दिन से नेड से बदला लेने के चक्कर में था. वो नेड को गोली मार देता है.
अंत में बचे हुए कैर्रोट और लिटिल ज़ी के बारे में पुलिस कहती है कि कैर्रोट पैसे नहीं देता इसलिए उसे गिरफ्तार किया जाए. पैसे छीनकर लिटिल ज़ी को छोड़ती पुलिस की तस्वीरें रॉकेट खीच लेता है.
लिटिल ज़ी छूटता तो है लेकिन अब तक गिरोहों को बड़ा करने के लिए वो कई बच्चों को भी हथियार बाँट चुका होता है. ऐसे ही आवारा गिरोहों के बच्चे अब पैसे छिनने से गरीब हो गए, खाली हाथ लिटिल ज़ी को गोली मार देते हैं. उनके एक साथी को काफी पहले लिटिल ज़ी ने मरवा दिया था.
रॉकेट लिटिल ज़ी की लाश की भी तस्वीर ले लेता है. फिल्म के आखरी दृश्य में रॉकेट तय कर रहा होता है कि वो कौन सी तस्वीरें छपने दे? पुलिस की पैसे चुराने की तस्वीरें भी थी और लिटिल ज़ी के गिरोह और उसकी लाश की भी. पुलिस वाली से उसे थोड़े समय की प्रसिद्धि मिलती, मगर कई दुश्मन भी, दूसरे से उसे अख़बार में नौकरी मिल जाती.
रॉकेट सोच विचार के बाद लिटिल ज़ी की तस्वीर से नौकरी पाने का चुनाव करता है. दूसरी तरफ जो आवारा बच्चों का गिरोह अब लिटिल ज़ी के दिए हथियारों से लैस था, वो अपने दुश्मनों की लिस्ट बना रहा होता है.
ड्रग्स के बिज़नस पर कब्ज़ा करने के लिए जिन्हें मारना जरूरी था उन सब की लिस्ट में वो बच्चे रेड ब्रिगेड का नाम भी डालते हैं.
कहानी की शुरुआत में जिस रेड कमांड या रेड कमांडो नाम के वामपंथी-तस्कर गिरोह की बात की थी, उसे ब्राज़ील में रेड ब्रिगेड बुलाते हैं.
पूरी फिल्म में आप भगवद्गीता का “यदा यदा ही धर्मस्य” वाला श्लोक देख सकते हैं. जब भी एक हथियार उठाता है तो वो कुछ ना कुछ सही करने के इरादे के साथ शुरू करता है.
थोड़े ही समय में वो खुद वैसा ही हो जाता है, जैसे लोगों से लड़ने निकला था. फिर जब क्षय शुरू होता है तो सुधार की जिम्मेदारी किसी और पर खिसक कर चली जाती है और वो काम शुरू करता है.
तीन छोटे अपराधियों से लिटिल जी, लिटिल ज़ी से नेड, नेड से बच्चों के गिरोह की तरफ हर बार स्तर बढ़ता भी जाता है. भगवद्गीता के चौथे अध्याय ज्ञानकर्म संन्यास योग से दो श्लोक साथ ही पढ़े जाते हैं :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्..4.7..
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्.
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे..4.8..
इनका अर्थ भी इतनी बार सुना सुनाया गया है कि सबको पता होता है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ. साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म संस्थापना के लिये मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ.
इसे पढ़ते समय एक थोड़ी दूर का, राजविद्याराजगुह्य योग नाम के नौवें अध्याय का बाइसवां श्लोक भी याद रखा जाता है :
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते.
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्..9.22..
इसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि मेरे भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ. इसमें योग के साथ क्षेम आता है. आपने पूरे श्लोक के बिना भी “योगक्षेमं वहाम्यहम्” वाला हिस्सा पढ़ा होगा.
शाब्दिक अर्थ में “योग” का मतलब जोड़ना, इकठ्ठा करते जाना भी होता है. लेकिन फिल्म के किरदारों की ही तरह शुरू तो अच्छा-बुरा किया मगर उसे इकठ्ठा नहीं रख पाए, वो खो जाए, चोरी हो जाए तो क्या?
पैसे भी कमाने के बाद बटुवे में, तिजोरियों में, बैंक में, सहेजे जाते हैं. आपके योग की उपलब्धियां सुरक्षित हैं? जो आपने जोड़ा उसे सुरक्षित रखने का नाम “क्षेम” होता है.
फिल्म के लिटिल ज़ी की तरह, जो गिरोह-पैसे जोड़ लेता है लेकिन उन्हें अपने पास सुरक्षित नहीं रख पाता, वो “क्षेम” में चूक जाता है.
यही वजह है कि योग के साथ जब पूरे अर्थ में कहा जाए तो क्षेम भी जोड़ा जाता है. जमीन पर ही खड़ा व्यक्ति गिरे तो उसकी तुलना में पांच सीढ़ियाँ चढ़कर फिर गिरे व्यक्ति को ज्यादा चोट आएगी, ज्यादा नुकसान होगा.
अगर क्षेम का ध्यान भगवान खुद नहीं रख रहे तो शायद आप सही मार्ग पर नहीं हैं, हो सकता है कि गलत चीज़ें इकठ्ठा करने में जुटे होंगे.
फिल्म के किरदार रॉकेट के भाई को लिटिल ज़ी ने ही मारा था. उसके पास इस पूरे दंगल में शामिल हो जाने का विकल्प हमेश खुला था. लेकिन भगवद्गीता के संजय की ही तरह वो युद्ध में शामिल नहीं हो रहा, वो साक्षी भाव से सिर्फ देख रहा होता है.
कई बार कहानियों के किरदार में लोग खुद घुस जाते हैं, जैसा शुरू में बाली-सुग्रीव या “आओ मित्र दुर्योधन” वाले मामलों में बताया, लोग आम तौर पर अच्छे नहीं, बुरे किरदार भी चुन लेते हैं.
भगवद्गीता में खुद ढूँढने पर शरीर में रहते हुए भी कर्मों में शामिल होने के बदले उनको साक्षी भाव से देखने पर भी काफी कुछ है, उसे खुद ढूंढिए. बाकी ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है. पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?