गुजरना तो है ही, मगर कैसे, ये तो बाबा दीप सिंह सिखा ही गए

अगर आप अमृतसर और स्वर्ण मंदिर, अकाल तख़्त जैसी जगहों तक कभी गए हों, तो हो सकता है आपने एक दोधारी तलवार भी देखी होगी.

लम्बी चौड़ी सी इस दोधारी तलवार पर ध्यान इसलिए जाता है क्योंकि ऐसा “खांडा” अंग्रेजी फिल्म “ब्रेवहार्ट” के पोस्टर और फिल्म में हीरो के पास दिखाते हैं.

ये बाबा दीप सिंह की दोधारी तलवार बरसों से सहेजी हुई है. वो तीन सौ साल पुराने युग के योद्धा संत थे.

पता नहीं पंजाब की इतिहास की किताबों में भी उनकी कहानी है या नहीं, बाकी जगहों पर तो नहीं होती.

अमृतसर जिले में ही पिता भगत और माता जियोनी के पुत्र दीप सिंह का जन्म 1682 में हुआ था.

गुरु गोबिंद सिंह के पास वैसाखी के दिन 1699 में वो खालसा दीक्षित हुए. उन्होंने अमृत संचार, या खांडे दी पहुल ली.

किशोरावस्था में वो गुरु गोबिंद सिंह के आस पास ही रहे, भाई मणि सिंह से गुरुमुखी लिखना-पढ़ना सीखा, वहीँ हथियार चलाना भी सीखा.

कुछ समय के लिए वो गाँव वापस गए, 1702-05 के बीच वहां रहे. बाद में फिर गुरु के बुलावे पर वापस लौटे और गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रतियाँ बनाते रहे.

बाबा दीप सिंह 1709 में सधौरा और छप्पर चिरी की जंगों में बंदा बहादुर के साथ थे. 1748 आते आते नवाब कपूर सिंह उन्हें जत्थे का सरदार घोषित कर चुके थे.

अगले साल जब अमृतसर में 65 जत्थों का शरबत खालसा (एक बैठक) था तो जत्थों को बारह मिसल में बांटा गया. उन्हें शहीद मिसल की कमान दी गई थी.

ये वो दौर था जब इस्लामिक हमलावर लूटने आते तो कई लोगों को गुलाम बनाकर अपने साथ ले जाते.

सिक्ख सेनानी अक्सर औरतों-बच्चों को जबरन यौन गुलाम और मुसलमान बनाए जाने से बचा लाते थे.

ऐसे ही एक बार जब अहमद शाह दुर्रानी की फौजें चौथी बार उत्तरी भारत पर अप्रैल 1757 में हमला कर रही थी तो कुरुक्षेत्र के पास मौजूद बाबा दीप सिंह को खबर हो गई.

वापसी में काबुल लौटती फौजों को घेर कर सिक्खों ने काटा और काफी सारा लूट का माल और पकड़े गए लोगों को छुड़ा लाये.

लाहौर आने पर क्रुद्ध दुर्रानी ने हरमंदिर साहब को नेस्तनाबूद करने का हुक्म दिया. दस हजार से ऊपर सैनिकों के साथ सेनापति जहान खान को लिए उसके बेटे तैमूर शाह ने पंजाब की कमान संभाली.

हरमंदिर साहब पर इस्लामिक फौजों ने कब्ज़ा जमा लिया और कटी गायों के बचे खुचे हिस्से से पवित्र कुंड को भर दिया गया. बाबा दीप सिंह तब तक ज्यादा वक्त ध्यान-जप में ही बिताने लगे थे.

वृद्ध (75 वर्षीय) बाबा दीप सिंह तक जब ये खबर पहुंची तो वो संन्यास से उठकर फिर से हरमंदिर साहब को बनवाने खड़े हुए. आस पास के पांच सौ सिक्ख उनके साथ आ गए.

जब तक वो लोग गांवों से होते तरन तारण साहिब पहुँचते, और सिक्ख उनके साथ जुड़ते गए. करीब दस हजार इस्लामिक सैनिकों के सामने ग्यारह नवम्बर 1757 को उनसे आधे ही सिख थे.

युद्ध के दौरान शत्रु के वार से बाबा दीप सिंह का सर करीब करीब कट गया. कहते हैं उन्हें गिरते देख किसी सिख ने कहा “आपने तो हरमंदिर के कुण्ड तक पहुँच कर रुकने की बात कही थी”!

करीब पंद्रह किलो का खांडा दाहिने हाथ में और अपना सर बाएं हाथ में लिए बाबा दीप सिंह फिर आगे बढ़े. इस्लामिक हमलावरों को खदेड़ कर हरमंदिर साहब मुक्त करवा लिया गया.

स्वर्ण मंदिर के अन्दर जहाँ बाबा दीप सिंह आखिर रुके वो जगह आज भी चिह्नित है. उनका दोधारी खांडा भी सहेजा हुआ है.

उधर से गुजरें तो देख लीजियेगा, कुछ कर गुजरने के लिए पच्छत्तर साल की उम्र आड़े नहीं आती.

गुजरना तो है ही, मगर कैसे तीन सौ साल में भी कारनामे गुजरने नहीं देते ये तो बाबा दीप सिंह सिखा ही गए हैं.

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