मेरे एक मित्र हैं. बैठे थे एक दिन गंगा के किनारे मेरे साथ. अचानक बहुत उत्साह में आ गए.
मैंने पूछा, क्या हुआ? उन्होंने इशारा किया, दूर घाट पर एक सुंदर स्त्री की पीठ.
बोले कि मैं अब न बैठ सकूंगा. बड़ा अनुपात है शरीर में. और बाल देखते हैं! और झुकाव देखते हैं! मैं जरा जाकर, शक्ल देख आऊं.
मैंने कहा, जाओ. वे गए. मैं उन्हें देखता रहा.
बड़े आनंदित जा रहे थे. उनके पैर में नृत्य था. कोई खींचे जा रहा है जैसे चुंबक की तरह.
और जब वे इस स्त्री के पास पहुंचे, तो भक्क से जैसे ज्योति चली गई. वे एक साधु महाराज थे, वे स्नान कर रहे थे.
लौट आए, बड़े हताश. सब सुख लुट गया. माथे पर हाथ रखकर बैठ गए.
मैंने कहा, क्या मामला है? कहने लगे, अगर यहीं बैठा रहता तो ही अच्छा था. साधु महाराज हैं. वह बाल से धोखा हुआ. वहां स्त्री थी ही नहीं.
लेकिन उतनी देर उन्होंने स्त्री का सुख लिया था, जो वहां नहीं थी. वह सुख उनके अपने भीतर था.
और अगर वहीं बैठे—बैठे चले जाते, तो शायद कविताएं लिखते. क्या करते, क्या न करते.
शायद जिंदगी भर याद रखते वह अनुपात शरीर का, वह झुकाव, वे गोल बांहें, वे बाल, वह गोरा शरीर, वह जिंदगी भर उन्हें सताता.
संयोग से बच गए. देख लिया. छुटकारा हुआ. लेकिन दोनों भाव भीतर थे.
साधु महाराज को कुछ पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है उनके आस—पास.
वे दोनों भाव इन मित्र के अपने ही भीतर उठे थे.
सांख्य की धारणा है, वही कृष्ण कह रहे हैं, कि तुम जो भी भोग रहे हो, वह तुम्हारे भीतर उठ रहा है.
बाहर प्रकृति निष्पक्ष है. उसे तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है. तुम चाहे सुख पाओ, तुम चाहे दुख पाओ, तुम ही जिम्मेवार हो.
और अगर यह बात खयाल में आ जाए कि मैं ही जिम्मेवार हूं, तो मुक्त होना कठिन नहीं है. तो फिर ठीक है, जब मैं ही जिम्मेवार हूं.
और प्रकृति न तो सुख पैदा करती है और न दुख, मैं ही आरोपित करता हूं. सुख और दुख मेरा आरोपण है प्रकृति के ऊपर; सुख और दुख मेरे सपने हैं, जिन्हें मैं फैलाता हूं, और फैलाकर फिर भोगता हूं.
अपने ही हाथ से फैलाता हूं और खुद ही फंसता हूं और भोगता हूं. अगर यह बात खयाल में आनी शुरू हो जाए, तो बड़ी अदभुत क्रांति घट सकती है.
जब आपके भीतर सुख का भाव उठने लगे, तब जरा चौंक कर खड़े हो जाना और देखना कि प्रकृति कुछ भी नहीं कर रही है, मैं ही कुछ भाव पैदा कर रहा हूं.
आपके चौंकते ही भाव गिर जाएगा. आपके होश में आते ही भाव गिर जाएगा. प्रकृति वहां रह जाएगी, सुख—दुःख रहित, पुरुष भीतर रह जाएगा, सुख—दुःख रहित.
ओशो – गीता दर्शन, भाग 6, प्रवचन 157