पद्मावती विवादित क्यों?

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समस्या क्या है, कहाँ है, इस पर ही भारी कन्फ़्यूज़न बनाया जा रहा है.

फिल्मों में कथानक महत्व का होता है और नॉर्मल टाइप की फिल्मों में उसका रहस्य बनाए रखा जाता है.

उसी के लिए ही तो फिल्म देखने लोग जाते हैं. वाजिब बात है. लेकिन इतिहास संबन्धित फिल्मों में बात अलग हो जाती है.

वे फिल्में अक्सर spectacular होती हैं या फिर उस कालखंड का फिल्मांकन. वहाँ कोई कथानक का रहस्य क्यों हो ?

लेकिन हम अगर आजकल बनती इस टाइप की फिल्मों को देख रहे हैं तो improvisation और जरा सा धंधे के दृष्टि से आकर्षक बनाने के नाम पर कुछ अधिक ही छूट ली जा रही है.

जैसे जोधा अकबर कितनी ऐतिहासिक थी? बाजीराव मस्तानी भी कितनी ऐतिहासिक थी? बाजीराव को प्रेमवीर दिखाने का औचित्य क्या था?

कहाँ तक उनके द्वारा निर्मित इतिहास पर उनके मस्तानी के साथ प्रेम का असर पड़ा? लेकिन यहाँ एक गहरे मनोव्यापार को समझने की आवश्यकता है.

फिल्में प्रचार का भी एक बहुत ताकतवर माध्यम हैं और सफलता से इनका प्रयोग हो रहा है.

‘पद्मावती’ विवाद के शुरुआती दिनों में ही मैंने इस मनोव्यापार को लेकर एक पोस्ट लिखी थी जिसको पढ़ने से बात साफ हो जाएगी. लेख के अंत में उसकी लिंक दे रहा हूँ.

यहाँ फिल्म की कहानी ही मायने रखती है. ऐसी फिल्में देखी क्यों जाती है, तो इसलिए कि वे इतिहास जीने का आभासी अनुभव देती हैं, खरोंच भी आए बिना.

जेब लहूलुहान होती है वो ठीक है, उतना तो निर्माता का हक़ बनता है. और यही कारण है कि ऐसी फिल्में इतिहास से इतर ना भटके इसका ध्यान रखना पड़ता है.

क्योंकि देखने वालों के दिमागों में फिल्म ज्यादा रहती है और उनमें से अधिकतर लोगों के लिए वह फिल्म ही इतिहास बन जाती है.

टीवी सीरियल रामायण के राम अरुण गोविल को लोग दंडवत प्रणाम करते थे, यह किस्से आप ने पढे तो होंगे ही.

अनारकली ने अकबर को ‘प्यार किया तो डरना क्या’ सुनाया ही होगा ऐसा मानने वाले लोग निकलें तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा.

लोग इतिहास पढ़ना नहीं चाहते क्योंकि इतिहास का अध्ययन हर किसी के बस की बात नहीं होता. लेकिन इतिहास को हम भूलना भी नहीं चाहते.

इसीलिए वही इतिहास उपन्यास, कथा – काव्य, नाटक और आज फिल्म – सीरियल के माध्यम से अधिक स्वीकार्य होता है और वही इतिहास स्मृति में भी रहता है.

एक बहुत छोटा सा उदाहरण देता हूँ : रश्मि रथी की कई पंक्तियाँ कई लोगों को कंठस्थ होंगी. क्या उन्होने वे ही प्रसंग महाभारत में ढूंढकर tally किए हैं कभी? अनुवाद से, या मूल संस्कृत से?

लेकिन उनके मन में कौन सा प्रसंग छप गया है? कर्ण की व्यक्तिरेखा को लेकर अगर ये डिबेट करेंगे तो उनके संदर्भ संस्कृत श्लोक होंगे या रश्मिरथी की पंक्तियाँ?

आप समझ ही गए होंगे कि किस तरह से ऐसे बदलाव लाये जाते हैं. तब अगर इतिहास को भी बहुत महीन तरीके से बदल दिया तो संस्कृति बदलने में आसानी हो जाती है.

Politics is the downstream of culture, इस वाक्य में जो सत्य है उसकी ताकत कब समझेंगे हम? बाकी रहे भंसाली के “प्रॉडक्शन वैल्यूज़” तो उसमें कभी कोई शंका नहीं रही. लेकिन क्या केवल भव्य सिनेमा बनें इसलिए उसे इतिहास से छेड़छाड़ करने दी जाये?

यहाँ मैं इस पोस्ट का शुरुआती वाक्य दोहरा रहा हूँ – समस्या क्या है, कहाँ है, इस पर ही भारी कन्फ़्यूज़न बनाया जा रहा है.

‘पद्मावती’ के साथ असली समस्या उसकी स्क्रिप्ट की है. कोई इसकी बात नहीं कर रहा. बस भंसाली स्क्रिप्ट क्लियर करा लें, बात वहीं खत्म हो जाती है.

नाम ‘पद्मावती’ होना चाहिए या नहीं, यह भी क्लियर हो जाएगा. जब नाम पद्मिनी है तो पद्मावती कहने की ज़िद क्यों है, यह भी मुद्दा सामने आयेगा. और यहाँ कोई स्क्रिप्ट के रहस्य की बात आ ही नहीं सकती क्योंकि यह बात इतिहास की हो रही है, कमर्शियल सिनेमा के कथानक की नहीं.

आज नहीं, लेकिन कुछ ही समय में कॉलेज में जब परिचर्चाएँ होंगी तो कई मुद्दे इन फिल्मों के संदर्भ से आएंगे. उन मुद्दों को आधार मानकर नयी कहानियाँ लिखी जाएगी और इतिहास उतना और दूषित हो जाएगा, नयी पीढ़ी का नजरिया और कलुषित किया जाएगा.

अपने पूर्वजों पर गर्व करने के बजाय यह शर्म का खेल और यशस्वी बनेगा, यह इस फिल्म की वकालत करते लोग समझ नहीं रहे हैं या फिर उनके इरादे ही कुछ और हैं, यह कहना मुश्किल है.

लेकिन उनके बदलते विधानों से यह समझ में आ रहा है कि वे फिल्म के लिए सेल्समैन का काम कर रहे हैं, किसी भी तरह से लोगों का मन परिवर्तन कर के फिल्म के लिए अनुकूल मन बनाना, यही इनका मिशन है, इतिहास कोई मायने नहीं रखता.

नहीं तो एक बार ये कहें कि फिल्म को रिलीज होने दीजिये, नहीं तो कोई हिन्दू योद्धाओं पर भव्य फिल्में नहीं बनाएगा – कैसा विधान है यह?

महारानी के नृत्य को लेकर बात को भटकाना क्या है – क्या किसी नृत्य दृश्य पर आक्षेप था कभी या पूरे कथानक पर था? या फिर हम भी कहीं कठमुल्ले नहीं हुए जा रहे – इतिहास को ले कर अडिग रहना कठमुल्लापन कब से होने लगा? समस्या स्क्रिप्ट की है, छोटे छोटे प्रसंगों की नहीं.

जब अलाउद्दीन खिलजी और चित्तौड़ का नाम आता है तो महारानी पद्मिनी का नाम आता है. तो फिर पद्मावती क्यों? यह शंका है. और फिर आगे फिल्म मे क्या दिखाया है?

क्योंकि यह अगले पीढ़ी के मानों में रचाए जाने वाले भारत के इतिहास की नींव की बात हो रही है. लेकिन यह बात ये वकालत करने वाले नहीं रख रहे हैं. हमेशा नए नए मुद्दे ले कर नयी कहानियाँ गढ़ते रहते हैं. सीधी बात का सीधा जवाब नहीं दे रहे.

और यह tactic – सीधी बात का सीधा जवाब न देना – कहाँ देखते हैं हम ?

कल ये लोग कहाँ बैठे मिलेंगे यह कह नहीं सकते. जहाज़ डूबता है तो सब से पहले चूहे भाग निकलते हैं.

हाँ, मनोव्यापार वाले लेख की लिंक देना रह गया था, यह रही – http://tinyurl.com/jtlj29x अवश्य पढ़िएगा.

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