‘बोली और गोली दोनों साथ-साथ नहीं चलेंगे’ : ये सब बातें थीं, बातों का क्या?

कश्मीर अगर कोई समस्या नहीं है तो फिर वार्ताएं क्यों?

यानी सरकार मानकर चल रही है कि कश्मीर की समस्या सुलझी नहीं है और बातचीत अनिवार्य है.

पहले भी यही होता रहा था और अब भी यही हो रहा है और सम्भवतः आगे भी यही होता रहेगा.

परिणाम? परिणाम कुछ नहीं. यथास्थितिवाद से सभी खुश हैं: सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों.

‘बोली और गोली दोनों साथ-साथ नहीं चलेंगे’ सम्भवतः ये सब बातें थीं, बातों का क्या?

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि वर्तमान सरकार ने चुनावी वायदों के दौरान कश्मीरी-पंडित-समुदाय को ससम्मान घाटी में पुनः बसाने की जो पुरज़ोर वकालत की थी.

उन पर हुए ज़ुल्म और अनाचार को मद्देनजर रखकर जनभावनाओं को जिस तरह से अपने हक में वोटों में तब्दील किया था आदि, उन सारी बातों को शायद वह अब भूल गयी.

शांतिप्रिय पंडित-समुदाय की सुध लेना तो दूर, उनके सुख-दुःख पर बात करना भी अब वर्तमान सरकार ज़रूरी नहीं समझती.

अगर बात करना ज़रूरी समझती भी है तो जो घाटी में ‘अशांति’ का माहौल बनाये हुए हैं, जो ‘आजादी’ चाहते हैं, जिनकी ‘नुईसंस वैल्यू’ है आदि, उनसे शान्ति-वार्ता जारी करने की बात को वह ज्यादा ज़रूरी समझती है.

सुना है पहले भी जो वार्ताकार-मंडलियाँ बातचीत के लिए कश्मीर गयीं, उनकी प्राथमिकताएँ जिहादियों, अलगाववादियों, आतंकियों आदि से ही संवाद करने की रही है, पंडित-समुदाय उनके लिए हमेशा हाशिया पर ही रहा.

काश, इस पढ़ी-लिखी कौम: अभिनवगुप्त, आनंदवर्धन, कल्हण, मम्मटाचार्य आदि की संतानों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता!

सच है ‘दुर्जन की वंदना पहले और सज्ज्न की तदनंतर!’

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