आमतौर पर बॉलीवुड में सच दिखा देने जितना दम नहीं होता, वो झूठ को महिमामंडित करते हैं. इस वजह से हम आम तौर पर विदेशी फ़िल्में देखने की सलाह देते हैं.
हाँ, ऐसी सलाह देते समय जब “ये हिंदी में मिलेगी क्या?” का सवाल पूछा तब हम जरूर हिंदी फिल्म का “आपसे ना हो पायेगा” जैसा जवाब देते हैं.
राजनैतिक रूप से सही तरफ रहने के लिए, युवाओं-बच्चों की फिल्म में ज्यादा आर्थिक फायदा ना होने की संभावना के कारण, और कुछ नया सोचने की क्षमता की कमी या आलस्य जैसी वजहों से कई किस्म की फ़िल्में हिंदी में बनी ही नहीं. “The Great Debaters” फिल्म का विषय भी वैसी ही कहानियों में से एक है.
इंसान जीत में ही प्रेरणा ढूंढता है इसलिए आम फिल्मों जैसा ही इसमें एक सड़े-मरे से कॉलेज से निकली डिबेट की टीम भी जीतती है. जैसा कई खेलों पर आधारित फिल्मों में होता है, वैसे ही कई बाधाओं से ये डिबेटर्स जूझते हुए, और निखर कर सामने आते हैं.
फिल्म की कहानी टेक्सास के एक कॉलेज में 1930 में शुरू होती है जब इसाई लोग काले-गोरे का भेद कानूनी तौर पर लागू करते थे. ये जिम क्रो कानूनों का दौर था और फिल्म के शुरुआत में ही एक लड़की को बस स्टॉप पर ढेर सा सामान लिखे खड़ा दिखाते हैं क्योंकि सफ़ेद बेंच सिर्फ गोरे ईसाईयों के लिए थी.
जिस जगह की कहानी है वहां एक अंग्रेजी प्रोफेसर मेल्विन टोल्सन आते हैं जो कि बड़ी कड़ी प्रतिस्पर्धा में से चार लोगों को डिबेट टीम के लिए चुनते हैं. स्थानीय प्रशासन प्रोफेसर टोल्सन को एक खतरनाक कम्युनिस्ट मानता था और उनके ऊपर कड़ी नजर रखता है.
वो अपने छात्रों से अपना राजनैतिक रुझान छुपाये रखते हैं. डिबेट क्या होती है, तर्कशास्त्र ना पढ़ने-पढ़ाये जाने के कारण ज्यादातर भारतीय भूल गए हैं. उनके लिए फिल्म का शुरूआती हिस्सा रोचक होगा. ध्यान से देखने, डायलॉग पर गौर करने से काफी कुछ सीखा जा सकता है. जिन चार छात्रों को प्रोफेसर टोल्सन चुनते हैं, उनमें क्या ख़ास है वो भी देखा जा सकता है.
ये सत्य घटना पर आधारित फिल्म है, और जिस प्रोफेसर टोल्सन को दिखा रहे होते हैं वो अमेरिका के जाने माने कवि भी थे. फिल्म में उनके कवि होने को नहीं दिखाते, ध्यान सिर्फ शास्त्रार्थ या कहिये डिबेट पर रखा गया है.
चुने गए चार लोगों में से एक हेनरी शराब पी कर इधर उधर बदमाशियां करता था, लेकिन काफी तेज तर्रार था. हैमिलटन नाम का दूसरा लड़का पहले से ही अच्छा वक्ता था. तीसरा एक चौदह साल का जेम्स फार्मर जूनियर था, जिसके पिताजी कई भाषाएँ जानने के लिए जाने जाते थे.
उस समय की जो दो ही अश्वेत महिलाएं वकालत के पेशे में थीं, उनमें से एक उसकी बुआ थी. कहने का मतलब खानदानी टाइप सुशिक्षितों के परिवार में पढ़ने-अच्छा करने का दबाव झेलता रहता था. चौथी एक लड़की समांथा थी, जो उस दौर के डिबेट टीम में इकलौती लड़की होती.
कई बाधाओं से जूझते फिल्म के कलाकारों को सिर्फ डिबेट की तैयारी करते नहीं दिखाते. उस दौर के अश्वेत लोगों को कैसे कानूनों और दमन का सामना करना पड़ता था वो भी इसमें दिखाते हैं.
किसी बहाने से पैसे छीन लेना, आर्थिक-शारीरिक शोषण, दमनकारी कानून, और मज़ाक उड़ाया जाना बड़ी आम घटनाएँ थी. ये दौर कुछ वैसा ही था जैसे आज का भारत, जहाँ ब्राह्मण होने पर ब्राह्मणवाद के नाम पर आपकी बेइज्जती की जा सकती है, किन्हीं अज्ञात पूर्वजों के किये का बेबुनियाद इल्जाम आप पर लगाया जा सकता है.
कानूनी तौर पर आप पर जातिवादी होने का आरोप लगा कर आपको बिना सबूत जेल में भी पटका जा सकता है. आरक्षण के नाम पर शिक्षा और रोजगार से वंचित भी कर सकते हैं.
फिल्म में ये टीम बाधाओं से लड़ती हुई उस समय के डिबेट चैंपियन से मुकाबले में पहुँचती है. फिल्म में नाम जाना पहचाना हो इसलिए हॉवर्ड नाम रखा गया है. असल में उस समय यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथर्न कैलिफ़ोर्निया से इस टीम का मुकाबला हुआ था.
वो जीते भी थे लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के काल तक अश्वेत लोगों को डिबेट क्लब का हिस्सा ही नहीं माना जाता था, इसलिए वो कई साल बाद ही खुद को, आधिकारिक रूप से, विजेता कह पाने का हक़ ले पाए थे.
अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी हो तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. ऍगस्टीन ऑफ़ हिप्पो का एक प्रसिद्ध वाक्य भी फिल्म में कई बार दोहराया गया है, “एन अनजस्ट लॉ इज नो लॉ एट आल”, मतलब जो इन्साफ ना देता हो उसे कानून भी नहीं कहा जा सकता.
जब आप ये फिल्म देखें तो भगवद्गीता के पांचवे अध्याय का अट्ठारहवां श्लोक याद रखें :
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि.
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः..5.18..
यानि जो पंडित होते हैं वो विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और कुत्ते को खाने वाले को भी एक नजर से देखते हैं. रंग-रूप, पहनावा तो छोड़िये, इस श्लोक के हिसाब से तो मांसाहारी-शाकाहारी का भेदभाव भी नहीं चलेगा!
इसको पढ़ते समय शायद आपका ध्यान इस बात पर भी जाए कि एक बार ब्राह्मण और एक बार पंडित शब्द का, स्पष्ट रूप से अलग-अलग इस्तेमाल है. ये जन्म आधारित किसी भेदभाव की बात नहीं, एक रूपता की बात कर रहा है.
करीब करीब इसी अर्थ में भगवद्गीता के छठे अध्याय में उन्तीसवां और तीसवां श्लोक भी आता है :
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि.
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः..6.29..
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति.
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति..6.30..
उन्तीसवां श्लोक कहता है कि योगयुक्त अन्तकरण वाला योगी सर्वत्र समदर्शी होगा और वो आत्मा को सब में देखता है. तीसवें का मतलब कि जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं, या मेरे लिए वो कभी समाप्त नहीं होते. किसी लकीर जैसा एक बिंदु से शुरू होकर दूसरे बिंदु पर ख़त्म होने वाली बात नहीं, समता, सबको समेटती आगे बढ़ती ही जायेगी.
इसी क्रम में आगे भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय में पैंतालिसवां और छियालिसवां श्लोक भी देखिये :
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः.
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु..18.45..
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्.
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः..18.46..
जैसे फिल्म के चरित्र या असली जीवन में प्रोफेसर टोल्सन और उनके शिष्य कोई अनोखा काम, कोई “किरांती” लाने नहीं निकल पड़े थे, अपना ही एक बस डिबेट का काम करते रहे, वैसे ही भगवद्गीता कहती है, अपने-अपने कर्म में तत्परतापूर्वक लगा हुआ मनुष्य सिद्धि(परमात्मा) को पा लेता है. जिस परमात्मा से सब व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजकर मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है.
फिर से यहाँ शब्दों पर ध्यान दीजिये, 46वें श्लोक का अंतिम शब्द “मानवः” है, किसी जाति-धर्म की तो बात ही नहीं हो सकती क्योंकि गीता के समय कोई जाति-धर्म थे ही नहीं. पुरुष और स्त्री का जो भेद हो सकता था, वो भी नहीं किया गया है.
बाकी हमेशा की तरह फिर दोहरा दें कि खुद पढ़िए और ढून्ढ के देखिये, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है. पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?