भानुमति – 11

नए राजा वृकोदर ने अपनी पहली ही राजाज्ञा द्वारा नरमांस-भक्षण निषेध कर दिया था. दोषी राक्षसों के लिए प्राणदण्ड का प्रावधान था.

परंतु दण्ड कितना भी कठिन हो, अपराधी अपराध करना कहाँ छोड़ते हैं. जिह्वा के दास कुछ राक्षस प्रायः ही मुख्य बस्ती से दूर जाकर अपनी जठराग्नि शांत करते.

जब हिडिम्ब राजा था तो वे शिकार करने निकटवर्ती राज्यों में निकल जाते. युद्ध और विज्ञान में प्रवीण आर्यों की बस्तियों में वे अधिक सफल नहीं होते पर आर्यों की तुलना में कम विकसित नागों की बस्तियां उनका आसान शिकार होती. पहले जो शिकार वैध था अब राजा वृकोदर के सत्ता संभालने पर अवैध हो गया था.

ऐसे ही किसी अभियान में जब राक्षस नागों की किसी बस्ती से वापस लौट रहे थे, उनके साथ का एक दस वर्षीय बालक किसी गड्ढे में गिरकर घायल हो गया. उसे मरा हुआ समझ उसके साथियों ने उसे वही छोड़ दिया.

वह बालक मृत्यु की प्रतीक्षा करता वहीं पड़ा रहा कि उस पर भगवान विरोचन की कृपा हुई, पांडवों की खोज में निकले उद्धव ने उसे देख लिया. मानव मात्र के लिए प्रेम से भरे उद्धव के लिए उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना सम्भव नहीं था. उन्होंने उसे गढ्ढे से निकाला और अपने अथर्ववेद के ज्ञान से उसे कुछ ही दिनों में ठीक कर दिया.

जहाँ प्रेम हो वहां भाषा की कठिनाई नहीं आती, बालक और उद्धव संकेतों में बात करते. एक दिन बालक कुम्भ के मुंह से अस्पष्ट सा शब्द ‘भीम’ निकला. उद्धव के कानों को यह शब्द अमृत जैसा लगा.

उन्होंने कुम्भ से संकेतों में ही ढेरों प्रश्न किये. उन्हें समझ आया कि एक विशाल व्यक्ति अपने कुछ साथियों के साथ कुम्भ की बस्ती में रहता है. उत्साह से भरे उद्धव बालक कुम्भ के साथ उसकी बस्ती की ओर चल पड़े.

एक दोपहर उन्हें वन में हलचल सुनाई दी. राक्षसों का झुंड उनकी ओर बढ़ रहा था. कुम्भ तत्काल ही एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ा और नीचे उतर कर उद्धव को उनकी विपरीत दिशा में खींचने लगा.

उद्धव को समझ नहीं आया कि अपने सजातीय राक्षसों की ओर जाने की अपेक्षा कुम्भ उन्हें दूर क्यों ले जाना चाहता है. वे अभी इसी उहापोह में थे कि वन शांत हो गया, जैसे उन्हें मानव गंध मिल गई हो.

अस्पष्ट ध्वनियों से यह निश्चित हो गया कि उन्हें एक लंबे वृत्त में घेरा जा रहा है. कुम्भ ने यकायक ही उनसे अपना हाथ छुड़ाकर उन्हें वृक्ष पर चढ़ जाने का संकेत किया और स्वयं तीर की तेजी से झाड़ियों की ओर दौड़कर विलुप्त हो गया.

ध्वनियां पास आती गई. उद्धव ने अपने अस्त्र-शस्त्र देखे, केवल एक धनुष, कुछ बाण और एक कटार शेष रह गई थी. वन के उबड़-खाबड़ पथरीले मार्गों पर खड्ग, गदा या भरा हुआ तुरिण लेकर चलना अव्यवहारिक सोचकर उन्होंने पहले ही उनका त्याग कर दिया था. इनके बल पर भिड़ना वीरता नहीं मूर्खता होगी, यह विचार कर वे पेड़ पर चढ़ गए.

धीरे-धीरे वे राक्षस आये और उद्धव को पेड़ पर चढ़ा देख शोर करने लगे. उनकी आवाज इतनी भयंकर थी कि कोई सामान्य व्यक्ति हृदयाघात से वहीं मर जाता. उद्धव बहुत वीर थे परंतु उनकी रीढ़ में भी शीतल जल बह चला.

उन्होंने पेड़ की शाखा कसकर पकड़ ली. राक्षसों की संख्या तीस के आसपास थी, और उनके साथ रस्सियों में जकड़े दो अभागे मानव भी थे. एक राक्षस ने पेड़ पर चढ़ने का प्रयास किया जिसे उन्होंने तीर मारकर नीचे गिरा दिया.

थोड़े समय पश्चात राक्षसों ने उद्धव से ध्यान हटा लिया. कदाचित यह सोचा हो कि ये तो पेड़ पर ही है, जब चाहेंगे, उतार लेंगे. उनमें से कुछ सूखी टहनियां तथा कुछ बड़े-बड़े पत्थर ले आये. आग लगाकर पत्थरों को गर्म किया गया और फिर उन अभागे मनुष्यों को उन पर बिठा दिया गया. मर्मान्तक चीखों से वन गूंज उठा और उद्धव की आखों से यह सोचकर अश्रु बह चले कि मुझ क्षत्रिय के होते हुए यह अत्याचार हो रहा है और मैं कुछ कर भी नहीं सकता.

अर्धरात्रि में राक्षसों का महाभोज शुरू हुआ और सुबह तक चला. काटने, चबाने और डकार की भयंकर आवाजों ने उद्धव को पागल सा कर दिया था. कहीं वे इस मनस्थिति में वृक्ष से कूद ना जाये, उन्होंने स्वयं को दुप्पटे द्वारा एक तने से बांध लिया.

अगला पूरा दिन राक्षस सोते रहे और उद्धव थकान, चिरांध और उस वीभत्स भोज से आंदोलित अर्धमूर्छित अवस्था में थे. उन्हें लगता कि अब किसी भी समय वे गिर पड़ेंगे, या कोई राक्षस ऊपर चढ़कर उन्हें नीचे धकेल देगा.

उन्हें भी गर्म पत्थर पर भूना जाएगा, उनके शरीर को खंड-खंड कर इन राक्षसों का भोजन बना दिया जाएगा. उन्हें कभी-कभी कृष्ण दिखाई देते जो उनकी तरफ बढ़े चले आ रहे थे. अपनी पत्नियां कपिला और पिंगला दिखाई देती, पिता देवभाग दिखाई देते.

उन्होंने कृष्ण के साथ, कृष्ण के लिए अनगिनत पराक्रम के काम किये थे, पर आज कायरों की भांति इस वृक्ष पर खुद को बांधे अपनी निश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे. उनके हृदय से आवाज निकली, ‘हे गोविंद, तेरा ये भक्त तुझे अपने हृदय में समाए तुझमें विलीन होता है. मुझे मुक्त कर, यमराज मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं’. उन्हें कृष्ण की गूंजती आवाज सुनाई दी, ‘जब तक कृष्ण जीवित है, उद्धव को यमराज नहीं ले जा सकेंगे’.

दूर कहीं हलचल से उद्धव की तन्द्रा टूटी तो उन्होंने देखा कि मांसभक्षी राक्षसों में भगदड़ मची थी और सैनिकों जैसे लगने वाले राक्षस उन्हें पकड़ रहे थे. वृक्ष के नीचे कुम्भ के साथ खड़े एक अतिविशाल राक्षस ने विशुद्ध देववाणी में उनसे कहा, “अरे बन्दर, डाली से क्या चिपका है. कूद जा, राजा वृकोदर की ये बलिष्ठ बाहें तुझे लपक लेंगी.”

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नींद से बोझिल आंखें जब दुबारा खुली तो उन्होंने भाई भीमसेन को देखा, जिन्होंने राक्षसी भड़कीले वस्त्र पहने थे, बस एक अंतर था कि उनके दांत राक्षसों की तरह घिस कर नुकीले नहीं बनाए गए थे. भीम ने उनकी तरफ देखकर कहा, “उठ गया? अभी और सो ले. तब तक इन राक्षसों को दंड दे लूँ.”

अगली सुबह वे सभी मुख्य बस्ती गए. रास्ते में उन्होंने भीम से पूछा, “तुम इनके राजा कैसे बन गए?”

भीम ने अपनी गूंजती आवाज में कहा,”जब पापी दुर्योधन ने हमें जलाकर मारने का षडयंत्र किया था तो चाचा विदुर के आदेशानुसार हम इधर वन की ओर चल दिये. यद्यपि मुझे समझ नहीं आया कि साक्ष्य होते हुए भी अपराधी दुर्योधन के स्थान पर हमें सजा क्यों दी जा रही है. यदि बड़े भैया का आदेश ना होता तो मैं उसी समय हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन को पटक-पटक कर मार डालता.

वन में एक रात्रि जब सभी विश्राम कर रहे थे, राक्षसों का राजा हिडिम्ब अपनी बहन हिडिम्बा सहित आ धमका. तुम मेरी देह तो देख ही रहे हो, उसे लगा होगा कि इस एक व्यक्ति से कई दिनों तक उसकी उदरपूर्ति होती रहेगी. मुझसे आ भिड़ा, और जानते हो उद्धव, मैंने दुर्योधन, कर्ण, शकुनि का सारा क्रोध उस अभागे राक्षस पर उतार दिया. उसको इतना पटका कि उसकी हड्डियों का चूरा बन गया.

इनकी संस्कृति हमसे अलग है. पिता या भाई की द्वंदयुद्ध में वध करने वाले वीर से राक्षस-युवतियां प्रेम करने लगती हैं, उनसे विवाह करती हैं. चूंकि ये आर्य कन्या नहीं थी, माता ने बड़े भाई के होते हुए भी आपद्धर्म मान मुझे हिडिम्बा से विवाह करने की अनुमति दी. तुम मिलना उससे, वह बहुत ही अच्छी है. हमारी संस्कृति समझने का, अपनाने का प्रयास करती है.”
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माता सत्यवती के आदेश पर महामुनि व्यास राक्षसावर्त पधारे थे. राक्षस राजा वृकोदर तथा नागराजा कर्कोटक के मध्य उद्धव की मध्यस्थता से संधि हो गई थी. संधि के अनुसार अब नागों के सीमावर्ती गाँवों की सुरक्षा राक्षस करते थे. मांस, चमड़े तथा औषधियों का व्यापार, कृषि, पशुपालन, शिकार तथा सुरक्षा की तकनीकों का आदान प्रदान शुरू हुआ था तथा नए मार्ग बनाये जा रहे थे.

महामुनि का आना राक्षसों के लिए कौतूहल का विषय था. उनकी आंखें तब फटी रह गई जब उन्होंने अपने महान राजा को किसी दास की तरह उनके चरणों में लोटता हुआ पाया. राजा की बूढ़ी माता तथा अन्य भाइयों ने भी उसी प्रकार अभिवादन किया. देखा देखी राक्षसों ने भी दण्डवत करने का प्रयास किया.

औपचारिकताओं के पश्चात महामुनि कुंती से बोले, “कैसी हो पुत्री, सब कुशल तो है?”

“हाँ गुरुवर. मेरे पुत्र जहाँ हों वहां कुशलता क्योंकर नहीं होगी. मेरा तो अधिकांश जीवन ही वनों में बीता है. परंतु आर्यपुत्र के साथ हम जिस भी वन में रहे वहाँ सभी आर्य ऋषि-परिवार थे. यहां की संस्कृति हमसे भिन्न है.”

“सब एक जैसे ही हो जाएं तो जीवन में माधुर्य कहाँ बचेगा पुत्री. तुम सुनाओ पुत्रों, तुम सब कैसे हो?”

नकुल बोल पड़े, “पितामह, आपके दर्शनों से हम अत्यंत प्रसन्न हैं. परंतु यहां सबसे अधिक दुखी मैं ही हूँ. बड़े भैया को तो बस धर्मचर्चा के लिए एक भी व्यक्ति मिले तो ये सारा जीवन कहीं भी काट सकते हैं, कोई नहीं मिला तो माता तो हैं ही. भैया भीम तो यहां के राजा ही हैं, इन्हें राजकाज से ही अवकाश नहीं मिलता, जो मिला भी तो भाभी हिडिम्बा के साथ वन में घूमते रहते हैं. ये सव्यसाची अर्जुन, महान धनुर्धर वनों में अपने खिलौना धनुष-बाण से मृगया करते रहते हैं, राक्षस बालकों को धनुर्विद्या सिखाते हैं.

अब तो घटोत्कच भी आ गया है तो उसी के साथ लगे रहते हैं. फिर ये मेरे प्रिय सहदेव हैं, ये कभी सीधे देखते ही नहीं. या तो ऊपर आकाश में तारों को देखते हैं या नीचे धरती पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं. बचा मैं, मैं अपना समय काटने के लिए यहां बकरियों और खरगोशों को प्रशिक्षित करता हूँ, अगली सुबह तक वे राजा वृकोदर की प्रजा के उदर में समा जाते हैं. मुझे लगता है पितामह कि हम सब भूल गए हैं कि हम क्षत्रिय हैं, वनवासी नहीं.”

“तो तुम सब बाहर क्यों नहीं आते? वन में क्यों छुपे हो? क्या दुर्योधन से डरते हो?”

“पाण्डुपुत्र किसी से नहीं डरते गुरुदेव. ये तो हमारे बड़े भैया का आदेश है कि हमें उचित समय तक वन में ही रहना चाहिए.”

“हूँ, और धर्मराज युधिष्ठिर, वह उचित समय कब आएगा पुत्र?”

सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर अपने युवराजत्व के अल्पकाल में ही अपनी न्यायप्रियता और सदाशयता के कारण चहुँओर धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, बोले, “पितामह, चाचा विदुर ने हमें लाक्षागृह की गुप्तसूचना दी थी, और वन में छुपे रहने के लिए कहा था. वे जब कहें, हम स्वयं को प्रकट करने के लिए सज्ज हैं.”

भीम बोले, “मुझे समझ नहीं आता कि हमें छुपे रहने की आवश्यकता ही क्या थी, हम क्यों बार-बार दुर्योधन से छुपते फिरें. मेरे हाथ में मेरी गदा हो, अर्जुन के पास उसका धनुष, खड्गधारी नकुल हो तो हमें त्रिलोक में कौन हारा सकता है?”

“तुम्हें इसलिए छिपना था पुत्र कि आमने-सामने के युद्ध में भले ही त्रिलोक में तुम्हें कोई ना हरा सके पर पीठ पीछे किये गए प्रहार का क्या उत्तर है तुम्हारे पास? तुम एक बार बचोगे, दो बार बचोगे, बारम्बार कैसे बच पाओगे. स्मरण रखो, उन्हें बस एक बार ही तो सफल होना है. यदि आज तुम्हें शस्त्र दे भी दिए जाएं तो भी तुम्हें दुर्योधन पर वार नहीं करने दिया जाएगा, और उसे वार करने से कोई रोक नहीं सकेगा. हम चाहते हैं कि तुम इतने शक्तिशाली बनो कि तुम्हारा अहित करने का विचार भी कोई अपने मन में ना ला सके.”

धर्मराज बोले, “तो हमें क्या करना चाहिए गुरुदेव?”

“इस वनवास का समय समाप्त हुआ. श्रीकृष्ण इस प्रयास में हैं कि तुम जब संसार के सामने आओ तो पर्याप्त शक्तिशाली होकर आओ. कुछ ही समय में याज्ञसेनी द्रौपदी का स्वयंवर है. गोविंद चाहते हैं कि तुम सब उसमें सम्मिलित हो. काम्पिल्य नरेश को अपने जमाता के रूप में सर्वश्रेष्ठ वीर चाहिए, तो आज पाण्डवों से बढ़कर वीर कौन है? पांडवों को शक्तिशाली मित्र चाहिए, तो आर्यावर्त में पांचालों के अतिरिक्त सामर्थ्यवान तथा धर्मपरायण कौन हो सकता है भला? राजनीति बदल रही हैं, इस एक विवाह से कई पुराने समीकरण टूटेंगे तो कई नई संधियां जन्म लेंगी. पुरुषार्थ दिखाने का इससे उत्तम अवसर नहीं मिलेगा पुत्रों.”

भीम की भुजाएं फड़कने लगी, पराक्रम प्रदर्शन का कोई अवसर वे नहीं छोड़ना चाहते थे. परंतु जितनी तीव्रता से उनके चेहरे पर चमक आई थी, उतनी ही तीव्रता से उनका चेहरा कुम्हला गया. महामुनि ने इसे देखा और मुस्कुराते हुए पूछा, “क्या हुआ पुत्र? तुम विचलित दिख रहे हो.”

“पितामह, मेरा पुत्र घटोत्कच, मैं उसे छोड़कर कैसे जाऊं? वह अभी केवल 4 माह का है. हमारे अपने पिता हमें बाल्यावस्था में ही छोड़ दिवंगत हो गए थे. उनके ना रहने पर हम भाइयों ने सदैव ही सौतेलापन पाया है. अपने अधिकारों के लिए भी हमें भिक्षुक समान माना गया. मैं अपने पुत्र के लिए ऐसी परिस्थिति नहीं चाहता पितामह.”

“बालकों जैसी बातें ना करो पाण्डुपुत्र भीम. क्या पांडु के ना होने पर मैंने, भीष्म ने या विदुर ने तुम लोगों में कभी भेद किया है, तुम्हारे गुरु द्रोण ने तुम्हें कम शिक्षा दी? किसी के होने ना होने से सृष्टि रुक नहीं जाती पुत्र. बंधन में मत बंधो, अपना कर्म करो. रही घटोत्कच की बात, तो उसे मैं देखूंगा कि वह शास्त्र और शस्त्र में पारंगत हो. वह एक महान योद्धा बनेगा पुत्र, और संसार तुम्हें उसके पिता के रूप में याद रखेगा.”
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प्रस्थान से एक दिन पूर्व हिडिम्बा अपने पति राजा वृकोदर को एक अत्यंत ही मनोरम स्थान पर ले आयी. भीम ने प्रकृति की ऐसी अद्भुत छटा पहले कभी नहीं देखी थी. यकायक उनके मुख से उद्गार निकला, “अहा, ये तो साक्षात स्वर्ग है. मन करता है कि आजीवन यहीं रह जाऊं.”

हिडिम्बा बोली, “तो रह क्यों नहीं जाते वृकोदर? क्यों जाना चाहते हो यहां से? ये दृश्य तो कुछ भी नहीं, मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे स्थान दिखाउंगी जो तुम्हारी जाति के किसी मनुष्य की कल्पना में भी नहीं आये होंगे. तुमनें इसे स्वर्ग कहा, परन्तु तुम्हें उन स्थानों के लिए कोई शब्द नहीं मिलेगा.”

भीम चुप ही रहे तो हिडिम्बा पुनः बोली, “और तुम चाहते हो कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ. पर क्या तुम्हारे नगर यहां की तरह हैं? क्या वहां मुझे वही स्वतंत्रता प्राप्त होगी जो यहां हैं? तुम्हारी माता कुंती मुझे बहुत प्रेम करती हैं, मेरी गर्भावस्था में उन्होंने मेरा इतना ध्यान रखा कि जब भी सोचती हूँ, आंखों में अश्रु आ जाते हैं. पर उनके अनुशासन में मेरी सांस रुकती है. यदि एक आर्य स्त्री के होने पर ऐसा है तो मुझे डर है कि अनेक आर्य स्त्रियों की रोकटोक से मैं कहीं मर ही ना जाऊं.

मुझे यह भी समझ नहीं आता कि उनके चार अन्य पुत्र भी तो हैं, वे मेरे पति को मुझे सौंप क्यों नहीं देती, मेरे पति को भी अपने साथ क्यों रखना चाहती हैं. हमारे यहां तो वयस्क होते ही पुरुष अपनी पत्नी के साथ अलग हो जाता है.”

“सालकंटकटी, क्या तुम नहीं जानती कि मैं यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं, पर यह असम्भव है. यदि तुम मेरा वास्तविक परिचय जानती तो कदाचित तुम मुझे रोकने का प्रयास नहीं करती. आह! यदि मैं तुम्हें बता सकता कि हमारा पुत्र केवल विरोचन का ही वंशज नहीं, अपितु संसार के श्रेष्ठतम कुल का उत्तराधिकारी है. यदि मैं तुमसे तुम्हारे पुत्र को अलग कर दूं तो तुम्हें कैसा लगेगा? मैं भी तो अपनी माता का प्रिय पुत्र हूँ, उनसे अलग कैसे रह सकता हूँ? मैं माता से उसके पुत्र को अलग नहीं करना चाहता पर मेरा पुत्र अनन्य वीर होना चाहिए प्रिये. उसे वीर बनाना.”

“इसमें कोई संदेह हैं क्या, वह वीर पुत्र है. वीर ही बनेगा.”

“केवल किसी का पुत्र होने भर से कोई वीर नहीं होता हिडिम्बा, उसे आधुनिक शिक्षा लेनी होती है, संस्कार सीखने होते हैं.”

“कभी-कभी तुम विचित्र बातें करते हों. हमारे समाज में ये सब नहीं होता तो क्या हम लोग वीर नहीं हैं?”

“तुम वीरता किसे मानती हो? तुम्हें लगता है कि तुम्हारा भाई बहुत वीर था?”

“हाँ, क्या वो वीर नहीं था? उसके भय से सभी कांपते थे, कोई उसके पास नहीं आता था. हमारे इस वन में मनुष्य पैर नहीं रखते थे.”

“तुम इसे वीरता कहती हो? क्या मेरे पुत्र को भी तुम अपने भाई जैसा ही वीर बनाओगी? क्या वह भी किसी पेड़ पर बैठा जंगली पशु या किसी मानव की प्रतीक्षा करता हुआ लटका रहेगा, और आखेट मिलते ही उसे कच्चा चबा जाएगा? अच्छा हिडिम्बा, क्या मैं वीर नहीं हूं?”

“तुम तो वीरों के वीर हो, तुमसे अधिक वीर पुरुष मैंने नहीं देखा.”

“तो क्या मैंने कभी किसी मानव या राक्षस की हत्या कर उसका मांस खाया? जब मैंने हिडिम्ब का वध किया तो तुम्हारी प्रथा के अनुसार तुम्हारे पुजारियों ने उसे पकाकर खा जाने का प्रस्ताव किया था, तुम भी उसकी खोपड़ी अपने पास रखना चाहती थी. मैंने ये सब नहीं होने दिया.

हिडिम्ब की प्रजा उससे भय खाती थी, उसके राज्य में कोई मनुष्य प्रवेश नहीं करता था. परंतु आज तुम्हारे समाज का कोई बालक भी निःसंकोच मेरे पास आ जाता है. नागों और आर्यों से व्यापार शुरू हुआ है.

तुम्हारा भाई केवल अपना पेट भरने के लिए हत्याएं करता फिरता था, मैंने अपनी, अपने माता तथा भाइयों की प्राणरक्षा के लिए उसका वध किया. मैंने अपने प्राणों को संकट में डाल अनगिनत मानव-मांसभक्षी राक्षसों का वध किया. मेरे पुत्र को मुझ जैसा वीर बनाना. संसार यह जाने कि वह मेरा पुत्र हैं, कि मैं घटोत्कच का पिता हूँ. उसे जिस भी गुरु से शिक्षा दिलवाना पर उसे मूल शिक्षा तुम देना कि उसे कमजोरों की ढाल बनना है, और आतताइयों का वध करना है.”

“तो क्या उसे तुम्हारे समाज में जाना होगा. तुम लोगों की रीतियाँ अपनानी होंगी.”

“यदि ऐसा करने से कुछ शुभ हो तो अवश्य. संस्कृतियों को एक दूसरे में मिल ही जाना चाहिए. जो तुमसे अलग हैं, आवश्यक नहीं कि तुम्हारे शत्रु ही हों. उनसे कुछ सीखो, उन्हें कुछ सिखाओ. एक दूसरे को नष्ट करने की अपेक्षा साथ रहकर स्वयं का विकास प्रत्येक दृष्टि से शुभ है प्रिये.”

“ठीक है वृकोदर, मुझे मेरा मार्ग दिख गया है. मैं अपने पुत्र को उसके पिता जैसा वीर बनाउंगी. वह राक्षसों के आर्य राजा वृकोदर का सच्चा उत्तराधिकारी होगा. मुझे वचन दो कि यदि भविष्य में कभी तुम संकट में घिरे तो हमें बुलाने में संकोच नहीं करोगे. हमसे सम्पर्क बनाये रखना प्रिय, हमें स्मरण रखना”

भानुमति – 10

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