ठहरो… गन्तव्य आ गया है वरुण, नदी को लौटना होगा.
फिर कभी नहीं मिलने के लिए!
कब तक?
जन्म-जन्म तक!
और हमारे बीच क्या सम्बन्ध शेष रहेगा कि हम जनम-जनम तक मिलते रहेंगे!
विरह से बढ़कर कोई और आकर्षण होता है क्या?
यह संसार, विरह का ही विस्तार है.. वास्तव में जब हम किसी के आकर्षण में बंध रहे होते हैं तब विरह वहीं से आरम्भ होता है. और जन्म से मृत्यु का विरह और मृत्यु का विरह जन्म होने पर समाप्त.
तुम्हारी विचारधारा तुम्हारे जैसी ही है नदी, शाश्वत और व्यापक. शुभ्र हिम खण्ड सी श्वेतांबर. क्या अब भी एका नहीं हो सकता?
गन्तव्य का बारम्बार परिवर्तन सृजन में बाधक है. क्या ठहर पाओगे मेरे लिए?
क्यों नहीं?
इसी लाठी की तो नदी को आवश्यकता थी! अपनी विजय पर नदी एक सूर्य को सहस्त्र भागों में खंडित कर विशाल जलराशि को रजतपट बना चुकी थी.