करीब सत्रह साल पहले एक फिल्म आई थी “डांसेज विथ वूल्व्स” (Dances With Wolves) जिसे सात अकादमी अवार्ड मिले थे.
कई साल बाद अब हो सकता है कई लोगों को इसका नाम ना याद हो. इसकी कहानी 1863 के सेंट डेविड्स फील्ड में टेनेसी में शुरू होती है, जहाँ फर्स्ट लेफ्टिनेंट जॉन डनबर युद्ध में घायल हो गया है.
उसे लगता है उसकी टांग काट दी जायेगी और वो लंगड़ा होकर जीने के बदले लड़ते हुए मरना चाहता था. तो वो एक घोड़ा लेकर कॉन्फेडरेट सेना पर अकेले ही घोड़ा दौड़ा देता है.
उस पर निशाना लगाने की कॉन्फेडरेट सैनिकों की कोशिश बदकिस्मती से नाकाम होती है और उसके ध्यान बंटाने से जो व्यूह टूटा उसका फायदा उठा कर यूनियन सेना लड़ाई जीत लेती है.
अब डनबर जो दुश्मन की गोलियों से बच गया था, उसे बहादुरी का इनाम और अच्छा इलाज भी मिलता है. वो ठीक हुआ तो जिस घोड़े पर बैठ के उसने चढ़ाई की थी, वो भी उसे इनाम में मिला और अपने पसंद की पोस्टिंग चुनने का मौका भी.
वो पश्चिमी सीमा पर कोई जगह चुनता है ताकि जिस पर उसने हमला किया था उन लोगों को गायब हो जाने से पहले देख पाए. जिस किले पर उसे भेजा जाता है वहां के सबसे दूर की निगरानी चौकी भी वो चुन लेता है.
टिम्मोंन्स नाम के जिस गाड़ीवाले के साथ वो जाता है उस पर लौटते वक्त हमला होता है और वो मारा जाता है. किले के जिस सुबेदार ने उसे पोस्टिंग दी वो भी आत्महत्या कर लेता है तो कई दिनों तक लोगों को पता ही नहीं होता कि उस चौकी पर भी कोई है.
उधर अकेला पड़ा डनबर स्थानीय कबीलों से जान पहचान बढ़ाता है और अपनी टूटी फूटी चौकी के किले की मरम्मत करता है.
अपने अनुभव वो एक डायरी में नोट करता रहता है. उसकी एक भेड़िये से भी दोस्ती हो जाती है और कबीले (रेड इंडियन) उसे भेड़िये के साथ खेलता देखकर Dances With Wolves बुलाने लगते हैं.
एक लड़की को उसने बचाया था, वो दुभाषिये की तरह काम करती है और उसी से डनबर को प्यार भी हो जाता है. इन सब में वो किला छोड़कर लड़की से शादी करके उनके साथ रहने लगता है.
एक भैंसे का झुण्ड खोजने की वजह से उसका सम्मान भी बढ़ गया था. पावनी और गोरे लोगों के बढ़ते हमले से परेशान कबीले का सरदार कबीले के जाड़े में रहने वाले ठिकाने पर जाना चाहता था. साथ आने से पहले डनबर अपनी डायरी लाने चौकी पर जाता है.
किले पर गोरे सिपाही आ गए थे और वो उसे कबीले वाला समझकर हमला कर देते हैं. उसका घोड़ा मारा जाता है और उसे भगोड़ा समझकर सब मुख्य किले पर भेज रहे थे लेकिन रास्ते में उसे कबीले वाले छुड़ा लेते हैं.
उसका भेड़िया भी अब तक मारा जा चुका होता है. सिपाही का कबीले का पीछा ना करें इसलिए डनबर और लड़की कबीले से अलग होने का फैसला करते हैं. फिल्म में आगे इसाई सैनिक डनबर और लड़की को ढूंढते दिखते हैं लेकिन वो उन्हें खोज नहीं पा रहे होते.
अंत में दिखाते हैं कि इस घटना के तेरह साल बाद उस कबीले “सिऔक्स” (Sioux) के अंतिम आजाद सदस्य को भी अमेरिकी नियंत्रण में ले आया गया. इस तरह अमेरिकी सेना ने ग्रेट प्लेन्स पर कब्ज़ा जमाने में कामयाबी पायी.
आप जब फिल्म देखें तो डनबर के दूसरों की परम्पराओं के प्रति आकर्षण और कबीले के कुछ लोगों का गोरे इसाई के प्रति मोह भी देखिये. उसे देखकर शायद आपको “परधर्मो भयावहः” वाला तीसरे अध्याय का पैंतीसवां श्लोक भी याद आ जाए :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्.
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः..3.35..
इसमें मोटे तौर पर ये कहा जा रहा होता है कि अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, गुणों की कमीवाले अपने धर्म में मरना बेहतर है. किसी और के आचरण की नक़ल मृगतृष्णा सी ही होती है. अक्सर ये भी पूछा जाता है कि क्या तुम उनके जैसे हो जाना चाहते हो? फिर क्या फर्क रह जाएगा उनमें और तुममें?
लड़ाई झगड़े में कुछ नहीं रखा जैसी सलाह देने आये लोग कई बार इसे शुरूआती वार की ही तरह इस्तेमाल करते हैं. किस्मत से ये “फिर क्या फर्क रहेगा उनमें और हममें” का सवाल अर्जुन का भी सवाल था.
शेखुलर बिरादरी का यही प्रिय जुमला दोहराते हुए अर्जुन आपको भगवद्गीता के अर्जुनविषादयोग नाम के पहले अध्याय में अड़तीसवें और उन्चालीस्वें श्लोक में दिखेंगे.
मैं हथियार रखता हूँ, ये लोग मुझे निहत्था मार भी दें तो ठीक वाली दुविधा में पड़ा गिरफ्तार हुआ डनबर आपको फिल्म में भी दिखेगा. भगवद्गीता के इस पहले अध्याय में एक और अंतर दिखता है.
पहले ही श्लोक में “मामकाः” और “पाण्डवाश्चैव” में धृतराष्ट्र के लिए मेरे और पराये का भेद स्पष्ट है. दूसरी तरफ अर्जुन की समस्या ये है ही नहीं कि मारूं कैसे? उसकी दिक्कत है कि अपनों को कैसे मारूं? उसके लिए अपने-पराये का अंतर ही नहीं है.
आगे दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्री कृष्ण ऐसे ही सवालों के जवाब में खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं, तू पंडितों जैसी बातें करता, हरकत तो मूर्खों जैसी कर रहा है.
पहले ही वो दूसरे श्लोक में “क्लैब्यं” यानि क्रॉस ड्रेस करने वाले अथवा नपुंसक जैसे शब्दों से भी अर्जुन को संबोधित कर चुके होते हैं. पहला और दूसरे अध्याय का शुरूआती हिस्सा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी समस्या से निपटने के लिए उसे पहले परिभाषित करना जरूरी होता है.
पहले पांच बार पूछिए, थोड़ी देर अपनी चोंच बंद कर के सुनिए कि किस समस्या की बात हो रही है, फिर जवाब देने की कोशिश कीजिये. या कहिये कि जवाब देने की कोशिश से पहले ये सुनिश्चित कीजिये कि सवाल सही-सही समझ तो लिया है ना? जब भगवान एक पूरा अध्याय सवाल सुनते बिता देते हैं तो आप उनसे भी ऊपर हैं क्या?
बड़े छोटे ऐसे ही मुद्दे पहले ही अध्याय से दिख जाते हैं. जैसे शिकायत करने बैठे, अपने पराये का भेद करते धृतराष्ट्र की बात नहीं सुनी जाती. उसका एक ही श्लोक है, ऐसे ही आम जीवन में भी जो हमेशा दुखड़ा ही रोता रहे उसकी बात भी एक लाइन से ऊपर कोई नहीं सुनता.
सात सौ श्लोकों में जो गीता ख़त्म हो जाती है, उसके शुरूआती सात श्लोक सिर्फ शंख की ध्वनि पर खर्च कर दिए गए हैं. 100 में से एक प्रतिशत बिना किसी प्रयोजन खर्च नहीं किया गया होगा, उसके पीछे कोई कारण होना चाहिए.
शंखध्वनि इतनी विशिष्ट क्यों, इस पर भी विचार किया जा सकता है. बाकी को खुद ही ढून्ढ के देखिये, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है. पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?