क्या चाहता है पुरुष स्त्री से हरदम,
अपनी अतृप्तियों का निवारण?
और जो पाता है अभीष्ट कभी कभी
चरित्र की कीमत पर ही मिलता है वह?
छठी इंद्री से युक्त वह जान जाती है
तुम्हे क्या चाहिए इस अंधेरी रात में,
तौलती हैं फिर अपने प्रारब्ध की तुला पर,
अपने इतिहास, ज़ख्मों और बची खुची शक्ति को,
करती है निर्णय नम हृदय और कांपते हाथों से,
नवसृजन और प्रकृति के मायूस चेहरे देखकर.
नहीं देखा जाता उनका याचक भाव से देखना,
जाने क्यों वे हर बार मेरी ही बलि चाहते हैं.
ना अंधी हूँ और ना ही पटुता से रिक्त हूँ,
भावुक हूँ, नरम हूँ और स्नेहासिक्त हूँ.
जानती हूं फिर से एक बार ठगी जाऊंगी,
लड़खड़ाऊंगी, सम्भलूंगी और फिर ठोकर खाऊँगी.
हां! सहूंगी दंश बेवफाई के, अनिष्ट रुलाई के,
फिर भी अपने आंसुओ के जल से ही सही,
कर जाऊंगी पल्लवित नवलताओं को लकदक,
सर्वत्र हरित वन, स्पंदित जीवन,भुवन जगमग.
हां! मैं स्त्री हूँ, हां मैं प्रकृति हूँ,
अब भी परमेश्वर की श्रेष्ठतम कृति हूँ,
अपराजिता हूँ अब भी, युद्ध में हारी नहीं हूं मैं,
वीरान, नीरस मरुस्थलों पर स्वेच्छा से वारि गई हूं मैं.