रचनाकार तो सृजन के आनंद में डूबा रहता है, हिसाब किताब तो ज्ञान के व्यवसायी करते हैं

साहित्य और विज्ञान में चोरी आम बात है. मूल रचनाकार को इसके कारण पीड़ा होना स्वाभाविक है.

हर चोर की तरह ये चोर भी बड़े बेशर्म होते हैं.

पिछले दो दिन से एक साहित्यिक चोरी के कारण फेसबुक का बाज़ार बेहद गर्म है.

जिसने पोस्ट चोरी करके एक कहानी लिख मारी वो तो महान है ही, जिसकी पोस्ट चोरी हुई वो उससे भी महान है.

चोर सोच रहा है कि उससे बड़ा कलाकार नहीं, जबकि जिसकी चोरी हुई है वो मानता है कि उससे बड़ा ज्ञान का धनी कोई और नहीं.

दोनों के अहम् को देखा जा सकता है. ऐसा बवाल मचाया हुआ है मानो पहली और आखिरी चोरी हुई है.

जबकि यहां तो फेसबुक पर आप कोई पोस्ट करो और मिनटों में वो कॉपी हो कर फेसबुक पर टहलती आम मिल जाती है.

और आप से ज्यादा पढ़ी और सराही जा रही होती है. मगर इसका कोई इतना बड़ा हंगामा खड़ा नहीं करता.

जो स्वाभाविक रचनाकार है वो अपने सृजन के आनंद में डूबा रहता है. हिसाब किताब तो वो करते हैं जिन्हे रचना में ज्ञान का व्यवसाय नजर आता है.

सृजन व्यक्ति को सहज बनाता है अहंकारी नहीं. मगर आज के युग में अगर आप शांत और सहज हैं तो आप को मूर्ख समझा जाता है.

बहरहाल, इस झगड़े में देखना बड़ा दिलचस्प था, कई ऐसे महान लेखकों का उछलकूद मचाना, मानो साहित्य की अग्नि परिक्षा से जीवित निकल आये हों.

कोई तब तक ही दूध का धुला होता है जब तक उसकी चोरी पकड़ी ना जाए. चोरी भी कई प्रकार की होती है.

कई धूर्त concept अर्थात विचार और संकल्पना की चोरी करते हैं और कई सच की चोरी करते हैं अर्थात बड़ी सफाई से झूठ बोलते हैं. मेरे मतानुसार ये चोरियां ज्यादा खतरनाक होती हैं.

एक उदाहरण देता हूँ. मैंने schizophrenia (सिज़ोफ्रीनिया) पर अपना उपन्यास ‘बंधन’ 2005 में लिखा था. जो पहले स्थानीय, फिर राजकमल जैसे बड़े प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित हुआ.

उसके कई संस्करण आ चुके हैं और उपन्यास कई अन्य भाषाओं के भी प्रमुख प्रकाशनों से प्रकाशित हो चुका है.

मैंने कभी नहीं कहा कि यह मनोरोग पर पहला उपन्यास है मगर ‘बंधन’ के प्रकाशन के कई सालों बाद छपने वाले रचनाकारों ने अपने उपन्यास/ कहानी को पहला कह कर खूब वाहवाही लूटी.

मगर उससे बड़ा गुनाह अपनी रचना में वे ये कर गए कि बीमारी के बारे में गलत जानकारी दे गए. जो उन परिवारों को कितनी पीड़ा पहुंचाते होंगे जिनके घर में इस बीमारी से कोई सदस्य पीड़ित है. शायद किसी रचनाकार के लिए यह अपराध बड़ा है.

वैसे ही जब मैं अपनी पुस्तक ‘स्वर्गयात्रा’ के लिए लद्दाख में भटक रहा था तब एक हिंदी की किताब में दिया गया वर्णन देख कर अफ़सोस हुआ था, क्योंकि वो ना केवल आधा अधूरा था बल्कि कई जगह भ्रमित भी कर रहा था.

यह दूर बैठे पाठकों को कितना नुकसान कर सकता है इसका आकलन करना संभव नहीं. क्योंकि यहां हिंदी के बड़े लेखकों की बात हो रही है.

अंत में चोर चोर चिल्लाते हुए सड़क पर दौड़ने वालो से अनुरोध है कि सड़क किनारे खड़े आम जन को सदा के लिए मूर्ख समझना छोड़ दें. वो जानता है चोर सिपाही के खेल को.

और फिर आज के युग में तो नाम कमाने के लिए इल्ज़ाम और ज़ोर से लगाया जाता है. क्या करें कलयुग जो है, जितनी ऊंची आवाज़ होगी उतने लोगों द्वारा सुना जाएगा, बेशक फिर चाहे उसमें सुनने लायक कुछ भी ना हो.

 

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