जागेश्वर धाम : You return from a trip not from a journey

ये दिन भी बाकी के दिनों की तरह साधारण ही था. हमेशा की तरह सुबह उठते ही पहला ख्याल घूमने के बारे में ही आया.

फिर पता नहीं कैसे पर अचानक से मन बन गया कि अल्मोड़ा स्थित जागेश्वर धाम चला जाये, वो भी आज के आज ही.

काफी समय हो गया है इस यात्रा को टालते हुए अब और बहाने नहीं. जैसे जैसे दिन चढ़ता गया, मन में जाने या नहीं जाने के बीच द्वन्द चलता रहा.

जैसे मुसीबत के समय चाचा चौधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है वैसे ही पैसों की बात आते ही मेरा दिमाग आर्यभट्ट से तेज चलने लगता है.

पैसे कम हैं… छुट्टी नहीं मिलेगी …. साथ जाने के लिए कोई दोस्त नहीं है …. आदि आदि. पर अफसोस आज दिमाग पर दिल हावी रहा और रात के 9 बजते बजते मैं अपना वीकेंड बैग लटकाये आनंद विहार के बदबूदार बस अड्डे पर था.

यूपी – उत्तराखंड में अगर आपको कहीं जाना हो तो इस दुर्गन्ध युक्त बस अड्डे पर आपको आना ही पड़ेगा.

मेट्रो से उतरने के बाद इंसानों द्वारा बनाई गयी मूत्रधाराओं के बीच से उचकते उचकाते पैर रखते हुए और नाक पर अपना तौलिया कस कर लपेटे हुए जब बस अड्डे पहुंच कर एक खटारा बस में सवार हुआ तो बे-चैन की साँस ली.

सूखा कीचड़ बस की बाहरी दीवारों पर विश्व का मानचित्र सा बना रहा था. उत्तराखंड रोडवेज की ये बस एक ऐसे डाक बंगले जैसी लग रही थी जिसमें सदियों से कोई नहीं आया हो.

दिन की थकान की वजह से बस के चलते ही तुरंत सो गया. बाजू वाले अंकल अपनी मुंडी मेरे कंधे पर लाद कर मुझसे माँ की ममता टाइप फीलिंग लेते रहे.

सड़क की दुर्दशा की वजह से गर्दन बार बार सुसाइड करती रही. उधर बस अपनी खड़ खड़ की वजह से सारी रात लोरी सुनाती रही.

सुबह 5 बजे हल्द्वानी पहुँचा तो तुरंत अल्मोड़ा के लिए बस मिल गयी. लगभग 9 बजे अल्मोड़ा फिर वहां से शेयर जीप में बाड़ेछीना फिर वहाँ से दूसरी शेयर जीप में आरतोला पहुँचा तो 11 बज चुके थे.

जागेश्वर मंदिर अभी भी यहाँ से 3 KM दूर अंदर की तरफ एक निर्जन रास्ते पर था और आपको या तो पैदल जाना था या किसी गाड़ी का इंतज़ार करना था.

यह इंतजार बहुत देर का भी हो सकता था क्योंकि यहाँ अक्सर आपको गाड़ी नहीं दिखाई देगी. इस समय मेरे लिए दोनों ही विकल्प मुश्किल थे. जहाँ गाड़ी से उतरा वहीँ एक झोंपड़ी टाइप रेस्टोरेंट दिखाई दिया तो पेट खुशी से कुलांचें मारने लगा.

जागनाथ द्वार रेस्टोरेंट … जी भर कर खाना खाया. जब तक खाना खत्म करता रेस्टोरेंट के मालिक दर्शन भाई से दोस्ती कर चुका था. थोड़ी गप शप के बाद 500 रुपये में उनके घर में ही रुकना तय हो गया.

ज्यादा घुमक्कड़ी का एक नुकसान यह भी है कि आप कम समय और कम पैसे में ज्यादा मजा चाहते हो. और अक्सर मैं इस तरह की चुनौती का सामना करता हूँ.

दर्शन भाई के रेस्टोरेंट की भट्टी पर चाय बनाने वाली केतली में गर्म पानी कर के नहाया. घंटे भर में सारे काम निपटा कर … तरोताजा होकर मैं अब चला महादेव के द्वारे.

मेरी इस वीकेंड मस्ती की दो बातें जो मुझे बाद तक सुकून देती रहीं. पहला मैं हमेशा की तरह अकेला आया था और दूसरा मैं इस बार अपने साथ कैमरा नहीं लाया था.

आस पास के नजारे बहुत ही मनमोहक थे. किंतु माँ जीवन शैफाली कहती हैं कि प्रकृति को कैमरे में कैद करना भी उसके साथ अन्याय ही होता है. ब्लॉग के लिए मोबाइल से कुछ फोटो लिए और चलता रहा.

3 किमी का ये रास्ता विभिन्न तरह की वनस्पतियों और पक्षियों से भरपूर है. रास्ते के साथ साथ शोर करता हुआ पानी लगातार बहता है जो मंदिर के पास पहुंचते पहुंचते काफी ज्यादा हो जाता है और एक छोटी मोटी नहर का रूप ले लेता है.

लगभग आधे घंटे में मैं मंदिर पहुँच चुका था. मुख्य मंदिर इतना शांत एवं सम्मोहक है कि मैं करीब 2 घंटे मंदिर के फर्श पर ही बैठा रहा. एक अजीब, अदृशय व अलौकिक शक्ति मन को अदभुत सी शांति देती हुई महसूस हो रही थी. मंदिर की शांति को अपने अंदर समेट कर शाम 6 बजे वापिस अपने ठिकाने पर आ गया.

महादेव के दर्शन करने के पश्चात दो दिन तक दर्शन भाई के पास होम स्टे किया. इस दौरान आस पास की पहाड़ियों में पैदल घूमता और जब थक जाता तो वापिस अपनी झोंपड़ी नुमा बाल्कनी में कुर्सी डाल कर बैठ जाता.

चाय की चुस्कियों के बीच पहाड़ों को निहारता और अपनी डायरी लिखता रहता. काश के जीवन इतना ही सरल होता और मुझे कभी लौटना नहीं पड़ता. पर लौटना तो होता ही है …. फिर से जाने के लिए. किसी ने सही ही कहा है – “You return from a trip not from a journey”

जागेश्वर धाम मंदिर

उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाड़ियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे. जागेश्वर मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ. इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पडती है.

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इन मंदिरों के निर्माण की अवधि को तीन कालों में बांटा गया है. कत्यरीकाल, उत्तर कत्यूरीकाल एवं चंद्र काल. बर्फानी आंचल पर बसे हुए कुमाऊं के इन साहसी राजाओं ने अपनी अनूठी कृतियों से देवदार के घने जंगल के मध्य बसे जागेश्वर में ही नहीं वरन् पूरे अल्मोडा जिले में चार सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया जिसमें से जागेश्वर में ही लगभग 200 छोटे-बडे मंदिर हैं.

मंदिरों का निर्माण लकड़ी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाओं से किया गया है. दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं. मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकड़ी का भी प्रयोग किया गया है.

क्यूँ जाएँ

अगर आपको मन्दिरों में जाना … भजन पूजन करना और महादेव की स्तुति करना अच्छा लगता है, एक वीकेंड दिल्ली की भीड़ से दूर किसी निर्जन स्थान पर समय गुजरना चाहते हैं, प्रकृति को निहारना-महसूस करना चाहते हैं … तो जागेश्वर से अच्छा और नजदीक विकल्प शायद ही आपको मिले.

कैसे जायें

ट्रेन से काठगोदाम तक जाकर वहाँ से बस या टैक्सी पकड़ कर खूबसूरत पहाड़ी रास्ते से होते हुए अल्मोड़ा जाया जा सकता है. या दिल्ली से सीधा बस के द्वारा अल्मोड़ा वाया हल्द्वानी पहुँचा जा सकता है. अल्मोड़ा से सीधे जागेश्वर तक जाने के लिए कोई साधन आसानी से उपलब्ध नहीं होने के कारण टुकड़ों में मंदिर तक जाया जा सकता है. यह मंदिर अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मार्ग पर आरतोला के नजदीक है …. अल्मोड़ा – बाड़ेछीना – आरतोला – जागेश्वर धाम मंदिर.

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