हिन्दू कट्टरपंथी चिल्लाते रहते हैं कि अहिंसा और प्रेम की शिक्षा ने हमें कायर बनाया है. पर ग़ज़ब ये भी है कि यही लोग मर्यादा और थोथी नैतिकता को किस मुँह से समाज पर थोप रहे हैं? क्या मर्यादा और नैतिकता प्रेम और अहिंसा से बड़ी है? – Balwan Deshwal
प्रिय बलवान देशवाल जी
प्रेम प्रणाम
आनंदित व्यक्ति सुखी व्यक्ति जिसने प्रेम जाना हो वह किसी भी प्राणी को जीव को जरा सा भी कष्ट या दुख नहीं देना चाहेगा.
चाहे वह ग़रीब हो समृद्ध हो शिक्षित या अशिक्षित हो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उसने अहिंसा शब्द भी नहीं सुना हो तो भी वह अकारण किसी पेड़ पौधे या फूल के पशु पँछी या मनुष्यों के प्रति हिंसात्मक व्यवहार नहीं करना चाहेगा.
कोई उसे नुक़सान भी पहुँचाए तो वह उसे क्षमा कर देगा यह एक प्रेमपूर्ण व्यक्ति का लक्षण है. जिस मनुष्य के जीवन में प्रेम की सुगंध है उसमें करुणा और अहिंसा उसकी छाया की तरह सदा उसके साथ बनी रहती है यही उसकी जीवन शैली है.
उसके जीने का ढंग है. इस तरह की शांति प्रेम और अहिंसा का वातावरण हमेशा बुद्ध पुरुषों के आस पास उनके सानिध्य में निर्मित होता रहा है. यह बहुत ही विधायक प्रीतिकर शक्ति है जो बहुत संवेदनशील व्यक्तियों को आकर्षित करती है.
अहिंसा और प्रेम की देशना कुछ बुद्ध पुरुषों की जाग्रत पुरुषों की देन है जिन्होंने गहन हिंसा को और दुष्टता को जीया है जाना है और उससे मुक्त होकर अहिंसा और प्रेम को वरण किया है.
किसी सम्राट अशोक ने या अजात शत्रु ने भयानक हिंसा को जीकर जाना है इसलिए यह अहिंसा और प्रेम की अनुभूति बिलकुल ही वैयक्तिक है ऐसे लोग शूरवीर थे इन्होंने युद्ध में बहुत रक्तपात किया है.
ये योद्धा रह चुके हैं ये स्वयं घायल हुए हैं और उसकी पीड़ा भी जानी है तब जाकर इन्हें पर पीड़ा का सघन बोध हुआ है नरसिंह मेहता के भजन की दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं !
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ पराई जाणे रे
पर दुखे उपकार करे तोय मन अभिमान न आणे रे
हिंसक व्यक्ति तो जंगली पशु के समान होता है जो अपने भोजन के लिए दूसरे पशुओं का शिकार करता है उन्हें अपनी भूख मिटाने के लिए खाता है.
प्रकृति ने उसे ऐसा ही बनाया है उसे दूसरे की पीड़ा का अनुभव नहीं होता. उसे केवल अपनी भूख मिटानी है नहीं तो वह स्वयं ही भूख से मर जायेगा.
लेकिन जब कोई शूरवीर कोई योद्धा अपनी या अपने देश की रक्षा के लिए लड़ता है तो उसके कारण अलग होते हैं वैसे वह करूणा वान और अहिंसक होते हुए भी हिंसा करने को अपना दायित्व समझ कर अपना कर्तव्य समझकर जानते हुए युद्ध में उतरता है.
अगर वह शत्रु को समाप्त नहीं करता है तो वह स्वयं ही समाप्त हो जायेगा और अपने साथ अपने राज्य के लोगों पर भी शत्रु द्वारा हिंसा को झेलने के लिए बाध्य करेगा.
कोई आप पर हिंसा करे और आप अहिंसा के सिद्धांत को मान कर उसके द्वारा की गई हिंसा स्वीकार करते हैं तो आप हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं. ऐसी ही निर्णायक परिस्थिति में कई राजा महाराजाओं को युद्ध करना पड़ा है.
पृथ्वीराज चौहान कोई हिंसक लुटेरे स्वभाव के व्यक्ति नहीं थे वे बहुत करुणावान और उदार स्वभाव वाले शूरवीर थे इसीलिए महमूद गौ़री को सत्रह बार क्षमा कर के छोड़ दिया. अगर हिंसक होते तो पहली बार में ही गौ़री की गर्दन काट देते इसी अहिंसा और करूणा के सिद्धांत ने मर्यादा ने उन्हें महमूद गौरी को क्षमा करने पर मजबूर किया होगा.
दुश्मन को भी माफ़ करने की भारत में बड़ी परम्परा रही है. इसीलिए सम्राट अशोक और अजात शत्रु ने तलवार तोड़ कर फेंकी है किसी दुश्मन से हार कर या डर कर ये अहिंसक नहीं हुए हैं.
हिन्दू कट्टरपंथी जैन या बौद्ध कट्टरपंथियों ने हिंसा की पीड़ा ही नहीं झेली यह तो बुद्ध की महावीर की शांति उनके ध्यान की आभा उनकी करुणा और आनंद के किस्से कहानियाँ सुनकर या शास्त्रों में पढ़ कर अनुमान लगाते हैं कि त्याग का परिणाम अगर ऐसा दिव्य ऐसा भव्य होता है तो हम भी त्याग कर के यह शांति यह आनंद पाना चाहते हैं.
यह सब इसी ग़लतफ़हमी के शिकार हैं. बुद्ध और महावीर के समय में भी जो लोग बुद्ध और महावीर या भृतहरि या आदि शंकराचार्य को देखकर उनसे मोहित होकर उनके शिष्य बन गये उन हजारों लाखों शिष्यों और संन्यासियों में कितने बुद्धत्व को समाधि को उपलब्ध हुए यह बात बहुत विचारणीय है.
इसके बारे में कोई सोच विचार भी नहीं करता और सभी लोग इन त्यागी तपस्वियों के पीछे चल पड़ते हैं. बुद्ध, महावीर, और भृर्तहरी हरि का त्याग कोई सोच विचार कर के किसी परिणाम को ध्यान में रखकर नहीं हुआ.
उन्होंने जीवन के सभी सुख दुख देखे थे धन दौलत, पद प्रतिष्ठा, राजनीति, लड़ाई, हिंसा, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य इन सभी से वे ऊब चुके थे उन्होंने कोई स्वर्ग या मोक्ष पाने के लिए त्याग नहीं किया था.
हिंसा की गहन पीड़ा से उनके भीतर अहिंसा का भाव जन्मा था. इसलिए ऐसे व्यक्ति अपवाद हैं. इसे पूरे समाज के लिए नियम नहीं बनाया जा सकता है.
बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, शंकराचार्य के लिए अहिंसा बोध से जन्मी है यह समस्त प्राणियों के साथ जुड़ने की एकात्म होने की अनुभूति है. अहिंसा औषधि है दुख से छुटकारे की किसी विशेष व्यक्ति के लिए यह प्रिस्क्रिप्शन है. लेकिन यही दवाई एक सिद्धांत की तरह पूरे समाज के लिए ज़हर हो गई है और इसका बहुत घातक परिणाम हुआ है जो दो हजार वर्षों से भारतीय समाज आज भी भुगत रहा है.
कायर और भयभीत व्यक्ति जो लड़ने और मरने से डरते हैं जिन्हें अपनी जान प्यारी है और जो अपनी जान को बचाने के लिए गुलामी भी स्वीकार कर लेते हैं. अपनी आँखों के सामने अपनी बहू बेटियों को अपनी पत्नी को कोई उठाकर ले जाये तो भी ये हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाएंगे और अपनी जान बचाने के लिए मुसलमान भी बन जायेंगे ऐसे लोग पहले किसी हिन्दू राजा महाराजाओं के हुक्म के पाबंद हुआ करते थे.
और जब मुग़लों ने आक्रमण किया तो ये अहिंसा और प्रेम के पुजारी उनसे मुक़ाबला करने की बजाय अहिंसा परमो धर्म को अपना सिद्धांत मानकर उसकी आड़ में अपनी कायरता को छुपाने लग गये.
मुग़लों से मुक़ाबला करने के लिए सिक्खों के बहुत से गुरुओं ने क़ुर्बानियाँ दी है इसलिए आज प्रत्येक भारतीय को सिक्खों का एहसान मानना चाहिए. बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य तो चाहते थे कि उनके सभी शिष्य अहिंसा को और प्रेम को उपलब्ध हों लेकिन ऐसा नहीं हुआ अधिकतर लोग घर गृहस्थी छोड़ कर संन्यासी तो हो गये लेकिन इनमें सभी की साधना सफल नहीं हो सकी.
ये सब के सब हजारों लाखों लोग भोजन और वस्त्रों के लिए समाज पर निर्भर होकर भिक्षु, मुनी और संन्यासी कम पर भिखारी और आलसी ज़्यादा हो गये. काम के न काज के दुश्मन अनाज के इन कायरों को मुस्लिम लुटेरों ने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया हजारों को हिजड़ा बनाया और बहुत सों को क़त्ल कर दिया इनके मंदिरों मठों को तोड़ फोड़ कर आग लगा कर नष्ट कर दिया गया लेकिन ये स्वयं को अहिंसा के पुजारी ही समझते रहे और यह सोचते रहे कि इन लुटेरों के बुरे करमों का फल इनको अगले जन्म में जरूर मिलेगा.
कम से कम मैंने तो कोई हिंसा नहीं की है? यह स्वयं की रक्षा के लिए तलवार को उठाना भी हिंसा समझते थे और फिर तलवार चलाना कभी सीखा भी नहीं सिवाय भिक्षा पात्र के हाथों में कुछ उठाना आता ही नहीं था. वह भी सर झुकाकर जो भी भिक्षापात्र में मिल जाये उसे ही स्वीकार कर के उसे धन्यवाद देना यही इन सबकी जीवन शैली रही थी.
उस समय भारत देश बहुत समृद्ध था इसलिए मूर्तिकला, चित्रकला, और विशाल मंदिरों का जैन और बौद्ध मठों का बहुत अदभुत सृजन भी हुआ है सभी को भौतिक सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध थी तो यह घर संसार परिवार त्याग करने का भी एक चलन सा हो गया था.
घर संसार त्याग करने वालों को लोग बहुत श्रेष्ठ समझते थे इसलिए हर गाँव में हर शहर में जैन मुनियों का बौद्ध भिक्षुओं का और सभी तरह के त्यागी साधु संन्यासियों का वहाँ के राजा महाराजा के साथ उस राज्य की प्रजा द्वारा आदर सम्मान किया जाता था. लेकिन इन अहिंसक लोगों में से किसी को यह विचार कभी नहीं आया होगा कि कोई ग़रीब, असभ्य, जंगली, आदिम कौम भी कहीं दूर अरब के रेगिस्तानी कबीलों में रहती है जिनमें हिंसा करना, लूटमार खूनखराबा, और बलात्कार करने को ही धर्म समझा जाता है.
और वो जंगली कौम कभी इनके ऊपर भी आक्रमण कर के इनकी संस्कृति को नष्ट कर सकती है ऐसी हिंसक लुटेरी क़ौम से मुक़ाबला करने के लिए इन अहिंसक शांति प्रिय साधु संन्यासीगणों के पास कोई उपाय नहीं था. और शूद्र, वैश्य तथा ब्राह्मणों ने युद्ध में लड़ना जानते नहीं केवल क्षत्रिय राजपूत और कुछ मराठा थे वे भी किन्हीं महाराणाओं की गुलामी में लगे हुए थे.
जब तक उनको महाराजा का हुक्म न हो वे सब पड़ोसी राज्य को लुटता हुआ देख कर भी चुप थे. महाराजाओं की आपसी शत्रुता के मन मुटाव के कारण इसी वजह से मुग़लों ने एक एक कर के कई राज्यों को लूट कर उन पर क़ब्ज़ा कर लिया.
मोहम्मद बिन क़ासिम और महमूद गौ़री के बाद बाबर, औरंगज़ेब, नादिरशाह, चंगेज़खान और अनेक लुटेरे आ आकर भारत देश के अनेक राज्यों पर हुकूमत करते रहे और ज़बरदस्ती लोगों को मुसलमान बनाते रहे उनकी बहू बेटियों का अपहरण कर के बड़े बड़े हरम बनाकर उनसे बच्चों को पैदा कर के मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ाते रहे.
यही हाल अभी कुछ वर्षों पहले बर्मा म्यांमार देश का हुआ यह एक प्राचीन बौद्ध देश रहा है यहाँ शरणार्थी की तरह कुछ मुस्लिम आये और धीरे धीरे अपनी जनसंख्या बढ़ाते गये और फिर बौद्ध भिक्षुओं और उनके मठों पर हमला करने लगे एक मिलिटरी तैयार कर ली इसीलिए इनसे रक्षा करने के लिए बौद्ध भिक्षु विराथु ने इन्हें म्यांमार से भगाया.
यह उनकी मजबूरी थी नहीं तो बौद्ध भिक्षु इस तरह की हिंसा करना पसंद नहीं करते. मर्यादा और नैतिकता परिस्थिति के साथ छोड़ी जा सकती है जैसा भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तथैव च
- स्वामी कृष्ण वेदान्त