भानुमति – 10

काम्पिल्य में इतनी चहल-पहल पहले कभी नहीं थी. सामने के विशाल मैदान पर जैसे कोई नया ही नगर बन गया हो. समूचे आर्यावर्त के राजाओं के कुटीर और छोलदारियां लग गई थी.

द्रौपदी के स्वयंवर में आमंत्रित राजाओं ने अपना वैभव दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि सबको अचंभित करते हुए हस्तिनापुर से कई कुमार, कर्ण तथा द्रुपद के शत्रु आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा भी आये थे.

मगध का सम्राट जरासंध भी आया था, एकमात्र सम्राट जो चक्रवर्ती था. हस्तिनापुर का शिविर अत्यधिक परिष्कृत था, तो मगध का शिविर विशालतम.

यादवों की ओर से बलराम के नेतृत्व में कृष्ण, सात्यकि, कृतवर्मा सहित बीस अतिरथी थे. इनके अतिरिक्त चेदि का शिशुपाल, विदर्भ का रुक्मी, सिंधुप्रदेश का जयद्रथ, मद्र के शल्य, विराट, सुनीत, भोज, मणिमान, चेकितान सहित अनगिनत राजा और राजकुमार काम्पिल्य में अपना भाग्य परखने आये थे.

अपने महल से इस विशाल मैदान पर इतनी भीड़ की ओर देखते हुए राजा द्रुपद अत्यंत कुपित थे. उनके पुत्र धृष्टद्युम्न व सत्यजीत तथा पुत्री द्रौपदी किसी प्रकार उनका क्रोध शांत करने का असफल प्रयत्न कर रहे थे.

द्रुपद बोले, “हम जाल में फँस गए हैं मेरे बच्चों, इस कपटी कृष्ण ने हमें फँसा दिया है.”

सत्यजीत ने पूछा, “ऐसा क्या हुआ पिताजी, आप इतने उद्विग्न क्यों हैं?”

“पुत्र, कृष्ण ने कोई गहरी चाल चली है. उसके कहने पर हमने इस स्वयंवर का आयोजन किया, राजाओं को निमंत्रण भेजे. हस्तिनापुर भी निमंत्रण गया, पर ये महज औपचारिकता थी. मुझे विश्वास था कि परम्परागत शत्रुता तथा द्रोण के कारण भीष्म कुरुओं को आने की अनुमति नहीं देंगे. परंतु वे तो पूरे ठाठबाट से आये हैं.

सूचना मिली कि कृष्ण के निकट संबंधि चेकितान को पुष्कर वापस दे दिया गया. ऐसा क्यों? यह कोई कूटसन्धि तो नहीं. प्रतीत होता है कि मेरी कृष्णा को दुर्योधन के पल्ले बांधने का शुल्क वसूला है इस कपटी ने.”

“पर पिताजी, आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?”

“गुप्तचरों के प्रमुख ने सूचना भेजी है कि कुरुओं की सभा में जब यह निर्णय लिया गया कि कुरु-कुमार स्वयंवर में आएंगे, कृष्ण के चचेरे भाई उद्धव वहां उपस्थित थे.

उसी समय यह तय हुआ कि चेकितान को पुष्कर लौटा दिया जाएगा. अब सोचो और बताओ कि क्या यादवों ने मेरी पुत्री का मूल्य नहीं लगाया?

शकुनि और अश्वत्थामा को पांचाली के पास भेजने का औचित्य क्या था? शकुनि चारणों की तरफ दुर्योधन की विरुदावली गा रहा था, और अश्वत्थामा ने कितना विचित्र वचन दिया कि यदि पांचाली किसी भी कुरुकुमार को चुनती है तो वह द्रोणाचार्य को हस्तिनापुर का त्याग नहीं करने देगा.

क्या अर्थ हुआ इसका? यही ना कि कृष्ण निश्चिंत हैं, दुर्योधन ही स्वयंवर का विजेता होगा.”

द्रौपदी ने कहा, “गोविंद हमेशा धर्म और आस्था की बात करते हैं पिताजी. वे ऐसा अधर्म नहीं करेंगे, हमें उन पर अपनी आस्था बनाए रखनी चाहिए”.

“आस्था! कैसे रखूं आस्था? माना कि गुरु सांदीपनि और आचार्य श्वेतकेतु ने धनुर्विद्या की बड़ी विकट चुनौती रखी है पर बेटी, दुर्योधन अप्रतिम धनुर्धर है. उसका अनन्य साथी कर्ण महानतम धनुर्धरों में से एक है. उसका दाहिना हाथ अश्वत्थामा भी किसी से कम नहीं. इनमें से कोई भी उत्तीर्ण हुआ तो?

और अभी थोड़ी देर पहले जरासंध का पुत्र युवराज सहदेव आया था. जरासंध यह मानकर चल रहा था कि मैं तुम्हारा विवाह उसके पौत्र मेघसन्धि से करूँगा. जब मैंने उसे धनुर्विद्या की कसौटी के बारे में बताया तो सहदेव ने स्पष्ट धमकी दी कि या तो कसौटी गदायुद्ध अथवा मल्लयुद्ध की रखो या वे स्वयंवर भंग कर तुम्हारा अपहरण कर लेंगे. यद्यपि इतने राजाओं के होते स्वयंवर भंग करना असम्भव है पर तुम्हारे अपहरण को कैसे रोक सकेंगे हम.”

बीच में व्यवधान डालते हुए एक प्रतिहारी आया, इतना उत्तेजित था कि प्रणाम करना भूल गया, उसने सूचित किया कि वासुदेव आ रहे हैं और उनके साथ कुमार शिखंडी भी है. यह आश्चर्यजनक सूचना थी, सभी को लगा था कि शिखंडी ने आत्महत्या कर ली है.

दरवाजे से वासुदेव की मोहिनी छवि प्रकट हुई और उनके पीछे जैसे कोई कंकाल चला आ रहा था. भावातिरेक में सारा परिवार जड़ हो गया. चलते हुए शिखंडी जब लड़खड़ाया तो द्रुपद दौड़ते हुए गए और उसे हृदय से लगा लिया और भीगी आवाज में पूछा, “तुम कहाँ चली गई थी बेटी?”

“मैं आपका सम्मान खोजने गया था पिताजी, अब आप दशार्ण के राजा हिरण्यवर्मा को सूचना भेज सकते हैं कि वे अपनी पुत्री को काम्पिल्य भेज दें. मैंने पुरुषत्व प्राप्त कर लिया है पिताजी, अब आपकी दो बेटियां नहीं तीन पुत्र हैं.”

“परन्तु यह सम्भव कैसे हुआ? यह चमत्कार किसने किया?”

“मुझे आपके मित्र वासुदेव ने आत्महत्या से रोका और मेरे गुरु तथा आपके बालसखा ने यक्ष स्थूलकर्ण के पास भेजा.”

“मेरा सखा! कौन?”

“गुरुवर द्रोण पिताजी.”

अभी तक अचंभित खड़े द्रुपद क्रोधित हो उठे, दुर्बल शिखंडी को धक्का देते हुए चिल्लाए, “द्रोण, उस नीच ने तुम्हें पुरुषत्व प्रदान किया? तूने उसे अपना गुरु बनाया? जिस व्यक्ति से मुझे घृणा है, जिसने मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय किया तूने उससे भिक्षा प्राप्त की”, गोविंद की ओर संकेत कर द्रुपद बोले, “और तुझे वहां इन्होंने भेजा. ये कैसा ऋण चढ़ाया आपने वासुदेव? मित्र होकर ऐसा छल?”

केशव मुस्कुराते हुए बोले, “तनिक शांत होइए महाराज और मेरी बात सुनिये. द्रोण ने आपका राज्य छीना और आपको अपमानित किया. वे आपके शत्रु बने. और उसी शत्रु ने आपकी पुत्री को अपना शिष्य स्वीकार करते हुए उसे पुरुषत्व प्रदान किया. शत्रुता तो ऐसा नहीं करवाती. उन्हें तो इसे मर जाने देना चाहिए था, या संसार में इसका ढिंढोरा पीटना था कि सत्यवादी राजा द्रुपद का विवाहित पुत्र वास्तव में एक कन्या है, जिससे आपका और अधिक अपमान होता.

जरा सोचिए महाराज कि कभी उन्होंने आपका राज्य छीना था तो आज पुत्र लौटाया है. कभी अपमानित किया तो आज निश्चित अपमान से आपकी रक्षा की है. क्या शत्रु यही करते हैं महाराज?”

द्रुपद अपने आसन पर बैठ गए. सोचते रहे कि दुनिया बदल गई, संबंध बदल गए, शिखण्डिनी बदल गई, द्रोण भी कदाचित बदल गया, तो क्या केवल मैं ही बचा हूँ जो वहीं खड़ा है. उन्हें द्रौपदी की बात मान क्या इस युवक में आस्था रखनी चाहिए? ठीक है, यही सही.

जब वे बोले तो जैसे शांति प्राप्त कर चुके हों, बस कुछ समाधान चाहते हों, “वासुदेव, मैं आप पर विश्वास करता हूँ. परन्तु मुझे यह बताइये कि यदि दुर्योधन, कर्ण स्वयंवर जीतते हैं तो हम क्या करेंगे.”

दुर्बलता से कांपता शिखंडी बोला, “आज्ञा हो तो मैं कुछ कहूँ पिताश्री?”

“बोलो पुत्र, पर पहले मेरे निकट बैठो.”

आसन ग्रहण कर शिखंडी ने कहा, “आपने आजीवन धर्म का पालन किया है. धर्मतः जो स्वयंवर जीतेगा उससे पांचाली का विवाह होगा. पर आपका धर्म किसी अधर्मी को तो स्वीकार नहीं कर सकता. कोई अधर्मी आपके धर्मोचित आचरण का लाभ नहीं ले सकता. दुर्योधन अधर्मी है, उसने अपने चचेरे भाइयों की हत्या करवाई है. और यह मैं सिद्ध कर सकता हूँ.”

“कैसे पुत्र?”

“लाक्षागृह बनाने में जिस व्यक्ति की सेवा ली गई थी उसका नाम यक्ष स्थूलकर्ण है, इन्होंने ही मुझे पुरुषत्व प्रदान किया है. वे अभी मेरे अतिथि हैं और आपकी इच्छानुसार कहीं भी सत्य बोलने के लिए प्रस्तुत होंगे. यदि दुर्योधन विजयी हुआ तो मैं हस्तक्षेप करूँगा और यक्ष स्थूलकर्ण को सामने लाऊंगा. फिर द्रौपदी दुर्योधन को अस्वीकार कर सकती है.”

“उत्तम पुत्र, और यदि कर्ण विजेता हुआ तो.”

शिखंडी को कुछ ना बोलता देख द्रौपदी बोली, “उसे मैं स्वयंवर में भाग नहीं लेने दूंगी. व्यक्तिगत तौर पर वह कितना भी भला और धार्मिक हो, है तो दुर्योधन का अनुगत. अधर्म का पक्षधर अधर्मी ही होगा. मैं किसी ना किसी व्याज से उसे मना कर दूंगी”.

“और अश्वत्थामा लक्ष्यवेध करता है तो, और जरासंध की धमकी?”

इस प्रश्न पर सब चुप रह गए और फिर सबने कृष्ण की ओर देखा. कृष्ण बोले, “उसकी भी चिंता आप लोग ना कीजिये. कुछ तो मेरे लिए भी छोड़िये. जब तक एक भी यादव जीवित है, जरासंघ कृष्णा को छू नहीं सकेगा.”
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जरासंध के शिविर में देर रात्रि दो विशिष्ट व्यक्ति आये और सम्राट से मिलने की हठ की. पहरेदारों ने पहले तो उन्हें मना किया, पर जब उनका परिचय पाया तो उनके पैर काँप उठे. सम्राट का सबसे बड़ा शत्रु, केवल एक साथी के साथ उनके सामने खड़ा था. एक पहरेदार जरासंध के पुत्र सहदेव को बुला लाया. आगंतुक का परिचय तथा मंतव्य जान उसे भी आश्चर्य हुआ पर आगंतुक इतना विशिष्ट था कि उसे नकारा नहीं जा सकता था.

जरासंध अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था और जब आगंतुक ने निहत्थे ही प्रवेश किया तो उसका मन हुआ कि अपनी गदा से इस ग्वाले का सर तोड़ दे. कृष्ण मुस्कुराते हुए आये और उसके सामने तनकर बैठ गए.

कुपित जरासंध ने पूछा, “आप इस समय यहां क्यों आये हैं? क्या आप जानते नहीं कि यहां आपका स्वागत नहीं किया जाएगा. आप मेरे शत्रु हैं. आपने मेरे जमाता कंस की हत्या की है.”

“मैं जानता हूं बृहदत्त के श्रेष्ठ पुत्र, और मैं स्वागत का अभिलाषी भी कहाँ हूँ. मुझे भी आपकी मित्रता की कोई चाह नहीं, और मैंने मातुल कंस की हत्या नहीं उनका वध किया था.”

“तो आप यहां क्यों आये हैं?”

“आप ये तो मानेंगे कि यदि मैं यहां आया हूँ तो कोई अति आवश्यक बात होगी. उचित होगा कि अपने पुत्र और अंगरक्षकों को बाहर जाने के लिए कहिये. चिंता ना कीजिये, मैं निशस्त्र हूँ.”

जरासंध के संकेत पर सभी व्यक्तियों के बाहर चले जाने के बाद कृष्ण बोले, “हे मगध सम्राट, मैं आपकी सहायता करने आया हूँ”.

“आप! आप मेरी सहायता करेंगे. सुनिये वासुदेव, मुझे ना आज ना भविष्य में कभी आपकी सहायता की आवश्यकता होगी.”

“आवश्यकता तो है, और भविष्य में भी होगी. परन्तु अभी की बात करें तो मेरा परामर्श है कि आप द्रौपदी के अपहरण की अपनी योजना त्याग दें.”
“क्या कहा, अपहरण? आप होते कौन हैं मुझे परामर्श देने वाले? मैं अभी आपका सर तोड़ दूंगा.”

“मैं नितांत नगण्य व्यक्ति नहीं हूं सम्राट. स्मरण कीजिये, आप जब मेरी हत्या करने गोमांतक आये थे तो दाऊ बलराम की गदा से मैंने ही आपकी प्राणरक्षा की थी. जब आप मथुरा को जलाने आ रहे थे तो मैंने आपके साथी कालयवन को मृत्युदान दिया था और समूचे समाज को द्वारका की भूमि ले गया. आपकी महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ रही रुक्मिणी को मैं आपकी आंखों के सामने से ले आया था.

आप मेरा सर तोड़ सकते हैं परंतु फिर आपका सर भी भूमि पर लोटता हुआ दिखाई देगा. पवित्र आर्य नियमानुसार यदि स्वयंवर में कोई किसी की हत्या करता है तो सभी राजाओं का धर्म है कि वे हत्यारे का वध कर दें.

मुझे ज्ञात है कि आप द्रौपदी के अपहरण की योजना बना रहे हैं. यदि ऐसा हुआ सम्राट तो पांचालों के साथ हम यादव खड़े होंगे, और कौरवों को भी हमारा साथ देना होगा. आप अपनी सेना सहित काम्पिल्य से बाहर नहीं अपितु मृत्य के देवता यमराज के पास जाएंगे.”

भानुमति – 9

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