चिंतित अघोरी को शव ने कहा- आज असमय यह व्यग्रता क्यों? क्या कष्ट है तुम्हें?
अघोरी बोला- संघ एक बेकार संगठन है जिसने करोड़ों युवाओं का समय नष्ट किया है तभी तो करपात्री जी ने भी इसका विरोध किया.
शव बोला-
जगत में ऐसे लोग नहीं जिन्होंने महादेव को देखा पर ऐसे कुछ लोग अवश्य हुए होंगे जिन्होंने आदि शंकर को देखा.
दो हजार वर्ष पूर्व शंकराचार्य को देखने वाले लोगों का वृतांत तो आज उपलब्ध नहीं पर करपात्री जी को देखने वाले लाखों लोग आज भी इस धरा पर हैं.
जो उन्हें निकट से अनुभव कर पाए हैं वो उनमें आदि शंकर को देखते थे. शंकर की तरह ही ‘अपूर्णे पँचमें वर्षे वर्णयामि जगत्रयम’ सी विलक्षणता थी.
जिसे मिल लिया उससे किया संवाद कभी नहीं भूले. जो वाक्य जब किसी ने बोल दिया उसे भविष्य में कभी भी उद्धृत कर संदर्भ दे सकने की अद्भुत स्मृति किसी हॉलीवुड के सुपर हीरो जैसी अनुभूति कराती है.
ऐसे अनेक लोग फेसबुक पर मिल जाएंगे जो उनसे जुड़े अपने अद्भुत अनुभव सुना सकते हैं.
उन्होंने अनेकों धार्मिक स्थापनाएं दी जो आज सनातन धर्म के लिए मेरुदंड के समान है. आज के लोगों के लिए अविश्वसनीय से लगने वाले अनेक दुरूह कार्य इन्होंने किए.
सनातन के शत्रु आज करपात्री जी महाराज को संघ और सावरकर का विरोधी बताकर प्रचारित करते हैं जबकि उनसे यदि पूछा जाए कि संघ से किन मुद्दों पर उनकी राय भिन्न थी तो उत्तर देने के बदले वो विषय बदलने लगेंगे.
आज हम इसी विषय की चर्चा करते हैं. करपात्री जी का जीवन सबको पता है, हम यहां उनके, वीर सावरकर, संघ और विहिप की स्थापना से जुड़े विवाद और मतभेद की चर्चा करेंगे.
करपात्री जी ने विहिप की स्थापना से 30 वर्ष पूर्व ही इसी प्रकार का एक धर्मसंघ बनाया था जहां हिंदुओं के सभी संप्रदाय के संत अपने भेदभाव मिटाकर एकसाथ आएं और ईसाइयों- मुस्लिमों से धर्म की रक्षा करें,
लोगों ने कहा- सन्त महात्माओं के भिन्न विचारों के मध्य उनको साथ लाना तराजू पर मेंढक तौलने सा है.
उन्होंने कहा- किसी को तो तौलना पड़ेगा, मैं ही सही.
जब उन्हें अनुभव हुआ कि धर्मसंघ तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जबतक राजनैतिक नेतृत्व पर दवाब नहीं हो तो उन्होंने राजनैतिक दल स्थापित किया. उसी कालखंड में गौरक्षा आंदोलन और संसद की सड़कों पर हजारों सन्तों की कांग्रेस द्वारा हत्या हुई.
स्वामी चिन्मयानंद और बाबा साहेब आप्टे के प्रयासों द्वारा विश्व में हिन्दू सन्तों का विशाल परिषद बनाने की योजना बनी तो करपात्री जी महाराज ने इसका अनुमोदन किया और सक्रिय रूप से इसमें शामिल भी हुए. द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी भेंट भी हुई और विहिप की रूपरेखा तय हुई.
करपात्री जी के विचार पीयूष में उनकी संकल्पना है जहां सावरकर और संघ से उनका भेद स्पष्ट समझ आता है, यह भेद मुख्यतः दो बिंदुओं पर था-
1. सावरकर जी के जातिहीन समाज की कल्पना के विरुद्ध करपात्री जी यह मानते थे पीढ़ियों से अशुद्ध कार्यों में लगी जातियों को अचानक ब्राह्मणत्व के समकक्ष लाना अहितकर होगा. वह जातिहीनता के पक्ष में उस समय तक नहीं थे.
2. मुस्लिम और ईसाईयों को वो तब तक स्वीकारने के पक्ष में नहीं थे जब तक वो भारतीय नाम न रखें और हिन्दू रीतिरिवाजों से तालमेल स्थापित न करें.
इन दोनों विषयों को लेकर ही विहिप की स्थापना से भी वो अलग हुए थे. लोग आज कई अनेक कारण भी बताते हैं जिनमें कुछ सत्य- असत्य है पर यही दो मुख्य बातें हैं.
यहां संवैधानिक समस्या खड़ी हो सकती है अतः अन्य सन्तों का विचार था कि विहिप केवल हिन्दू केंद्रित प्रस्ताव पर स्थापित हो.
बाद में करपात्री जी ने भी अनुभव किया कि जातिभेद को समाप्त किए जाने की आवश्यकता है, इसके बिना संगठन संभव नहीं है.
वर्षों बाद उन्होंने विहिप और संघ के सभी संगठनों को अपना अनुमोदन और आशीर्वाद भी प्रदान किया. उनकी यह इच्छा थी कि संघ इतना शक्तिशाली हो जाए कि सभी हिन्दू विरोधी शक्तियां अखंड भारत से पलायन कर जाए.
नियम के कठोर करपात्री जी ने संघ की सामाजिक तरलता के महत्व को विलंब से स्वीकार किया और कहा -“मैं आदर्श अवस्था को सोचता था और उसे ही लागू करना चाहता था पर सामाजिक प्रयोग कठोर नियमों से बांधकर नहीं किए जा सकते.
हिन्दू महासभा या रामराज्य परिषद अपनी कठोरता के बाद भी समाज में जो अनुशासन नहीं ला सका वो संघ ने बच्चों के बीच में कबड्डी खेलकर ला दिया है, यही ईश्वर का आशीर्वाद है. और मेरी भी यह मान्यता है जैसा गुरु गोलवलकर ने मुझे कहा था- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य ईश्वरीय कार्य है.”
– विष्णु कुमार