प्रणाम स्वामी जी…
फिर एक प्रश्न.. थोड़ा कठिन… ओशो ने अपने कई प्रवचनों में कहा है जीवित गुरू को खोजने के लिए उनके शरीर छोड़ने के बाद… इस विषय में आप क्या कहेंगे वो भी उन लोगों के लिए जो ओशो से उनके शरीर छोड़ने के बाद जुड़े हैं…
प्रणाम Manoj Aggrawal
प्रिय मनोज अग्रवाल
प्रेम प्रणाम
ओशो की अनुकंपा उनकी करुणा अपार है ओशो ने यह वचन करुणावश ही कहे हैं!
ओशो के सम्पर्क में अनेक क़िस्म के लोग आते रहे हैं समय समय पर और फिर ओशो से विमुख होकर चले भी गये हैं.
कुछ लोगों ने संन्यास भी छोड़ दिया है उन दिनों इस तरह का माहौल था हर एक व्यक्ति अलग अलग कारण से बुद्ध पुरुष के पास आता है और कुछ लोग संयोग से भी चले आते हैं टाइम पास करने के लिए.
लेकिन ओशो जैसे बुद्ध पुरुष की करुणा ऐसी है कि वह सभी को स्वीकार करती है ओशो ने कभी किसी को संन्यास देने से इनकार नहीं किया!
मैंने माउंट आबू शिविर के समय सड़क पर भीख माँगते लड़के को भी ओशो से संन्यास लेते देखा है वह तो यह समझ कर आया होगा कि उसे कुछ मिलेगा.
लेकिन ओशो ने उससे बड़े प्यार से उसका नाम पूछा और फिर उसके गले में माला डाल कर उसे संन्यास का नया नाम दिया भलिभाँति जानते हुए कि यह बस स्टेण्ड पर भीख माँगता है!
माउंट आबू के बस स्टेण्ड के पास ओशो कभी रुक कर सोडा वाटर पिया करते थे तब कुछ संन्यासियों की और राह चलते हुए कुछ लोगों की भीड़ भी वहाँ लग जाती थी ओशो को एंपाला कार में देखकर!
तो पूना में भी कुछ संन्यासी ऐसे रहे होंगे जो वहाँ ध्यान साधना या ओशो के प्रति प्रेम के कारण नहीं पर अपने किसी और मतलब से वहाँ टिक गये थे.
लेकिन ओशो का मतलब केवल एक ही था हमें जगाने का ध्यान से मौन से जोड़ने का एक बार ओशो ने अंग्रेज़ी के एक प्रवचन में कहा कि “यू मै हेव कम फोर अदर रीज़न बट आई एम कूकिंग समथिंग एल्स”. तुम यहाँ किसी और कारण से आये हो लेकिन मैं कुछ और ही तैयार करने में लगा हूँ.
कई संन्यासियों के मन में ओशो के निजी जीवन को लेकर बड़ी उत्सुकता थी. बहुत से विदेशी संन्यासी थैरेपिस्ट ग्रुप लीडर बनने के लिए ही वहाँ पर आये हुए थे.
कोई किसी विदेशी स्त्रियों के मिलने की सोचकर आ गया था तो वह अपनी तरफ़ से विदेशी स्त्रियों के साथ ही दोस्ती करने की कोशिश में लगा रहता.
उस वक़्त मशहूर फ़िल्म प्रोड्यूसर डायरेक्टर विजय आनंद और महेश भट्ट के साथ कुछ और लोगों ने भी संन्यास छोड़ दिया. शायद उनकी कोई मनोकामनाएँ पूरी नहीं हुई होगी.
ऐसे लोगों के लिए ओशो ने कहा होगा कि मेरे शरीर से विदा होने के बाद तुम कोई नया गुरू खोज लेना. क्योंकि ओशो ने किसी धर्म को या संगठन को स्थापित नहीं किया है.
प्रत्येक व्यक्ति को होश पूर्वक अपनी साधना में लगना इसमें आप किसी और अपेक्षा न करें इसलिए ओशो ने कोई ठोस नियम या अनुशासन नहीं दिये हैं कि सब संन्यासियों को मिलकर एक ठीक समय पर ध्यान करने के लिए इकट्ठे होना है.
जैसे मुसलमान ईद के दिन सड़कों पे या रेलवे लाइन पे हजारों की भीड़ लगा के थोड़ी सी देर में नमाज़ अदा कर देते हैं. ऐसी औपचारिक दिखावे से जीवन में शांति के आनंद के करुणा के फूल नहीं खिलते. यह सौदा इतना सस्ता नहीं है कि कलमा पढ़ा और मुस्लिम हो गये और सब अल्लाह के ऊपर छोड़ दिया.
किसी विश्वास या मान्यता का दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है ओशो के पास. जिन संन्यासियों के अंतर्मन में कोई दुविधा हो जिनके हृदय में ओशो के प्रति गहन प्रेम जैसी कोई घटना नहीं घटी हो, जिस व्यक्ति को ओशो के विडियो देखकर या ओशो के प्रवचन सुनकर अपने भीतर कोई तरंग महसूस नहीं होती हो, जिस के भीतर कोई मस्ती कोई दीवानगी कोई मतवालापन नहीं उमड़ता हो, वैसे व्यक्तियों को निश्चित ही कहीं और अपने गुरू को खोजने के लिए थोड़ा बहुत प्रयास करना चाहिए.
क्योंकि जब तक हृदय तरंगित नहीं होता हमें अपने आप में ही कुछ अजीब सा नहीं लगने लगता तो केवल बुद्धि से तो प्रेम को नहीं जाना जा सकता है न.
प्रेम तो बिलकुल सर से लेकर पाँव तलक हममें उमंग भर देता है हमारे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते, फिर चौबीस घंटे एक खुशी सी छाई रहती है हम पर. किसी के प्रति हमारा प्रेम केवल हमारा शरीर ही नहीं हमारे तन मन प्राण तक को आँदोलित करता है, हमें झकझोरने लगता है, हमें बार बार जैसे अपने प्रेमी या प्रेमिका की याद सताती है हम उसे भूलना चाहें तो भी नहीं भुला पाते. जरा जरा सी बात में हमारी आँखें डबडबा जाती है जब तक कुछ ऐसा अजूबा हमारे भीतर नहीं होता तब तक तो संन्यास लेना एक औपचारिकता ही होगा.
यह सोचकर कि चलो इतने संन्यासी मस्ती में नाचते गाते हैं भावविभोर होकर रोते हैं उनके चेहरे देखकर लगता है कि कुछ न कुछ इन्हें हो रहा है. तो चलो हम भी संन्यास लेकर देखते हैं शायद संन्यास लेने के बाद ही ऐसा होता होगा.
इस तरह कोई ओशो से जुड़ा हो तो फिर निश्चित ही उसे कहीं किसी और गुरू के पास जाना चाहिए या फिर उसे खूब सक्रिय ध्यान करना जरूरी है ताकि उसकी जड़ता उसका ठोस पन थोड़ा पिघले.
प्रेम तो बिलकुल स्वाभाविक घटना है वह तो ओशो की पुस्तक के दो चार पृष्ठ पढ़ कर ही एक दम से हृदय को झंकृत कर देता है.
मैंने ऐसे कुछ लोग देखे हैं मैं कई बार कुछ लोगों को ओशो की पुस्तक पत्रिका या कैसेट की कॉपी कर के भेंट दिया करता था. भारत में भी मैंने कई लोगों को ओशो की पत्रिकाएँ या पुस्तकें पढ़ने के लिये दी और जर्मनी में भी यहाँ इंगलैंड में भी अक्सर ओशो के प्रवचनों की केसेट मैं कई मित्रों को दिया करता था.
अधिकतर लोगों को ओशो के प्रवचन सुनके पढ़ के कुछ भी नहीं लगता लेकिन कुछ लोग तो एक कैसेट सुनने के बाद ही या एक पुस्तक पढ़ने के बाद ही मेरे पास आते और कहते मैं ओशो से मिलना चाहता हूँ.
मैंने कहा अब तो यह संभव नहीं ओशो को शरीर छोड़े काफी वक़्त हो गया तो वे कहते फिर मुझे ओशो के आश्रम में एक बार जरूर जाना है और वे अपने काम से एक महीने की छुट्टी लेकर पूना आकर संन्यास ले लेते और अपने आपको धन्यभागी समझते और खूब ओशो को सुनते ध्यान करते जब भी मिलते ओशो की ही बातें मुझे बताने लगते.
तो ऐसे व्यक्ति के भीतर ही उनके हृदय में ही प्रेम का सम्बन्ध ओशो से बना है वे अपने आप ही केवल कुछ शब्द सुनकर खिंचे चले जाते हैं. तो जबतक हमारे हृदय में हमारे भाव जगत में कोई हलचल न हो तबतक हमें सक्रिय ध्यान या कुंडलिनी या कोई और ओशो के ध्यान करते रहना चाहिए.
ओशो के ओडियो वीडियो प्रवचनों को सुनते रहना चाहिए ध्यान के द्वारा जब साफ़ सफाई होगी तो फिर हृदय तक भी बात पहुँचेगी ही. अगर कोई बुद्ध पुरुष नहीं मिले तो भी हमें ध्यान तो करते ही रहना चाहिये. चाहे किसी भी तरह से अन्य सदगुरूओं का साहित्य भी पढ़ते रहना चाहिए.
हो सकता हो कहीं और किसी से तालमेल बैठ जाये इतना अपने आपको खुला रखना चाहिए जब ठीक समय आयेगा तो हमें अपने भीतर ही पता चलने लगता है.
एक बार बुद्ध पुरुष से आँखें चार हुई तो फिर सारी दुनिया में कोई और गुरू या चमत्कारी बाबा तथाकथित पांडित्य आपको नहीं लुभा सकता और आपकी फिर कहीं किसी और के पास जाने की भी कोई इच्छा नहीं होती. लाख कोई प्रशंसा करे आप बिलकुल प्रभावित नहीं होते.
बुद्ध पुरुष का स्वाद उसका स्पर्श कुछ ऐसा है कि आपको अपनी संभावना नज़र आने लगती है तो आप अपनी पगडंडी पर निकल पड़ते हैं आपके भीतर एक चुनौति का जन्म हो जाता है फिर आप येन तेन प्रकारेण अपने को ही टटोलने में लगे रहते हैं ! एक ग़ज़ल पेश है !
ओशो की इक झलक ने दीवाना बना दिया
ज़िन्दगी की शम्मा का परवाना बना दिया
आदाब ए मयक़शी तेरी बज़्म ने सिखा दी
ऐसी पिलाई हम को कि मस्ताना बना दिया
सारे जहाँ में ओशो अब तेरा ही बोल बाला
मोहब्बत को ज़िन्दगी का पैमाना बना दिया
कोई माने या न माने पर हम यह जानते हैं
कि दैरो हरम को तूने अफ़साना बना दिया
उसी के हज़ारों रंग हैं उसी के अनंत रूप
इन्सानों का सभी से याराना बना दिया
काव्य संग्रह “तलातुम” से एक रचना !
दूसरा प्रश्न: यह संन्यासी लोग भी इतने जेलसी क्यूँ करते हैं समझ नहीं आया मेरी यात्रा में दूसरे क्यूँ इन्ट्रेस्टेड हैं – Bobby Anand
बॉबी आनंद
प्रेम प्रणाम
ईर्ष्या जेलसी तो प्रत्येक मनुष्य में कम ज़्यादा होती ही है चाहे वह ओशो का या किसी और गुरू का शिष्य हो या नहीं हो.
सारी दुनिया में प्रत्येक मनुष्य इसीसे पीड़ित है इसमें मात्रा का भेद हो सकता है गुण का नहीं! लेकिन जो ध्यान साधना के जगत में प्रवेश करता है उसे स्वयं में और अन्य लोगों में इसके प्रति बोध होने लगता है इसलिए वह स्वयं ही इस ईर्ष्या से मुक्त होना चाहता है.
लेकिन इससे दूसरों के ईर्ष्यालु स्वभाव में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता दुनिया भर में इसके प्रति अधिक लोग सजग नहीं होते.
फिर ईर्ष्यालु स्वभाव वाला व्यक्ति चाहे वह बाज़ार में हो चाहे वह राजनीति में हो चाहे वह संन्यासी हो जाये स्वयं का निरीक्षण करना सबसे मुश्किल काम है.
आप दूसरों की इतनी चिंता मत कीजिये बस अपनी धुन में अपने काम से काम रखें अगर किसी का संग साथ नहीं भाता है आपको तो छोड़ दें वहाँ उन लोगों के पास जाना.
आप अपने घर अपनी मौज मस्ती में रहिये. दूसरों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछना भी उचित नहीं है उनके बारे में सोच सोच कर आप अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ मत करें.
आप सारी दुनिया को नहीं बदल पायेंगे. कोई बुद्ध पुरुष भी यह कार्य करने में सफल नहीं हुआ आप अपनी फ़िकर करें. धन्यवाद
स्वामी कृष्ण वेदान्त