घूरा-चार : एक राष्ट्रीय त्रासदी, सरकार को चैये कि कोई GHIM एप्प डेवलप करे

हम आतंक, नक्सल, इस्लाम, महंगाई आदि राष्ट्रीय संकटों पर ध्यान देते रहते हैं लेकिन एक बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी को इग्नोर कर रहे हैं हम, यह शोचनीय है. वह है घूरा-चार.

सरकार को चाहिए कि जल्द से जल्द एक अध्यादेश लाकर घुरैती को राष्ट्रीय त्रासदी घोषित किया जाय.

एक तरफ दिल्ली जैसे लगभग अकेले खबर केंद्र में विज़िबिलिटी कम हो रही है वहीं घूरेबिलिटी बढ़ती जा रही है ऐसा फेसबुक पर अनेक बहन-जीयों ने जियो डाटा के माध्यम से मुखपोथी पर वर्णित किया है.

कैसा विरोधाभास है यह, जाने क्या हो गया है मौसम को – फॉग में भी घूरनीयता कम नहीं हो रही है. यह नीयत पर सवाल खड़े करता है.

सबसे पहले सरकार को चाहिए कि इस पर राष्ट्रीय बहस कराये. घूरा-चार को बीस सेकेण्ड तक सीमित करने के विधेयक को फिर से धो-पोछ कर सामने लाये.

साथ ही यह भी स्पष्ट किया जाय कि क्या यह 19.999 सेकेण्ड तक की सीमा दिन में एक बार के लिए ही है?

या एक बार अपलक निहार लेने के बाद, फिर बाद में निहारा जा सकता है? दूसरी बार निहारने में कितने क्षण का विराम लिया जा सकता है.

विराम के बाद फिर से घूरने की पात्रता कब हासिल होगी, इस पर भी मामला समूचा क्लियर हो.

फिर सड़कों पर, बाज़ारों में, उद्यानों में, वीरानों में, नगरों-महानगरों-कस्बों सब में एक ही सीमा रहे या अलग अलग हो, इस पर भी बात हो.

अधोहस्ताक्षरकर्ता यह सुझाव देता है कि घूरन प्रदूषण चूंकि दिल्ली में ज्यादा है तो वहां ऑड-ईवन भी ट्राय किया जा सकता है.

इस हेतु एक अनुज्ञप्ति (मने लाइसेंस) भी जारी करने की कृपा की जाय. उस लाइसेंस को आधार से लिंक भी किया जा सकता है. बस gst इसमें कम रखना होगा क्यूंकि काफी बेरोजगार लोग घूरन कार्य में संलग्न पाए गए हैं.

सरकार को चैये कि कोई GHIM एप्प जैसा कुछ डेवलप करे. वोटानुसार उस आवेदन (एप्लीकेशन) का नाम कुछ और भी रखा जा सकता है.

विराम के बाद भी घूरने का साप्ताहिक-मासिक या वार्षिक कोटा भी तय किया जा सकता है.

जैसे करवंचकों के सभी खातों में दर्ज तमाम पैराडाइज़/ पनामा पैसों पर सरकार की सीधी नज़र है, जैसे वह उसे घूर रही है वैसे ही हर ‘घूरन’ तक सरकार की पहुंच सुनिश्चित हो.

हर घूरन पात्र व्यक्ति को एक मासिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य हो. रिटर्न डिजिटल और भुगतान कैशलेस की अनिवार्यता हो.

इसपर निगरानी हेतु एक कमिटी गठित की जाय जिसमें सर्वसुश्री विद्या जी बालन, स्वरा जी भास्कर, स्वाति जी मालीवाल समेत कुछ और सज्जनियों को आजीवन सदस्य बनाया जाय.

कमिटी में एक महिलावादी पुरुष अनिवार्य रूप से रखा जाय. सदस्य की महिला मामलों पर अतिरिक्त पकड़ हो. इसके अलावा एक समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ता तथा कर्त्री भी इसमें शामिल हों यह संवेदनशीलता के हित में होगा.

स्थिति की विकरालता को देखते हुए जल्द ही एक अंतरराष्ट्रीय ‘घूरन निषेध दिवस’ की घोषणा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को जल्द ही प्रस्ताव भेजा जाय. इस काम के लिए विदेशी लॉबी’इंग का काम बिल क्लिंटन को सौंपा जा सकता है, वे अभी खाली भी हैं.

जैसे नक्सल आदि मामले में सेना का प्रवेश निषेध है ऐसे ही इस संकट से निबटने में सेना की मदद बिल्कुल नहीं ली जाय. विद्या जी की कमिटी के आदेशानुसार कोई अलग बल गठित की जा सकती है.

अंतरराष्ट्रीय मोर्चों के बाद शासन का ध्यान इस मामले में आन्तरिक सुरक्षा पर भी रहे. लोकभाषाओं में ‘घूरन’ शब्द के अनेक अर्थ हैं, ऐसे द्विअर्थी शब्दों पर प्रतिबन्ध लगे. जैसे लोग कहते हैं कि- कभी ‘घूरे’ के भी दिन फिरते हैं. इसका भावार्थ स्पष्ट हो.

हम सब जानते हैं कि इस ठण्ड में हम घूरे के माध्यम से हाथ सेंकते हैं जबकि विद्या वाली घूरन से आंख सेका जाता है. तो अलग-अलग अर्थों में भी अंततः मुआमला सेंकाई का ही है सो इस पर भी रोक लगे. आगे से आग वाले घूरे को केवल अलाव कहना एलाव (allow) हो.

इसी तरह ‘घूरना-फिरना’ भी अलग अर्थ रखते हुए भी सेम टू सेम है. अब इस शब्द का अर्थ भी पर्यटन नहीं बल्कि, आवारागर्दी माना जाय जहां सड़क नापते हुए लोग घूरन वृत्ति को अंजाम देते हैं. ऐसे तमाम शब्दों की पहचान कर उन्हें शब्दकोष से बाहर किया जाय.

घूरनाचार को मानवता के खिलाफ जघन्य अपराध घोषित किया जाय. मानवाधिकार संगठनों में अलग से एक घूरन चैप्टर क्रियेट किये जायें. इन तमाम कोशिशों से ही इस महामारी की रोकथाम संभव है.

इस दुर्दांत मामले पर देश का ध्यान दिलाने समेत अपनी ‘भूमिकाओं’ के लिए ‘डर्टी पिक्चर’ के स्क्रीनिंग दिवस की सालगिरह पर बालन मैडम को भारत रत्न देते हुए आगे उन्हें शांति-अर्थशास्त्र-साहित्य तीनों का नोबल एक साथ देने की सिफारिश की जाय.

पीड़ित मानवता अपनी इस महान नेत्री-अभिनेत्री के प्रति आभार प्रदर्शन, धन्यवाद ज्ञापन, शुकराना पेश करती है. अहसानमंद हैं हम भारत के लोग आपके प्रति. ठेन्कू.

विद्या बालन जैसी पक्की फसल को नहीं पचा सकते सोशल मीडिया के कच्चे दिमाग़

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