पॉलिटिकल करेक्टनेस और भक्त

2014 के बाद से ही वे कन्फ्यूज़ हैं. ये लिबरल-लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड है. मोदी, ब्रेक्जिट और फिर ट्रंप के स्टेज पर पदार्पण के बाद उन्हें लगता है कि दुनिया रहने लायक नहीं रही.

दर्द स्वाभाविक है क्योंकि खुद वे नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं. ये मंथन कर रहे हैं कि दुनिया को कौन सा रोग लग गया है.

हम जिस दुनिया में पले-बढ़े, उसमें हमारी चलती थी. अब तो लगता है कि ये End of Liberlism (उदारवाद का अंत) है.

पीड़ित सत्ताबदर समुदाय ने तमाम तरह के अंत की तरह उदारवाद के अंत की घोषणाओं की फ्रीक्वेंसी और डेसीबल बढ़ा दिया है.

मानवता, भाईचारा, अल्पसंख्यकों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब प्रतिक्षण खतरे में है, ऐसा वे बताते हैं.

इस लाउडस्पीकर पर ध्यान न दें. खतरा सिर्फ और सिर्फ बेचारे उस लिबरल को है जो दशकों से आत्मघाती रास्ते पर चल रहा था.

वामपंथी प्रचार का दबाव ऐसा कि मान लिया गया कि राष्ट्रराज्य का रास्ता हिटलर के गैस चेंबर की ओर जाता है.

पर उनके पास ये जानने का कोई रास्ता नहीं था कि iron curtain यानी लोहे के पर्दे के पीछे क्या चल रहा था. जब तक ये सच्चाई सामने आई पर्दे ने रंगरूप और धातु बदल लिया.

पर इसे शायद यहूदियों के जनसंहार का असर कहें कि कि उसके बाद के लिबरल विचार विमर्श में अल्पसंख्यक ऐसे पवित्र बन कर उभरे कि उनके खिलाफ कोई बात नहीं सुनी जाएगी चाहे उनमें सौ बुराइयां हों.

पर जिसने दस करोड़ लोगों को जबरिया अकाल रच के और गुलग जैसे कत्लखानों में मार दिया, वे अब भी मानवाधिकारों के सबसे बड़े पैरोकार! नमन है इन कलाकारों को.

वैचारिकी में पॉलिटिकल करेक्टनेस यहीं से विकसित होना शुरू हुई. अल्पसंख्यक पहले संरक्षित प्रजाति बने और फिर वोट बैंक.

और लिबरल यानी उदारवादियों ने खुद को एक विचारधारा के बजाय अपने आप में नैतिक सत्ता ही घोषित कर दिया.

मेरे भारत महान में गांधी जी, नेहरू जी, जेपी जी, लोहिया जी और तमाम तरह के जी सिर्फ नेता नहीं रहे बल्कि पूज्यनीय हो गए. इन पर सवाल उठाना आपराधिक कृत्य माना जाने लगा. आपस में इनके सारे खेल वैध हैं.

बाकी भड़ास निकालनी हो तो संघ, जनसंघ और भाजपा है ही- रोज़ पीटो, सांप्रदायिकता का संहार करो, हवा में तलवार भांज कर राज्यसभा की सीट और पद्मश्री ले लो. भारत में धर्मनिरपेक्ष राजनीति बस इतने तक सिमट गई.

भारत में लिबरल उदारवादियों के क्लब ने अपना गठबंधन खड़ा किया जहां कथित सांप्रदायिकता के खिलाफ वामीवादियों, समाजवादियों, गांधीवादियों और नेता, अफसर, ठेकेदार के कार्टेल (गिरोह) ने 80 फीसद की बात करने वालों को अवैध और आपराधिक घोषित करने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी.

इनकी खास बात यह थी कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में ये बड़े आराम से पाले बदल लेते थे. पर हर कलाबाज़ी सांप्रदायिकता के खिलाफ अनवरत संघर्ष के लिए ही होती थी. जय हो!

वैचारिक लड़ाई में विजित लिबरल पर जीत का खुमार उतरा नहीं है. पिछले 40 साल से वे यूरोप में अपना बहुराष्ट्रीय क्लब बनाने के प्रयास में हैं जिसे हम यूरोपीय समुदाय (ईयू) के नाम से जानते हैं.

इनकी शर्तें देखें. अमीरों के इस क्लब में अगर सम्मिलित होना है तो हमारे जैसा बनना है और दिखना पड़ेगा. आपको अपने देश में ही कुछ खास चीजों से जुड़ें सवालों पर बिलकुल चर्चा नहीं करनी है.

कुछ खास चीजें जो समस्या पैदा कर सकती हैं, उनकी ओर देखना भी नहीं है. देश भले ही आपका हो पर आपके लिए ये वर्जित क्षेत्र हैं. इनसे आंख मूंद लो.

ये मत कहना कि हम कैथोलिक या ईसाई देश हैं और अरबों को शरण देने से कतई मना मत करना. पोलैंड, हंगरी सांसत में हैं. पर ईयू में रहना है तो इतना पॉलिटिकली करेक्ट बनना है.

हमारे यहां बंटवारे और उसके बाद इस्लाम और मुसलमानों के मुद्दों पर बात करना अवैध है. जिसने की, वो भक्त हो गया. मैं उनमें से एक.

पर इन आभिजात्यों के आदेश का पालन नहीं हुआ. आम जनता को पता है कि ये अंग्रेजी-विदेशी अखबारों, दावोस क्लब और पांचसितारा होटलों वाले अमीर आभिजात्य वैश्विक भले हो गए हों पर अपनी जड़ों से उखड़ चुके हैं.

साझा विरासत को भूल चुके इन लोगों को जनता कैसे अपना मान लेती! जब तक संचार के साधनों पर इनका एकाधिकार था, तब तक लोगों को लगा कि ये विद्वान हैं और हम आम.

पर सोशल मीडिया के दौर में हमाम में सबके सामने नंगे हो हो चुके हैं ये विद्वान. अब व्यग्रता इस कदर है कि ट्रंप के ट्विटर एकाउंट को दस मिनट तक बंद कर देने वाले को लिबरल विद्वत परिषद अमेरिका का राष्ट्रीय नायक घोषित करती है तो मोदी की देशी शाल को किसी अतिशय महंगे फ्रेंच या इतालवी ब्रांड का बताने वाले सागरिका और राना अयूब धर्मनिरपेक्षता की भारतीय दीवार हो जाते हैं.

नित नए प्रहसन के साथ सामने वाले इन पॉलिटिकली करेक्ट लिबरल योद्धाओं से अपना अनुरोध तो यही है- प्लीज़ डोंट डू इट ऑन माय नेम- मैं हिंदू हूं, मुझे किसी से सहिष्णुता सीखने की आवश्यकता नहीं. और पॉलिटिकली करेक्ट डायलॉग तो पूरी तरह अनावश्यक हैं.

Comments

comments

LEAVE A REPLY