वो अक्सर कहता रहा
सबसे अच्छी मौन की भाषा
और मैं उस भाषा में भी शब्द पिरोती रही
कभी प्रेम के शिखरों से शब्दों को तोड़ लाती
कभी अवसाद की खाइयों से आंसू
कभी समंदर के तूफ़ान से उत्तेजनाएं
कभी नदी की कल कल ध्वनि से आज
मुझे आज ही सबकुछ पिरोना था उस मौन में
और उसे इतना भारी कर देना था कि
वो टूटकर मेरे अंतस में समा जाए
वो टूटा भी मुझ पर अपने पूरे वार के साथ
और नष्ट कर गया मेरे अतीत के कर्मों को
भविष्य के सपनों को
लेकिन दे गया है अक्षुण वर्तमान
जिसका बीतता एक एक पल
प्रवाहित होता है समय की नदी में
अतीत और भविष्य के घाटों पर
बंधी नावों को एक एक कर खोलते हुए…
मैं उस एक पल की साक्षी हूँ
जो अतीत और भविष्य के बीच सेतु है
जिस पर चलकर पार होता है जीवन..
मैं उस एक पल की साक्षी हूँ
जो उद्गम है
उन सारी लीलाओं का
जिसने जलाए हैं
अतीत के बही खाते
और मिटाई हैं
भविष्य की रूप रेखाओं को
मैं उस एक पल की साक्षी हूँ
जहां आत्मिक धैर्य
और मानसिक मौन का संगम होता है
जहाँ संवेदनाएं शब्दों में नहीं,
प्रकट होती हैं ऊर्जा के उर्ध्वगमन से…
और तोड़ लाती हैं
मौन के बादलों से
वो अंतिम बूँद
जो किसी के हलक पर टिकी
प्यास को परिभाषित करती है
किसी की पलकों पर
आशा की अंतिम किरण टीकाकार
उसके मस्तक पर विराजित तीसरे नेत्र को खोलती है
किसी की नासिका में
भर देती है गंध
सहस्त्र कमल की
किसी खोजी को दिखाती है
अंतिम राह
परमात्मा के झलक की
और किसी के शब्दों पर
उतरती है साक्षात मौन बनकर
और अंतस में समा जाती है
कुछ ऐसा ही अनुभव कर रही हूँ
मैं इस समय
कि यदि संसार को मेरे शब्दों की आवश्यकता नहीं
तो मैं समा जाऊं उस मौन की अंतिम बूँद में
जो महामाया की आँखों से
मुझ तुच्छ प्राणी पर करुणा बन बरस रहा है…
वो भी तो यही कहता है अक्सर
सबसे अच्छी मौन की भाषा…
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