पिछले भाग में जोड़ने लायक कुछ बात
‘शिया’ मुसलमानों का दूसरा सबसे बड़ा संप्रदाय है जो सुन्नी मत के बाद इस्लाम का सबसे बड़ा तबका है. आबादी के हिसाब से शिया मत मुसलमानों की कुल आबादी का केवल 15 प्रतिशत है.
इस फिरके को ‘शिया’ कहने की वजह ये है कि ये लोग ‘हज़रत अली’ के मानने वाले (शियाने-अली) हैं और उनको तमाम दूसरे सहाबियों से अफज़ल मानते हैं.
[ये अरब किस ओर, और क्यों जा रहा है? भाग-1]
शिया मत के उद्भव के पीछे की मूल वजह पैगंबर साहब के विसाल के बाद उपजा उत्तराधिकार युद्ध है. पैगंबर साहब अपना उत्तराधिकारी नहीं चुन पाये जिसने इस्लाम में विभाजन की स्थायी नींव डाल दी और उनके विसाल के मात्र 29 साल बाद ही इस्लाम बिखर गया.
चूंकि हजरत साहब अपना कोई उत्तराधिकारी छोड़कर गये नहीं थे इसलिये उनकी मौत के तुरंत बाद ही (यानि अभी उनके कफन, दफन की रस्म भी नहीं हुई थी) विरासत को लेकर झगड़ा शुरु हो गया.
[ये अरब किस ओर, और क्यों जा रहा है? भाग-2]
बहुमत इस पक्ष में था कि पैगंबर साहब के सबसे करीबी और अज़ीज़ दोस्त अबूबक्र खलीफा बनाये जायें, वहीं कुछ लोगों का मानना था कि नबी करीम के दामाद और भतीजे हज़रत अली को ही खलीफा बनने का हक है.
जो लोग हज़रत अली के पक्ष में थे वो शियाने-अली (शिया) कहलाये. शिया लोगों की इच्छा (कि खिलाफत रसूल साहब के परिवारजनों को ही मिलनी चाहिये) पूरी नहीं हुई और खिलाफत हज़रत अली की जगह हज़रत अबूबक्र को मिल गई.
इतना ही नहीं हज़रत अली को खिलाफत उसके बाद भी नसीब नहीं हुई. हज़रत अबूबक्र के बाद हज़रत उमर और फिर हज़रत उस्मान के बाद ही उनका नंबर आ पाया इसलिये खिलाफत का मसला शिया और सुन्नियों के बीच अदावत की सबसे बड़ी वजह बनी.
यह अदावत इतनी ज्यादा है कि बहुसंख्यक शिया लोग पहले तीन खलीफा को मानने से इंकार करते हैं. खिलाफत की गिनती वो हजरत अली से आरभ करते हैं तथा प्रथम तीन खलीफाओं (हज़रत अबूबक्र, हज़रत उस्मान व हज़रत उमर) को खिलाफत का गैरवाजिब प्रधान मानते हैं.
शिया अनुयायियों का बहुमत मुख्य रुप से ईरान, इराक, बहरीन, अजरबैजान, पाकिस्तान, भारत, अफगानिस्तान, सीरिया, कुवैत, तुर्की, ओमान, यमन आदि देशों में है. ईरान अकेला देश है जहां शिया राजधर्म के रुप में प्रतिष्ठित है.
कई दफा शिया को राफज़ी नाम से भी पुकारा जाता है. शिया समुदाय के भी मुख्यतः तीन उपखंड हैं- बारहबारी, इस्माइली, और जैदी. इसके अलावा इसके कई और फिरके और उप-फ़िरके भी हैं.
शिया-सुन्नी विभेद के मूल कारण
झगड़े के जड़ में कई कारण हैं जिसमें सबसे मुख्य ये है कि ‘रसूल साहब’ ने अपने आखिरी हज़ (जिसे हज्जतुल-विदा कहते हैं) के दौरान ख़ुम्म सरोवर के किनारे अपना एक उपदेश (ख़ुत्बा) दिया था और तकरीबन एक लाख से अधिक लोगों को संबोधित किया था.
शिया मान्यता है कि इस ख़िताब के दौरान ही उन्होंने अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था पर सुन्नी ऐसा नहीं मानते. उनके अनुसार पैगंबर साहब ने ‘हज़रत अली’ की प्रशंसा मात्र की थी, न कि उन्हें अपना वारिस बनाया था.
शियाओं का यह भी मानना था कि कुरान में अली को खिलाफत देने का स्पष्ट उल्लेख था जिसे सुन्नियों से चालाकी से किताब से निकाल दिया. दोनों पक्षों का मुख्य मतभेद इन्हीं बातों से है.
ख़ुम्म खुतबे के बाद से ही रसूल साहब बीमार रहने लगे और कहा जाता है कि जब उनका आखिरी वक्त करीब था तो उन्होंने पास मौजूद सहाबियों से कहा कि वो उन्हें कागज और दवात दे दें ताकि वो उन्हें ऐसा नाविश्ता दे दें जिससे वो बाद में भटके नहीं. हज़रत उमर, जो वहीं मौजूद थे, ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया (देखें सहीह बुखारी).
शियाओं का दावा है कि मृत्यु पूर्व रसूल साहब ने सबको युद्ध पर जाने के लिये निर्देशित किया था पर हज़रत अली को छोड़कर बाकी प्रमुख सहाबियों में से कोई भी वहां नहीं गया.
उन्हीं लोगों ने अली की गैरहाजिरी में रसूल साहब को इस डर से उत्तराधिकार नोट लिखने नहीं दिया कि कहीं वो हज़रत अली को अपना वारिस न बना दे और फिर उनकी मृत्यु के उपरांत उनके कफन-दफन के बजाय सकिफा नाम की जगह पर खलीफा चुनने के लिये सभा करने लगे.
स्वयं अबूबक्र खिलाफत पाने की कोशिश में मदीने पहुंच गये थे वहां उन्होंने बनी उमैया, बनी असद आदि कबीलों को अपनी खिलाफत के समर्थन में तैयार कर लिया था वहीं मक्के के ‘बनी हाशिम’ कबीले के लोग हज़रत अली के पक्ष में एकजुट थे.
यह झगड़ा प्रथम खलीफा-द्वय ‘हजरत अबूबक्र’ और ‘हज़रत उमर’ के बाद भी थमा नहीं. तीसरे खलीफा हज़रत उस्मान के समय का पूरा वाकिया पिछले भाग में मैंने लिखा है.
मदीने में हजरत उस्मान को घेर लिया गया और एक दिन उनकी हत्या कर दी गई जिसके बाद हजरत अली समर्थकों को मौका मिल गया और 656 ईसवी में हजरत अली किसी तरह खलीफा चुन लिये गये.
अली विरोधियों ने मांग शुरु कर दी कि हजरत उस्मान के कातिलों को सज़ा दी जाये. रसूल साहब की बीबी आएशा के नेतृत्व में हज़रत अली के विरोधियों ने गुट बना कर उनसे युद्ध किया जिसे तारीख में जंगे-जुमल (ऊंटों की लड़ाई) के नाम से जाना जाता है.
इस युद्ध के पश्चात् हज़रत अली को हज़रत अमीर मुआविया (जो हजरत उस्मान के रिश्तेदार थे और उमैय्या खानदान से थे) से भी सिफ्फीन में जंग करनी पड़ी. 661 ई. में कूफा की एक मस्जिद में हज़रत अली की भी हत्या कर दी गई. जिसके बाद हजरत अमीर मुआविया ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया.
लेख जिस विषय पर है वो इसके बाद के घटनाक्रमों पर अवलंबित है, फिलहाल उपरोक्त जानकारी भी पूरे संदर्भ को समझने में सहायक होगी.