युद्धशाला में अपने रथ की प्रतीक्षा करते हुए द्रोण अत्यधिक क्रोधित थे. उन्हें राज्यसभा में मंत्रणा के लिए बुलाया गया था.
यद्यपि वे अधिकांशतः युद्धशाला में ही रहते, उनका मुख्य कार्य विभिन्न राजकुलों या युद्धविद्या के इच्छुक राज्य के नागरिकों के बालकों तथा हस्तिनापुर की सैन्य वाहिनियों को प्रशिक्षण देना था, परन्तु उनकी रुचि आर्यावर्त की राजनीति पर भी बनी रहती थी.
उन्हें सूचना मिली थी कि पांचालकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर चैत्रमास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा में निश्चित हुआ है, तथा द्रुपद ने आर्यावर्त के साथ ही बाहर के भी शक्तिशाली नरेशों को इसमें भाग लेने का निमंत्रण दिया है.
कदाचित मिथिलाकुमारी सीता के बाद यह पहला स्वयंवर होगा जिसमें आर्यों के साथ गन्धर्व, यक्ष, देव, नाग सहित अन्य प्रजातियां भी आमन्त्रित की गई थी.
परन्तु उन्हें इसका विश्वास नहीं था कि निमंत्रण यहां, कुरु साम्राज्य में भी आएगा. कुरुओं और पांचालों की शत्रुता तो पीढ़ियों से चली आ रही थी और स्वयं उनके इस राज्य में आ बसने से यह अग्नि और तीव्र ही हुई थी.
निश्चित ही इसी विषय पर मंत्रणा के लिए पितामह ने प्रमुख मंत्रियों को बुलाया हो, परन्तु द्रोण के मन में यह निश्चित मत था कि कौरवों को यह निमंत्रण ठुकरा देना चाहिए. जब वे राजसभा पहुंचे तो उन्होंने राजा धृतराष्ट्र, महामहिम गांगेय भीष्म, युवराज दुर्योधन, राजकुमार दुःशासन, उतावले कर्ण, कपटी शकुनि और वृद्ध मंत्री कुणिक को अपने-अपने आसनों पर बैठा देखा. प्रधानमंत्री विदुर की अनुपस्थिति पर विचार करते हुए उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया.
कुणिक ने अब तक हुई बातों का सारांश बताया, फिर कहा, “आचार्य, मेरा मानना है कि शत्रु कुल की कन्या का पाणिग्रहण करना उचित नहीं. क्योंकि कन्या चाहे सीधी हो या चतुर, वह अपने पति तथा उसके परिवार को प्रभावित करती ही है, फिर द्रौपदी तो साक्षात अग्नि है. पांचाल से हमारी शत्रुता बहुत पुरानी है, उसका इस राजपरिवार में आना किसी भांति सही नहीं होगा. महाराज भी मुझसे सहमत है.”
दुर्योधन सर्प की भांति बोल पड़ा, “आपने कुरु राजकुमारों को मिट्टी का पुतला समझ रखा है क्या जो अपनी पत्नियों को वश में नहीं कर सकते. महाराज, हमें वहां जाना ही चाहिए. शत्रुता सदैव नहीं चल सकती, इसपर तो पितामह भी सहमत होंगे. द्रुपद जैसे शक्तिशाली नरेश से सम्बन्ध हो जाने पर हस्तिनापुर की शक्ति बढ़ेगी ही.”
धृतराष्ट्र असमंजस में थे, “परन्तु पुत्र, ये तो स्वयंवर है. तुम तो इतनी निश्चिन्तता से कह रहे हो जैसे वह किसी ना किसी कुरुकुमार का ही वरण करेगी. यदि उसने तुम लोगों को नकार दिया तो क्या ये हस्तिनापुर का अपमान नहीं होगा”.
फिस्स की हँसी के साथ शकुनि ने महाराज को टोकते हुए कहा, “अरे भरतश्रेष्ठ, आप भी कैसी बात करते हैं. भला पूरे आर्यावर्त में युवराज से अधिक वीर तथा सुदर्शन युवक है भी जो द्रौपदी किसी अन्य को वरमाला पहनाएगी. और चलिए मान लिया कि ऐसा हो भी जाये, तो भी इसमें अपमान की क्या बात हो सकती है भला. अब वह सबको ही तो नहीं चुन सकती ना. तो जिन्हें नहीं चुना, क्या उनका अपमान हो गया.”
पितामह की तीक्ष्ण आंखों ने शकुनि को चुप करा दिया. लार बहाते अंधे राजा ने अनुमान से द्रोण की ओर देखकर कहा, “आचार्य द्रोण, आपका क्या विचार है?”
द्रोण कहने ही वाले थे कि यदि कुरुकुमार स्वयंवर में भाग लेते हैं तो वे हस्तिनापुर का त्याग कर देंगे, कि विदुर ने सभा में प्रवेश किया और पितामह के कानों में कुछ कहा जिसपर उन्होंने सिर हिलाकर सहमति व्यक्त की. पितामह ने राजा को सम्बोधित करते हुए बोले, “महाराज, विदुर अपने साथ शूरनायक देवभाग के पुत्र उद्धव को लाये हैं. उन्हें प्रवेश की अनुमति दीजिये.”
“परन्तु पितामह”, दुर्योधन बोल पड़ा, “हम यहां आवश्यक मंत्रणा कर रहे हैं. उद्धव प्रतीक्षा कर सकते हैं.”
“आप अभी युवराज हैं दुर्योधन, आपने सुना नहीं कि मैं महाराज से संबोधित हूँ? तनिक धैर्य सीखिए आप. और उद्धव हमारी इस मंत्रणा से सम्बंधित ही कोई सूचना लाये हैं. ये मत भूलिए कि उद्धव कोई छोटे-मोटे सरदार नहीं हैं जिन्हें प्रतीक्षा करवाई जाए.”
महाराज ने उद्धव को प्रवेश की अनुमति दी. उन्होंने सबको समुचित अभिवादन पश्चात कहा, “महाराज, मैं आज कई लोगों का दूत बनकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ.”
पितामह ने प्रश्न किया, “द्वारिका में सब कुशल तो है ना? उद्धव, आप दूत बनकर आये हैं तो अवश्य ही कोई अतिमहत्वपूर्ण बात होगी, किस-किस के दूत हैं आप?”
“पितामह, मैं द्वारिका से नहीं अपितु अपनी ससुराल नागराज कर्कोटक के राज्य से आ रहा हूँ. मैं वासुदेव कृष्ण तथा बलराम सहित पुष्कर के निर्वासित राजा चेकितान का दूत हूँ. राजा चेकितान को शरण देने वाले तथा अपने श्वसुर नागराज कर्कोटक का भी सन्देश है मेरे पास.”
महाराज की अनुमति मिलने पर उद्धव ने कहा, “महाराज, द्रुपद कन्या द्रौपदी के स्वयंवर में सम्मिलित होने सभी यादव अतिरथी काम्पिल्य जा रहे हैं. बलराज जी की इच्छा है कि इस लंबे मार्ग में वे पुष्कर में पड़ाव डालें. कृष्ण का कहना है कि राजा चेकितान को यादवों का स्वागत करना चाहिए. चूंकि पुष्कर पर अभी कौरवों का शासन है, तो ये उनकी प्रार्थना है कि पुष्कर का राज्य राजा चेकितान को लौटा दिया जाए.”
दुर्योधन भड़कते हुए बोला, “क्या? पुष्कर लौटा दें? हमने उसे बाहुबल से जीता है. हम उसे क्यों लौटाए?”
उद्धव ने मुस्कुराते हुए कहा, “युवराज, मुझे कह लेने दीजिये. अंतिम निर्णय तो आप लोगों को ही करना है ना. तो महाराज, राजा चेकितान का संदेश पितामह भीष्म के लिए है कि हे पितामह, आप स्वयं धर्म हैं. मैं सदैव ही हस्तिनापुर का मित्र रहा, मेरी तरफ से कभी भी कोई उकसावे वाली कार्रवाई नहीं की गई, इसके पश्चात भी विगत वर्ष मुझसे मेरा राज्य छीन लिया गया. मुझे तथा मेरी प्रजा को राजा कर्कोटक के राज्य में शरण लेनी पड़ी. अब यादवगण पुष्कर होते हुए पांचाल जाना चाहते हैं. मुझे उनका स्वागत करना ही चाहिए. हे पितामह! मुझे मेरा राज्य लौटा दें, जिससे मैं उनका यथोचित स्वागत कर सकूं. इसके अतिरिक्त मैं स्वयं स्वयंवर में भाग लेना चाहता हूं. बिना राज्य के किसी राजा का क्या मूल्य? मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरे साथ न्याय करेंगे.”
द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित थे. कृष्ण यहां भी चमत्कार कर रहे थे. बिना किसी युद्ध के पुष्कर वापस ले लेना, आश्चर्य ही तो था. उन्होंने कहा, “और नागराज कर्कोटक का क्या सन्देश है उद्धव?”
“आचार्य, कर्कोटक के पुत्र मणिमान भी राजा चेकितान के साथ यादवों के स्वागत तथा द्रौपदी के स्वयंवर के अभिलाषी हैं. वे भी पुष्कर में चेकितान के साथ यादवों से मिलेंगे और फिर उनके साथ ही काम्पिल्य प्रस्थान करेंगे.”
बहुत देर से चुप बैठे कर्ण से नहीं रहा गया, क्रोधित स्वर में बोले, “महाराज, ये क्या हो रहा है? क्या कुरुओं की सभा में हमें धमकियां दी जा रही हैं कि पुष्कर लौटा दिया जाए? वहां कृष्ण अपने अतिरथियों के साथ आएंगे, चेकितान तथा मणिमान अपनी सेनाओं सहित उनसे मिलेंगे. क्या ये हमारे साथ युद्ध का शंखनाद नहीं है?”
“हाँ पिताजी”, दुर्योधन बोला, “ये युद्ध की खुली धमकी है. रही यादवों के स्वागत की बात, तो क्या कौरव उनका स्वागत नहीं कर सकते? हम पुष्कर वापस नहीं करेंगे. अगर उन्हें युद्ध करना हो तो हम सज्ज हैं.”
द्रोणाचार्य बहुत तीव्रता से सोच रहे थे. कृष्ण ने अच्छी चाल चली है, पर वे उनके मित्र हैं, उन्होंने शिखंडी को उनके पास भेजा. भविष्य में वे कृष्ण का पूरे आर्यावर्त में प्रभाव देख रहे थे. दुर्योधन वैसे भी हठी और अविवेकी है. उन्होंने दुर्योधन को पाठ पढ़ाना निश्चित कर लिया और गुरु के अधिकार से बोले, “बिना विचार किये बोलना तुम्हें शोभा नहीं देता दुर्योधन. तुम तो द्रौपदी के स्वयंवर में जाना चाहते हो ना, तो क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि यादव, चेकितान और मणिमान भी वहीं जा रहे हैं. सनातन नियम के अनुसार स्वयंवर में जाते राजाओं से युद्ध करना अधर्म है, और यदि कोई ऐसा अधर्म करे तो अन्य सभी राजाओं का दायित्व है कि इस अधर्म का प्रतिकार करें. तुम और तुम्हारे सभी मित्र कितने भी शक्तिशाली हों, समूचे आर्यावर्त पर विजय नहीं प्राप्त कर सकते.”
दुर्योधन क्रोधित होकर बोला, “तो क्या आप युद्ध नहीं करेंगे?”
“नहीं, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो करो परन्तु याद रखो कि पुष्कर जैसे नगण्य राज्य के लिए साम्राज्य के सैनिकों का रक्त और नागरिकों का धन व्यय करना बुद्धिमानी नहीं है.”
पितामह बहुत देर से अपनी श्वेत और लंबी दाढ़ी सहला रहे थे, अपने अभ्यास के अनुसार उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाया, जिसका अर्थ था कि निर्णय लिया जा चुका है और सब ध्यान से सुनें. जब वे बोले तो जैसे कोई आकाशवाणी हो रही हो, “युवराज, आचार्य का कथन सत्य है. विगत वर्ष पुष्कर को जीतना अधर्म था, चेकितान को उसका राज्य वापस मिलना चाहिए. स्वयंवर में जाते राजाओं से युद्ध का अर्थ है कि स्वयंवर के प्रतिद्वंदियों की हत्या का प्रयास, जो अधर्म है. तुम्हें क्या लगता है कि इसके पश्चात कोई भी आर्यनारी तुम्हें स्वयंवर में स्वीकार करेगी?
और आचार्य द्रोण, मैं जानता हूँ कि आप व्यक्तिगत कारणों से काम्पिल्य से वैवाहिक सम्बंध नहीं चाहते, परन्तु मैं चाहता हूं कि आप अपने शिष्यों को स्वयंवर में जाने की अनुमति दे दें”.
द्रोण पहले ही इसपर विचार कर चुके थे, बोले, “यदि आप यही चाहते हैं तो क्या आप मुझे अनुमति देंगे कि मैं पुष्कर जाकर हस्तिनापुर के प्रतिनिधि के तौर पर चेकितान को उसका राज्य लौटा दूँ, और उसके साथ हस्तिनापुर की ओर से यादवों का स्वागत करूँ?”
“निश्चित ही आचार्य, यह अत्यंत शुभ होगा.”
——————-
आचार्य जब अपने निवास वापस आये तो भानुमति को बड़ी व्यग्रता से अपनी प्रतीक्षा करता हुआ पाया. भानुमति के पिता काशी के राजा, द्रोण के घनिष्ट मित्र थे. दुर्योधन की प्रथम पत्नी तथा भानुमति की बड़ी बहन की अपने प्रथम प्रसव में नवजात के साथ ही मृत्यु हो गई थी. द्रोण ने ही भानुमति का विवाह दुर्योधन से करवाया था. भानुमति को देखकर द्रोण का कठोर मन पिघल जाता, वे उसे अपनी ही पुत्री मानते, भानुमति भी बेटी के अधिकार से उनके घर आती रहती थी.
द्रोण को देखते ही भानुमति माता कृपी की गोद छोड़ उनकी तरफ लपकी और उनका हाथ पकड़ कर बोली, “तात, राजसभा में क्या निर्णय लिया गया? क्या मुझे सौतन का मुंह देखना होगा? आर्यपुत्र मुझसे बहुत प्रेम करते हैं पर राजनन्दिनी कृष्णा के समक्ष मुझे कौन याद रखेगा.”
द्रोण कुछ पल समझ नहीं पाए कि इस बच्ची को कैसे सात्वना दें, फिर उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले, “भानु, निर्णय हुआ है कि युवराज, विकर्ण, युयुत्सु सहित बीस कुमार काम्पिल्य जाएंगे. पर तू चिंता ना कर, मुझे विश्वास है कि उनमें से कोई भी द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा”. द्रोण जानते थे कि महान धनुर्धर सात्यकि, खड्गधारी कृतवर्मा, गदायुद्ध में निष्णात बलदेव तथा सभी कलाओं में प्रवीण उद्धव सहित अन्य यादव वीरों के रहते इसकी संभावना नगण्य थी कृष्णा किसी कुरुकुमार का चयन करें.
उन्होंने कुछ विचार कर कहा, “भानु, तूने कहा था कि वासुदेव तुझे बहन मानते हैं? तो बेटी, अगर तू निश्चिंत होना चाहती है तो मेरे साथ पुष्कर चल, और उनसे अपनी बात कह. मुझे विश्वास है कि यदि उन्होंने वचन दे दिया तो चाहे सृष्टि इधर से उधर हो जाये, दुर्योधन द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा.”