एक कड़वी बात कहता हूँ. पहले भी कई आत्मीय जनों से कह चुका हूँ आज विस्तार से कहता हूँ. जिन्हें सही लगे उनका भला, जिन्हें गलत लगे उनका भी भला. पुरुषोत्तम नागेश ओक ‘इतिहासकार’ नहीं थे.
इधर उधर खोजने पर यही ज्ञात हुआ कि पी एन ओक मंत्रालय में एक सरकारी अधिकारी थे और पार्ट टाइम पत्रकारिता करते थे. उनकी शिक्षा एम ए, एल एल बी बताई जाती है. पूर्व में वे आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक भी रहे थे.
उन्होंने एक INSTITUTE FOR REWRITING INDIAN HISTORY की स्थापना की थी और अस्सी के दशक में हिस्ट्री पर एक जर्नल भी निकालते थे. आज इस संस्थान और पत्रिका की क्या स्थिति है यह कोई नहीं जानता.
इन सब क्रियाकलापों से पी एन ओक इतिहासकार सिद्ध नहीं होते. उनकी बात हम और आप मान सकते हैं लेकिन दुनिया नहीं मानेगी. क्यों नहीं मानेगी यह भी समझने की आवश्यकता है.
आज के समय में इतिहासकार किसे कहा जायेगा और इतिहास लेखन में किसका मत प्रामाणिक माना जायेगा यह दो भिन्न बातें हैं. इतिहासकार वह है जिसने इतिहास विषय में प्रशिक्षण प्राप्त किया हो अर्थात उस व्यक्ति के पास कम से कम इतिहास में पीएचडी होना आवश्यक है.
पीएचडी होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब आप पीएचडी करते हैं तो इतिहास लेखन के तौर तरीकों अर्थात ‘हिस्टोरियोग्राफी’ को अप्लाई करते हैं. जिस प्रकार से लोग सोशल मीडिया पर इतिहास बांचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि इतिहास लेखन हंसी खेल नहीं है.
इतिहास एक अकादमिक discipline है. जब तक आप Methods of Writing History से परिचित नहीं हैं तब तक आप घर के ही शेर रहेंगे, विश्व के शीर्ष अकादमिक संस्थान आपको इतिहासकार नहीं मानेंगे. इतिहास कई तरीके से लिखा जाता है. उदाहरण के लिए आर्थिक इतिहास, सामाजिक इतिहास, वास्तुकला का इतिहास, सांस्कृतिक इतिहास, विज्ञान का इतिहास आदि.
इतिहास लेखन में उनका मत प्रमाणिक माना जाता है जो स्वयं उस काल विशेष का हिस्सा रहे हों. जैसे कि विंस्टन चर्चिल अपनी जवानी में स्वयं एक सैन्य अधिकारी था और उसने द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैंड का नेतृत्त्व किया था इसलिए रिटायर होने पर जब उसने विश्व युद्ध का इतिहास लिखा तो उसकी सराहना, आलोचना दोनों हुई किन्तु चर्चिल के मत की प्रामाणिकता पर किसी ने संदेह नहीं किया.
इतिहास लेखन में ऐसे व्यक्तियों का मत भी प्रामाणिक माना जाता है जिनके पास इतिहास की डिग्री भले न हो किन्तु वे एक लेखक अथवा पत्रकार के तौर पर किसी विषय से लम्बे समय तक जुड़े रहे हों. उदाहरण के लिए श्री नितिन गोखले ने अपना पूरा जीवन डिफेंस पत्रकारिता को समर्पित कर दिया. इसलिए मिलिट्री हिस्ट्री पर उनकी लिखी पुस्तकें उतनी ही प्रामाणिक मानी जाती हैं जितनी सेना के किसी जनरल की.
पी एन ओक के बारे में ऐसी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्होंने इतिहास अथवा इतिहास-लेखन का वृहद् अध्ययन किया था. हाँ, इन्टरनेट पर उनके द्वारा स्थापित इंस्टिट्यूट के कुछ शोधपत्र उपलब्ध हैं जिनमें इक्का दुक्का प्रोफेसरों ने अपने विचार प्रकट किये हैं.
ताज महल पर अन्यत्र बहुत सी सामग्री उपलब्ध है जो बिखरी पड़ी है जिसके कारण यह मामला बहुत उलझा हुआ प्रतीत होता है. ऐसे में कोई भी वामपंथी इतिहासकार बड़ी सरलता से ‘तेजोमहालय’ की थ्योरी को कूड़ेदान में फेंकने की बात कह सकता है. यह ऐसा ही है जैसे आपके पास ढेर सारे मूल्यवान मोती हों परन्तु उन्हें पिरोने के लिए मजबूत धागा उपलब्ध न हो.
आज पी एन ओक को सीधा उद्धृत करने की अपेक्षा उस व्यक्ति की खोज और विचार पर गहन शोध करने की आवश्यकता है. यह कार्य विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले शोधकर्ताओं का है.
यह बात गलत है कि हजारों कॉलेज और सैकड़ों विश्वविद्यालय में पूरी तरह वामपंथी राज कायम है. दरअसल वामपंथी उन बड़े विश्वविद्यालयों में जमे हैं जहाँ जाने का सपना एक गाँव का विद्यार्थी देखता है. इसीलिए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि सब जगह वामी प्रलय आ गयी है.
वस्तुतः ऐसा नहीं है. कई कॉलेज और शोध संस्थान धन के अभाव में मारे जाते हैं. उन्हें राष्ट्रवादी चिन्तन वाले ट्रस्ट-थिंक टैंक इत्यादि स्वतंत्र छात्रवृत्ति के रूप में सहायता प्रदान कर सकते हैं.
यह भी किया जा सकता है कि हिस्ट्री में एम ए-एमफिल किये हुए विद्यार्थियों को कोई थिंक-टैंक अपने यहाँ रिसर्च असिस्टेंट रख सकता है. वह जो शोध करेगा उसे अकादमिक जगत में प्रामाणिक माना जायेगा. आज का शोधार्थी कल को छाती ठोंक कर रोमिला-हबीब गैंग के समक्ष कह सकेगा कि ताज महल के बारे में झूठ फैलाया गया था.
यही नहीं जब शोधार्थी थीसिस पूरी कर ले तब उसे पुस्तक का स्वरूप देकर प्रकाशित करवाया जाये ताकि भली भांति डॉक्यूमेंटेशन हो सके. उदाहरण के लिए राजस्थानी ग्रन्थागार ने अपने राज्य के लेखकों और अकादमिक चिंतकों की ढेर सारी पुस्तकें प्रकाशित करवाई हैं जिनमें हल्दीघाटी युद्ध के इतिहास के पुनर्लेखन पर कई विद्वान् एकमत नजर आते हैं.
इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता ताज महल के विषय में ही नहीं अपितु 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम पर भी है. भारत के इतिहास को वामपंथी जकड़न से मुक्त कराना है तो इसके लिए pseudo-scholarship अथवा छद्म बौद्धिकता से बचिए.
पी एन ओक की बात हम स्वीकार करें इससे अधिक जरूरी यह है कि उनका मत दुनिया स्वीकार करे. इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि हमारी आगे आने वाली पीढियां स्वीकार करें. सत्य की खोज में उन अस्त्रों का प्रयोग कम करें जिनका उपयोग वामपंथी आपसे ज्यादा अच्छी तरह करना जानते हैं.