एक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में दिग्गज़ कांग्रेसी नेता पृथ्वीराज चव्हाण को यह कहते हुए नोटबन्दी के खिलाफ तड़पते हुए देखा कि… प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध से पूरी दुनिया के लोगों को भी इतनी तकलीफ और कष्ट नहीं हुआ था जितनी पीड़ा और कष्ट लोगों को नोटबन्दी से हुआ.
संयोग से नोटबन्दी 15वीं या 16वीं शताब्दी में नहीं बल्कि केवल वर्ष भर पहले हुई थी और हमने आपने उसको भली भांति देखा सुना और भोगा है.
मैंने अपने घर में बर्तन मांजने सफाई करने वाली को, दैनिक मज़दूरी करने वाले उसके पति को, सड़क किनारे खोमचे में पान सिगरेट बेचने वाले को, रोजाना ठेले और साइकिल पर ला के घर-घर जाकर सब्जी बेचने वाले को, किराने की छोटी मोटी दुकान चलाने वालों को और नाऊ, दर्ज़ी, मोची, ऑटो ड्राइवर सरीखे दैनिक आय वाले लोगों को उन 50 दिनों में बहुत करीब से देखा.
मैंने, उनकी बातें भी सुनी, उनकी प्रतिक्रिया भी जानी थी. इसलिए आज जब पृथ्वीराज चव्हाण को नोटबन्दी की तुलना वर्ल्ड वॉर प्रथम और द्वितीय से करते हुए देखा सुना तो मुझे लगा कि सम्भवतः पृथ्वीराज चव्हाण या फिर पूरी कांग्रेस टाइम मशीन में बैठकर 100 साल पीछे (1914-1918, प्रथम विश्व युद्ध का कालखण्ड) पहुंच गई है.
या फिर रोज़ कमाने खाने वाले उन गरीबों, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है, उन लोगों को नोटबन्दी से चोट भले ही नहीं लगी हो (क्योंकि उनकी उस समय की प्रतिक्रियाएं मेरे मन मष्तिष्क में आज भी ताज़ा हैं) लेकिन नोटबन्दी से कांग्रेस को बहुत गहरी चोट अवश्य लगी है. पृथ्वीराज चव्हाण का उपरोक्त बयान तो यही सन्देश दे रहा है.
वैसे यह स्वाभाविक भी है. याद करिये 2G, CWG, कोलगेट, इसरो-देवास, अगस्टा वेस्ट लैंड घोटाले.
इन घोटालों में लाखों करोड़ की रकम किसने लूटा? किसकी शह पर लूटा? किसके सहयोग और संरक्षण में लूटा?
इन सवालों का जवाब पूरा देश जानता है. अतः ऐसे लोगों के लिए नोटबन्दी दोनों विश्व युद्धों से बड़ी विभीषका ही है.