माया ठगनी

एक स्कूल के आगे बस रुकी, लोकल बस
एक अध्यापिका चढ़ी

धीरे धीरे खिसक कर एक आदमी पास आया, भला चंगा लग रहा था
उस अध्यापिका से बात चीत करने लगा
जब वो उतरी तो उसके साथ ही हो लिया

कुछेक घंटों बाद कालोनी में ख़ूब शोर था
उसके सारे गहने ले गया
कैसे ले गया, लोगों ने पूछा, तुम तो ख़ुद उसको साथ ले कर आई थी…

मुझे कुछ नहीं पता चला, मैं तो यूँ जैसे उसके सम्मोहन में थी.
उसने कहा, तुम अपने सारे गहने एक पोटली में बाँध मुझे दो और मेरे सामने दस मिनट आँखें बंद कर बैठो.
मैं तुम्हें डबल कर लौटा दूँगा.

जब मैंने आँखें खोली तो न वो था न गहने
न जाने किधर गया, मिला ही नहीं.
ठग था, लोगों ने बताया.

मेरी बड़ी तमन्ना थी, मेरा अपना घर हो, ख़ूबसूरत सा, बेहद प्यार करने वाला पति हो, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरा हो, दो बच्चे हों, बेटा भी, बेटी भी ….ज़िंदगी कितनी अच्छी होगी न तब, बेहद ख़ूबसूरत…

माया ने कहा, तथास्तु!

बेटे ने कहा, घर मेरा ही तो है, अपने जीते जी मेरे नाम कर दो, मुझे बैंक से क़र्ज़ लेना है, ज़मानत के तौर पे चाहिए.

बेटी ने कहा, मेरा हिस्सा अपने हाथों से ही मुझे दे कर जाना, बाद में बड़ी मुश्किल होती है…
बाद में?

हाँ, बाद में

सब को जाना ही तो है एक न एक दिन…

पति ने कहा, अब तुम्हारा तो शरीर ही तुम्हारा साथ नहीं देता, मुझे तो कोई चाहिए ही.

यह तो बहुत पहले ही पता चल गया था, सारे का सारा कोई किसी का नहीं होता,
हर कोई सिर्फ़ अपना ही होता है.

माया ठगनी न जाने कब सब कुछ देने के लालच में उसे ख़ुद को उस से छीन ले गई.

कैसा माया जाल, कैसा ताना बाना…
वो सोच रही, ख़ुद के साथ अकेले बैठी.

शायद ज़रूरी भी था यह सब, नहीं तो समझ कैसे आती..
अब समझ आ गई क्या? आ गई तो कब तक रहेगी?

माया ठगनी मुस्कुरा रही पास ही खड़ी…………..

चातक, जो प्यासा रहेगा सावन में भी, पियेगा पानी तो स्वाति नक्षत्र का ही

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