The Terminal के बहाने… एक बार कभी फ्रांस के एअरपोर्ट पर कोई व्यक्ति फंस गया था. बाद में उसने किसी लेखक के साथ मिलकर अपनी कहानी भी लिखी थी. उसी घटना पर ये फिल्म भी आधारित है.
द टर्मिनल, स्टीवन स्पिल्सबर्ग की बनाई हुई है, और इसे टॉम हैंक्स की वजह से भी काफी पसंद किया गया. आलोचकों ने तो फिल्म को कोई ख़ास नहीं सराहा लेकिन दर्शकों ने फिल्म को काफी पसंद किया था.
फिल्म के लिए असली टर्मिनल पर शूटिंग करने की इजाजत मांगते स्पिल्सबर्ग कई जगह घूमते रहे, लेकिन जब किसी ने इजाजत नहीं दी तो उन्होंने इसे एक सेट पर फिल्माया.
अलग सेट होने के बाद भी इस फिल्म में एअरपोर्ट पर जो दुकानें वगैरह दिखती हैं वो असली हैं. कई बड़े ब्रांड जैसे, ब्रूकस्टोन, ला पर्ला, डिस्कवरी चैनल, बर्गर किंग, ह्यूगो बॉस वगैरह की दुकानें नजर आती हैं.
नकली सेट पर बनी इन असली दुकानों का बाद में क्या हुआ होगा पता नहीं. नायक के नयी भाषा सीखने के बारे में भाषाविद कहते हैं कि लोग सचमुच नयी भाषा ऐसे ही सीखते है.
टॉम हैंक्स बताते हैं कि ये किरदार निभाने के लिए वो अपने ससुर (जो कई भाषा जानते हैं) का चरित्र ध्यान रखते थे.
फिल्म की कहानी में एक विक्टर नाम का आदमी है जो किसी करकोझिया नाम के देश से न्यू यॉर्क आया है. जितनी देर में फ्लाइट से उड़कर वो जॉन ऍफ़. कैनेडी एअरपोर्ट के इमीग्रेशन तक पहुँचता, उतने में उसके देश में गृह युद्ध छिड़ चुका था.
अब अमेरिका में उसके पासपोर्ट की मान्यता नहीं, और युद्धग्रस्त क्षेत्र में उसे वापस भी नहीं भेज सकते तो वो एअरपोर्ट टर्मिनल पर ही फंस जाता है.
कस्टम के अधिकारी फ्रैंक डिक्सन, जो उसका पासपोर्ट-टिकट जब्त करता है, का प्रमोशन होने वाला है. वो कोई तिकड़म भिड़ा कर विक्टर से छुटकार पाना चाहता है.
दूसरी तरफ विक्टर जो ना एअरपोर्ट टर्मिनल से बाहर जा सकता है, ना उसे भाषा ठीक से आती है, ना वापस जा सकता है, वो अपने सूटकेस और एक टिन के डब्बे के साथ एअरपोर्ट पर फंसा, क्या करूँ किधर जाऊं, सोच रहा होता है.
धीरे धीरे दिखने लगता है कि विक्टर “बेचारा भला आदमी” टाइप का जीव है. टर्मिनल पर वो सभी छोटे मोटे स्टाफ की मदद करता रहता है. दुकानों में वो काम ढूंढ लेने की कोशिश भी करता है, ताकि किसी तरह गुजारा हो सके.
अपने देश में शायद विक्टर निर्माण की ठेकेदारी से जुड़ा था, यहाँ एक ठेकेदार चुपके से उसे टर्मिनल के एक छोटे से हिस्से को डिजाईन करने देता है.
एअरपोर्ट से अक्सर गुजरती एक फ्लाइट अटेंडेंट-एयरहोस्टेस अमेलिया, विक्टर को पसंद आने लगती है. लड़की को प्रभावित करने के चक्कर में विक्टर खुद को अक्सर सफ़र करता निर्माण से जुड़ा ठेकेदार भी बताता है.
थोड़े दिन में अमेलिया को डिक्सन सच्चाई बता देता है. अब जब लड़की पूछती है तो विक्टर बताता है कि वो टर्मिनल पर फंस गया है. वो अपना टिन का डब्बा अमेलिया को दिखाता है जिसमें जाज संगीतकारों का एक पोट्रेट होता है.
उसके पिता उस तस्वीर में मौजूद सभी संगीतकारों के हस्ताक्षर इकठ्ठा करना चाहते थे. एक आखरी 57वें का दस्तख़त बाकी था, लेकिन इस सेक्सोफोन वादक बैनी गोल्सन से मिलने से पहले ही उनकी मौत हो जाती है. मृत पिता की ख्वाहिश, वो आखरी दस्तखत लेने के लिए विक्टर न्यू यॉर्क आया था.
डिक्सन ने जो सोचा था, उसका उल्टा ही होता है. सच जानकार अमेलिया और उल्टा विक्टर की मदद करने पर ही तुल जाती है. उसकी जान पहचान एक बड़े नौकरशाह से थी, जो कुछ तरुण तेजपाल टाइप जीव था.
वो शादीशुदा था, इसलिए अमेलिया उस से बचती रहती है, लेकिन विक्टर के लिए मदद जुटाने के लिए वो शादीशुदा नौकरशाह के साथ निकल पड़ती है.
करीब नौ महीने टर्मिनल पर गुजार चुके विक्टर को एक दिन लोग बताते हैं कि उसके देश में युद्ध ख़त्म होने की खबर आ गई है और अब वो वापस जा सकेगा. उधर अमेलिया अपनी जानपहचान के जरिये, विक्टर के लिए एक दिन का वीसा जुटा लेती है.
कस्टम वाला डिक्सन इतने महीनों में विक्टर के ना परेशान होने से और भी चिढ़ गया होता है. वो किसी तरह विक्टर को ऑटोग्राफ लेने नहीं जाने देना चाहता था.
इसके लिए डिक्सन एक गुप्ता नाम के सफाई कर्मी को वापस भगा देने की धमकी देता है. गुप्ता कभी दशकों पहले भारत से चोरी छुपे आ गया था, और बरसों से टर्मिनल पर सफाई कर्मी (Janitor) था. कहीं बेचारे गुप्ता को उसके ऑटोग्राफ की सजा ना झेलनी पड़े इसलिए विक्टर अपना इमरजेंसी वीसा बर्बाद करने को भी तैयार हो जाता है.
लेकिन जिस जहाज में वो जा रहा होता है, बूढ़ा गुप्ता उसके सामने, रनवे पर, दौड़ लगा देता है. सजा के तौर पर गुप्ता तो गिरफ्तार होता है लेकिन हवाईजहाज के रुकने बदलने के क्रम में विक्टर को ऑटोग्राफ ले आने का मौका मिल जाता है.
फिल्म के अंत में गुप्ता को पकड़ कर वापस भेज दिया गया होता है. टर्मिनल के दूसरे छोटे कर्मचारी वहीँ काम कर रहे होते हैं. अमेलिया कहीं आगे के सफ़र पर निकल गई होती है. ऑटोग्राफ लेकर लौटता विक्टर टैक्सी वाले से कहता है, मैं घर जा रहा हूँ.
मेरी पोस्ट पढ़ने वाले ज्यादातर लोग अब तक मेरी धोखे से भगवद्गीता का कोई हिस्सा ठूंसने की आदत से वाकिफ होंगे तो शायद समझ भी लिया होगा कि फिर से वही किया है.
फिल्मों (ख़ास तौर पर अग्निपथ) के एक डायलॉग की वजह से प्रसिद्ध गीतासार पर आपका ध्यान चला गया होगा. फिल्म का नायक ना कुछ लेकर आया होता है, ना साथ ले जाने के लिए उसके पास कोई पैसे-शोहरत जैसी चीज़ होती है.
जो भी सम्बन्ध-दोस्ती उसने इन कुछ महीनों की कहानी में जुटाए वो उसी टर्मिनल पर बने और उन्हें वो वहीँ छोड़कर जा रहा होता है. फिल्म का अध्ययन करने वाले आपको हैरी पॉटर की फिल्म में एक ट्रेन स्टेशन दिखाने में भी इस दर्शन का साम्य दिखा देंगे.
यहाँ हम परिवर्तन के अनिवार्य होने जैसे किसी सार की बात नहीं कर रहे हैं. गीतासार के नाम पर जो प्रचलित है उसका ज्यादातर हिस्सा आपको अट्ठारहवें अध्याय में मिल जाएगा. ये थोड़ा बड़ा अध्याय है, बाकियों की तरह करीब पचास श्लोक में ख़त्म नहीं होता.
दूसरे अध्याय की तरह ये भी सत्तर श्लोक से ऊपर चला जाता है. बाकी की पूरी भगवद्गीता जैसा ही इसमें भी ज्यादातर (उनसठ) श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं. यहाँ पैंतालिसवें श्लोक से श्री कृष्ण कर्म की महत्ता बता रहे होते हैं. अड़तालीसवें श्लोक में वो कहते हैं :
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्.
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः..18.48
यहाँ श्री कृष्ण बता रहे हैं कि जैसे आग होगी तो धुंआ भी होगा ही, वैसे ही चाहे कोई भी कर्म करो उसमें कोई ना कोई दोष होता ही है, लेकिन इसकी वजह से कर्मों का त्याग नहीं किया जाता.
जैसे इस फिल्म वाला गुप्ता नाम का भारतीय किरदार, वो अमेरिका कैसे पहुंचा वो गौण है, वहां वो सफाई कर्मी की नौकरी कर रहा होता है. प्लेन के आगे उसका दौड़ जाना भी गैर-कानूनी था, उसकी उसे सजा भी मिलती है. इनमें से हर कर्म किसी ना किसी तरीके से दोषयुक्त कहा जा सकता है, लेकिन ये वो ना करे, ऐसा नहीं कहा जा सकता. बिलकुल यही दूसरे छोटे किरदारों के काम में भी दिख जाएगा और नायक-नायिका में भी.
नायिका के जिस नौकरशाह से सम्बन्ध थे, उसे सही नहीं कहा जा सकता. उसने जिस इरादे, जिस उद्देश्य से सम्बन्ध बनाए उसके बारे में भी कहना मुश्किल है. नायक अपने ऑटोग्राफ का मोह छोड़ के जो वापस जाने की कोशिश करता है, फिर उसकी कोशिश का कोई फायदा भी नहीं होता, नतीजा वही निकलता है.
इसलिए वो सही कर रहा था, उसमें कोई बेवकूफी या गलती नहीं थी ये भी नहीं कह सकते. हां पूरे प्रकरण को देखकर आप ये कह सकते हैं कि भविष्य आपने देखा नहीं तो किसी चीज़ के सही गलत, नैतिक-अनैतिक, हिंसक-अहिंसक होने का फैसला सुनाने वाले आप खुद कोई न्यायाधीश नहीं हैं. इसलिए फैसला सुनाने नहीं बैठना चाहिए.
जैसे इस श्लोक में कर्म छोड़ने की बात नहीं हो रही है, वैसे ही इसके बाकी के (दूसरे-तीसरे अध्याय के) सम्बंधित श्लोकों में भी कहीं कर्म त्याग कर सन्यासी होने नहीं कहा जा रहा होता.
भगवद्गीता पढ़कर संन्यास जैसा कुछ कहना एक सेक्युलर धूर्तता से ज्यादा नहीं है. श्री भगवान् उवाच वाले श्लोकों को कभी भी मोटिवेशनल स्पीच के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. हरी एक विष्णु का नाम है (जैसे हर शिव का) इसी लिए शायद “हारे को हरिनाम” जैसी कहावतें भी आई होंगी. शायद कभी हतोत्साहित लोगों को उनके गुरु-कोई साधू, भगवद्गीता सुनाने बैठ जाया करते होंगे.
बाकी ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा?
Before Sunrise के बहाने : अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्