बात पुरानी है, जब मैं बी/4, यूनिवर्सिटी कैंपस ए बी रोड, इन्दौर में रहता था.
यूनिवर्सिटी की कार्य समिति में सदस्य बनते ही यूनिवर्सिटी के कई अधिकारी और कर्मचारी पता नहीं क्यों बहुत ही अधिक कृपावन्त हो गए.
आए दिन खैरियत के हाल चाल पूछना, बच्चों के बारे में जिज्ञासा और तारीफों के पुल सुन सुन कर उनके वाक्य मुझे रटन में आ गए.
कोई सलाम करता और मेरे मुंह पर उसके मुंह से निकलने बाले शब्द वाक्य पहिले ही हौंठो पर आने लगते थे.
मैं पत्नी से बोलता कि देखो यह प्राणी अब यह बोलने वाला है ‘सर घर में बडे भैया कैसे हैं, सर सच में आप भाग्यवान हैं बहुत होशियार हैं, आपके गुण आए हैं सर.’
जब सज्जन हूबहू यही वाक्य दुहरा देते तो पत्नी धीरे से फुस्फुसाकर पूछती ‘आपको कैसे पता यह आदमी यह सब कहने वाला है? ‘
हद तो उस समय हो गई जब यूनिवर्सिटी के एक इंजीनियर महोदय बहुत पीछे प़ड़ गए, ‘सर देखिये मैंने आपके घर में अच्छे से अच्छी पुताई करा दी है, आप मुझे और कुछ काम बताइयेगा. कुछ तो सेवा का अवसर दीजिये.’
जब इंजीनियर महोदय बहुत पीछे पडे तो मैंने याद करते हुए कहा ‘हाँ भाई मेन स्विच के ऊपर का चीनी मिट्टी का बना कटआऊट स्विच टूट गया है, अभी उसे टेप से चिपका रखा है, उसे बदलवा देना.’
इंजीनियर साहब बोले, ‘अरे साहब इतना सा काम, क्या मजाक कर रहे हैं. पर सर आपके क्वार्टर की पूरी इलेक्ट्रिक लाईन पुरानी हो गई है हम इसे फिर से पूरी नई डाल देते हैं.’
मैने सोचा शायद इंजीनियर महोदय ऐसे ही कह रहे हैं. पर सप्ताह भर बाद पता लगा कि सचमुच उन्होंने पूरे क्वार्टर की पुरानी बिजली की लाईन उखाड़ कर नई लाईन डलवा दी.
मुझे अचम्भा हुआ, जो काम चार-पांच रूपयों में हो जाता, उस काम को इंजीनियर महोदय ने 67 हजार रूपयों में क्यों कराया!
कुछ दिन बाद इंजीनियर महोदय मेरी पकड़ में आए. मैंने पूछ लिया ‘भाई आपने इतनी फिजूल खर्ची क्यों कर दी. इसकी क्या जरूरत थी.’
पहिले तो इंजीनियर महोदय टालमटोल करते रहे. पर मेरे पीछे पडने पर उन्होने सच उगल ही दिया.
धीमे से कहा, ‘सर आप तो जानते ही है हम पीडब्लूडी से डेप्युटेशन पर युनिवर्सिटी में आए हैं. यहाँ आकर तो हमारी हालत दुबले और दो आषाढ़ जैसी हो रही है. अब अगर चार-पांच रूपए के फ्यूज कवर से आपका काम हो जाता, तो हमारा काम कैसे चलता.’
उन्होंने खुलासा किया, ‘अब जब 60-70 हजार का काम कराया तो दो पैसे हमको भी मिल जावेंगे. सब्जी भाजी का काम तो चलेगा.’
इंजीनियर महोदय की दलील सुनकर मेरी आँखें, थोडी सी देर के लिए फटी की फटी रह गई.
युनिवर्सिटी के इंजीनियर महोदय के पवित्र प्रेक्टिकल उवाच की आज पुन: पुष्टि हो गई. जब मेरे नए निवास केसर बाग रोड की दो साल पहिले बनी सीमेन्ट कॉन्क्रीट की पक्की सड़क की खुदाई चालू हो गई.
पूछताछ करने पर पता चला कि स्मार्ट सिटी योजना के अन्तर्गत 56 लाख मंजूर हुए हैं. इस धनराशि से नालन्दा परिसर की सीवेज लाइन को मुख्य सीवेज लाईन्स से जोड़ने की योजना है.
मैंने जब यह जानना चाहा कि जब दो साल पहिले ही यह सड़क बनी थी तब सीवेज लाईन को क्यों नहीं जोडा गया.
बहुत देर तक लम्बी चौड़ी बहस के बाद आखिर नगर निगम के इंजीनियर ने स्वीकार कर ही लिया कि अगर दो साल पहिले सीवेज लाईन को मेन लाईन में जोड़ देते तो सही बात है, अधिक से अधिक पचास हजार का खर्च होता. आज यही काम 56 लाख रूपयों में हो रहा है.
अच्छी भली सड़क को 30 फुट नीचे खोदा गया. खुदाई, लाईन बिछाना, फिर पक्की भराई, ऊपर सड़क की रिपेयर, 56 लाख तो खर्च होगा ही.
फिर इस 56 लाख में पार्षद, जनकार्य समिति के मुखिया और दूसरे लोग जिनमें बिल पास करने वाले नेता कर्मचारी सब लोग शामिल हैं उनका हिस्सा भी तो बांटना होगा.
जिम्मेदार आदमी ने आखिर मान ही लिया, अगर सड़क बनने के पहिले सीवेज लाईन जोड़ देते तो आज हम लोगों को आमदनी कैसे होती?
अब मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया कि मोदी जी की इतनी मेहनत करने के बाद अच्छे दिन सबसे पहिले किन लोगों के आ रहे हैं.
क्या हमारे देश में ACOUNTABILITY यानी जवाबदेही नाम की चीज़ कभी आ सकेगी? ऐसा लगता है, हर महकमे में एक-एक मोदी भी जन्म लें तो भी कम ही पड़ेंगे.