ये अरब किस ओर, और क्यों जा रहा है? भाग-1

हाल ही में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ‘मोहम्मद बिन सलमान’ का एक बयान सुर्ख़ियों में हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि खाड़ी देश को आधुनिक बनाने की योजना के तहत वो उदार इस्लाम की वापसी चाहते हैं.

सऊदी अरब का शाही परिवार और धार्मिक प्रतिष्ठान इस्लाम के एक रूप वहाबी को मानते हैं और दुनिया ये मानती है कि आतंकवाद के जड़ में यही विचारधारा है.

इस वजह से उनके बयान को बड़ा अहम माना जा रहा है और समझा ये जा रहा है दुनिया को अब शायद वहशत और आतंकवाद से नज़ात मिलेगी.

प्रश्न है कि क्या ये वास्तव में अरब के अंदर इस्लाम के उदार रूप को बहाल करने की कोशिश है या कोई और बात है?

या फिर मीर तकी ‘मीर’ के शब्दों में कहीं ‘क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा/ कब का तर्क इस्लाम किया’ जैसी घोषणा की ओर उठाया गया एक बड़ा कदम है?

इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिये आपको इस मज़हब की तारीख़ में कम से कम फतह-मक्का की घटना और उसके बाद की घटनाओं की ओर जाना होगा.

फतह-मक्का के दिन जिन लोगों ने अपना मज़हब तब्दील किया था उसमें सबसे बड़ा नाम था अबू सूफियान का. अबू सूफियान मक्का के सबसे बड़े सरदारों में एक थे और वही ‘जंगे-बद्र’ और ‘जंगे-ऊहद’ के मुख्य योजनाकार भी थे.

‘अबू-सूफियान’ को मुसलमान आज बड़े एहतराम से याद करतें हैं पर उनके द्वारा मज़हब तब्दील करने का किस्सा सामान्य नहीं है.

जब रसूल साहब के नेतृत्व में मदीना से आई फौजों ने मक्का को घेर लिया तो अबू-सूफियान को अंदाज़ हो गया कि अब मुसलमानों से लड़ना मुश्किल है, इसलिए उन्होंने मुस्लिमों से सुलह करने की सोची.

उसके इस समर्पण से उसकी पत्नी ‘हिन्दा’ बड़ी सख्त नाराज़ हो गई और उन्होंने बीच चौराहे पर अपने पति अबू सूफियान की गिरेबान पकड़ ली और कहा –

“बुज़दिल, क्या तू सरदार-ए-मक्का है? देख, अपनी तरफ कि कितना टूट चुका है तू. मेरा बाप, भाई, चचा सब हमारे पुराने दीन को बचाते हुये मारे गये और अब मेरा शौहर भी हथियार डाल रहा है तो फिर मेरा तो सब कुछ लुट गया और वो भी तेरे कारण”.

इस पर अबू सूफियान ने अपनी पत्नी से कहा, “हिन्दा! आज वो दस हज़ार हैं, हम उनसे लड़ने की ताकत नहीं रखते, अगर मैं अपना दीन तब्दील नहीं करता तो आज जान से हाथ धोना पड़ेगा और सरदारी तो जायेगी ही और अगर इस्लाम ले आया तो ये दोनों कायम रहेंगे यानि तेरा शौहर भी ज़िंदा रहेगा और सरदार-ए-मक्का भी रहेगा”.

ये सुनकर उसकी दूरदर्शी पत्नी हिन्दा भी सुलह के लिये तैयार हो गई. अबू सूफियान इसके बाद रात के अँधेरे में मुस्लिमों के खेमे में गया और उनसे समझौता कर आया.

समर्पण के दौरान भी अबू सूफियान अपनी शर्तें रख रहा था तो इस पर हजरत बिलाल ने उनसे कहा, “अबू सूफियान ! अब तक तुम्हारे अंदर इस्लाम की रोशनी नहीं पहुँची?”

अबू सूफियान ने जवाब दिया, “क्या करूं, शक दिल का साथ नहीं छोड़ता”. (यानि अबू सूफियान ने दिल से उस वक़्त भी इस्लाम कबूल न किया था)

फ़तहे-मक्का के बाद नबी ने ऐलान करते हुए दस लोगों के नाम लिए और कहा कि मक्का के हर लोग को माफी मिलेगी सिवाय इन दस लोगों के.

जिन दस लोगों के क़त्ल का हुक्म दिया गया था उसमें अबू जहल (रसूल का एक दुश्मन जो बद्र की जंग में मारा गया था) का बेटा ईक्रमा भी था और अबू सूफियान की बीबी हिन्दा भी थी. बाद में मौत के डर से ईक्रमा और हिन्दा ने भी इस्लाम कबूल कर लिया.

इसका अर्थ ये है कि फतह-मक्का के दिन इस्लाम कबूल करने वालों में बहुसंख्यक ऐसे थे जिनके लिए मज़हब तब्दील करना, मौत और देश निकाले से बचने की गारंटी थी, सरदारी और रुतबा कायम रखने का आश्वासन था.

तो ऐसे लोगों के इस्लाम कबूल कर लेने के कारण इस्लाम ने क्या खामियाजे भुगते इसको समझना भी बड़ा रोचक है.

इसको सुनना और समझना, उस वक़्त के और आज के अरब को समझने का भी जरिया बनेगा और उस सच को सामने लायेगा जिस ओर आज का अरब अब बढ़ने जा रहा है.

क्रमशः

‘इस्लाम की तारीख और अरब’ के ऊपर मैं एक पूरी किताब लिख रहा हूँ. इस आलेख-माला को उसी किताब की विषय-वस्तु का सार-संक्षेपण समझ लीजिये. ‘क्राउंन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान’ की घोषणायें अनायास ही नहीं हुई हैं बल्कि पहली बार अरब ने लगभग खुल कर अपने इरादे ज़ाहिर कर दिये हैं. ये इरादे क्या हैं और क्यों है ये आगे की किस्तों में आयेगी. प्रतीक्षा करिये…

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