ये लड़ाई आज ख़त्म नहीं होगी, अगली पीढ़ियों को भी समर्थ बनाइये सोशल मीडिया जंग के लिए

बचपन में घर में माँ-बाप के बीच कलह-मारपीट देख रहे, यौन शोषण झेल चुके, या शारीरिक प्रताड़ना झेलते बच्चे अपना गुस्सा अपनी नाराजगी कहाँ निकालते होंगे? वो अपने ही साथ के दूसरे बच्चों पर अपनी कुंठा निकालने की कोशिश करते हैं. भारत में चूँकि ऐसा कम, या बिलकुल नहीं होता था इसलिए हिंदी भाषा में ऐसी हरकतों के लिए अलग शब्द बनाने की जरुरत नहीं पड़ी. अंग्रेजी में ऐसे बच्चों को बुली (Bully) और ऐसी हरकतों को बुलिंग (Bullying) कहते हैं. जैसे जैसे संयुक्त परिवार से लोग एकल परिवारों की ओर जा रहे हैं वैसे वैसे बुलिंग की समस्या भी अभिभावकों को दिखने लगी है.

परिवारों के स्वरुप बदलने, पति-पत्नी के संबंधो पर जबरन विदेशी और अधकचरे कानूनों को थोपने का ये लम्बे समय में निकला नतीजा है. ये बदलाव बिलकुल बुली शब्द के अर्थ में आये बदलाव जैसा ही है. कभी सोलहवीं शताब्दी में डच भाषा में buele शब्द प्रेमी-प्रेमिका के अर्थ में इस्तेमाल होता था. अब ये शक्ति या अपनी न्यूसेन्स वैल्यू का इस्तेमाल कर के परेशान करने वालों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसका सबसे शुरूआती रूप name and shame होता है. किसी को मोटू, टकलू, हड्डी या पिन बुलाकर, या किसी का नाम उसकी शारीरिक अक्षमता के आधार पर बहरा, काना, लंगड़ा, कल्लू जैसा कुछ रख देना इसका एक रूप है.

इन्टरनेट के उदय और सोशल मीडिया के दौर में ये और ज्यादा हो गया है. बोलने-बात करने, चिट्ठियां लिखें, आवेदन लिखने जैसे संवाद के तरीके तो भारत में माँ-बाप और स्कूल में सिखाते हैं लेकिन अज्ञात कारणों से करीब दस साल से ज्यादा से सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल होने पर भी सोशल मीडिया इस्तेमाल करना, उस पर संवाद करना नहीं सिखाया जाता. बात करते समय आप बड़ों को भैया-दीदी, चाचा-चाची, आंटी-भाभी जैसे संबोधनों से बुलाएं, आप कहें तुम नहीं, ऐसी चीज़ें सिखाई जाती हैं.

सोशल मीडिया पर तमीज़ सिखाई नहीं जाती. ऊपर से सोशल मीडिया पर अपना चेहरा छुपा लेने और बदमाशी के कसूरवार ठहराए जाने से छुपने का मौका मिल जाता है. फर्जी आई.डी., बदले नाम से यहाँ बदतमीजी करना आसान हो जाता है.

बिलकुल आम से लगने वाले शारीरिक लक्षणों जैसे मोटा-पतला होना या चलने के तरीके को जब मजाक का निशाना बनाया जाता है तो उसे बॉडी शेमिंग (Body Shaming) कहते हैं. हाल में ही जब मी टू (हैश टैग के साथ me too) का एक कैंपेन चला तो उसमें कई लड़कियां ने यौन उत्पीड़न करने वाले शिक्षक-प्रोफेसर रूप धारी कॉमरेडों का नाम लेना भी शुरू कर दिया. इस घटना में जलाने(JNU), एफ़टीआईआई, जाधवपुर यूनिवर्सिटी सहित कई नामी-गिरामी संस्थानों के घोषित प्रगतिशीलों के चेहरे से नकाब उतर गया. खुद को नारीवादी बताने वाले भूखे कुत्ते सरे बाज़ार ही नंगे हो गए.

ऐसे साठ प्रगतिशील प्रोफेसर या अन्य तरीकों से विश्वविद्यालय से, शिक्षण संस्थानों से जुड़े भूखे भेड़ियों का नाम क्राउड सोर्सिंग (crowd sourcing) के जरिये सोशल मीडिया पर इकठ्ठा किये जाने लगे. अभी भी और नाम जुड़ ही रहे हैं, लेकिन जब आखिरी बार देखा था तो साठ नामों की लिस्ट राया सरकार (Raya Sarkar) की वाल पर मौजूद थी. जाहिर सी बात है अपने गिरोह के सभी भूखे भेड़ियों के नाम जब खुले में आने लगे तो हिंसक वामपंथी क्षत्रप अपने ‘काफिला’ जैसे वेब ब्लॉग की मदद से बचाव में भी उतरे. यौन शोषण करने वाले लम्पटों का नाम सार्वजनिक किये जाने को भी नेम एंड शेम कैंपेन (Name & Shame Campaign) बताया गया.

ये माल के बंटवारे को लेकर होते आपसी झगड़े जैसा है. नहीं, यहाँ ‘माल का बंटवारा’ में ‘माल’ का अर्थ भी आपका वाला नहीं है. इकोनॉमिक्स या एकाउंटिंग में प्रॉफिट का मतलब सिर्फ पैसे नहीं होते. वहां इसका मतलब गुडविल, शोहरत-नाम, सम्मान-सामाजिक स्वीकृति जैसी चीज़ें भी हो सकती हैं.

ये जो शब्द समझने में दिक्कत हो रही है इसके लिए ही गाँधी अपनी आत्मकथा में कहते हैं कि “प्रचारकों को मुझसे बात करनी चाहिए क्योंकि आम हिन्दू उनके शब्दों का अर्थ उतना ही समझता है जितना सेवाश्रम की गायें”. गाली-गलौच का ये दौर अगर आपकी भी नज़रों से अनदेखा निकल गया है तो ये भी समझिये कि अंग्रेजी जानना या पढ़ना आपके लिए क्यों जरूरी है. हर बार कोई चम्मच से किसी के मुंह में डालने के लिए मौजूद ही हो, ऐसा जरूरी नहीं होता.

इसकी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ाएं तो 1931 के दौर के नाज़ियों के मित्र, प्रगतिशील और वामपंथी गिरोह, ऐसे ही शर्मिंदा करने के प्रयास दूसरी जगहों पर भी करते हैं. अपने नास्तिक होने को सामाजिक स्वीकृति दिलाने के लिए स्थानीय परम्पराओं पर आक्षेप और भद्दे मजाक करते रहते हैं.

बड़े काम को छोटे-छोटे हिस्सों में पूरा करना आसान होता है. इस जाने माने नियम को आप भूल गए हैं. आयातित विचारधारा के हिंसक भेड़िये अपने शिकार को झुण्ड से अलग कर के घेरना अच्छी तरह जानते हैं. वो करवा चौथ पर हमला करते वक्त कहेंगे ये दिल्ली की, ये पंजाबी महिलाओं का शोषण है. वो जल्लीकट्टु पर हमला करेंगे और कहेंगे ये दक्षिण भारतीय जानवरों पर अत्याचार करते हैं. वो छठ का मजाक उड़ाते कहेंगे बिहारी तो होते ही मूर्ख हैं!

सोशल मीडिया के दौर में जैसे ही हिन्दुओं ने अपने हितों की बात पर अपनी संविधान प्रदत्त ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का इस्तेमाल करना शुरू किया प्रगतिशील गिरोहों के चंगू-मंगू पिट कर घर लौटने लगे. गुंडागर्दी तभी तक आसान थी जब तक आम जनता इन मुट्ठी भर आतताइयों के खिलाफ एकजुट नहीं होती.

रोज़-रोज़ अपने चेले-गुर्गों को पिट-पिट कर घर आता देख अब बड़े नाम, प्रगतिशीलों के मठाधीश, गिरोहों के क्षत्रप मैदान में उतरने लगे हैं. रविश कुमार, पुण्य प्रसून बाजपेयी, मृणाल पाण्डेय, मैत्रयी पुष्पा, जैसे बड़े-बड़े नाम अब ट्रोल बनकर मैदान में उतरते हैं (सभी सवर्ण). लग्गू-भग्गू कुत्ते अब अपने जख्म चाटते, पूँछ टांगो के बीच सिकोड़े, कोनों में दुबके पड़े हैं.

बाकी इन मुट्ठी भर अभिजात्यों के खिलाफ अपने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का संवैधानिक अधिकार इस्तेमाल करना अपनी अगली पीढ़ियों को भी सिखाते रहिये. ये लड़ाई आज ख़त्म नहीं होगी, कल जब हम नहीं होंगे तब भी हमारी अगली पीढ़ियों को अपनी लड़ाई खुद लड़ने में समर्थ होना होगा.

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