सरदार वल्लभभाई पटेल जी (31 अक्टूबर 1875 – 15 दिसंबर 1950) को स्वर्गवासी हुये 67 वर्ष हो चुके है लेकिन आज भी भारतीय जनमानस की चेतना में उनकी स्मृति जाग्रत अवस्था में है.
यह एक विचित्र विरोधाभास है कि जिन महान व्यक्ति के दृढ़ संकल्पों से भारत को आज का यह स्वरूप मिला है उनके जीवन, स्वतंत्रता व बंटवारे के काल में उनकी दूरदर्शिता और स्वतंत्र भारत को लेकर उनकी परिकल्पना पर बहुत कम लिखा व जाना जाता है.
ऐसा नहीं है कि सरदार पटेल के जीवनकाल की घटनायें कही लिपिबद्ध नहीं है लेकिन नेहरू से लेकर सोनिया गांधी की कांग्रेस की सरकारों ने उसे कभी भी सामने नहीं आने दिया.
जिन लोगों ने सरदार पटेल के जीवन की घटनाओं को अपने संस्मरणों में लिपिबद्ध भी किया तो शासकों ने हमेशा उसको नजरअंदाज किया है ताकि जनमानस की स्मृति से सरदार पटेल ओझल हो जाए.
कांग्रेस के इस कुत्सित प्रयास में भारत के वामपंथी इतिहासकारों और शिक्षाविदों ने भी अपना पूरा योगदान दिया है.
इसका परिणाम यह हुआ है कि 70 के बाद कि पीढ़ी के लिये सरदार वल्लभभाई पटेल स्कूल की इतिहास की किताब में 2 पन्नो में सिमट के रह गये हैं.
पटेल जी के पर जितना भी शोध किया जाए कम है क्योंकि उसमें असीम सम्भावनायें हैं, जो भारत की आगामी पीढ़ी के लिये जानना अनिवार्य है.
हम जब भी सरदार पटेल जी की बात करते हैं, हम उनके द्वारा असंभव सा लगने वाला, 562 प्रिंसली स्टेट का भारत में विलय कराये जाने को याद करते हैं, लेकिन सरदार का योगदान इससे भी बड़ा था.
आज अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप का द्वीपीय समूह भारत में है तो उसका एक मात्र श्रेय सरदार पटेल को जाता है. लक्षद्वीप समूह प्रशासनिक रूप से मद्रास प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था लेकिन वह एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र था.
हालांकि बंटवारे में लक्षद्वीप को लेकर मुस्लिम लीग ने कोई दावा नहीं किया था लेकिन सरदार पटेल दूरदर्शी थे और वो जिन्नाह की फितरत को अच्छी तरह समझते थे.
इसलिए उन्होंने दूरदर्शिता से काम लिया और बंटवारे की तमाम उलझनों के बीच, स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही, भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री की हैसियत से भारतीय नौसेना के जहाज़ को लक्षद्वीप पर भारतीय झंडा फहराने के लिये भेज दिया था.
जैसा सरदार पटेल ने अनुमान लगाया था ठीक उसी तरह पाकिस्तान ने भी द्वीप पर कब्ज़ा करने के लिये अपना नौसैनिक जहाज़ भेजा था लेकिन जब उन्होंने ने वहां भारतीय नौसेना के जहाज़ को देखा तो बिना किसी प्रतिवाद के वो वापिस हो गये.
इसी तरह सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर भी उन्होंने दूरदर्शिता दिखाई थी. पटेल अच्छी तरह जानते थे कि नेहरू का सेक्युलरिज़्म उनको यह नहीं करने देगा और हमने किताबो में पढ़ा भी है कि नेहरू ने इसका विरोध किया था. लेकिन पटेल इसके लिये पहले से ही तैयार थे.
सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल ने अपनी डायरी में इसका जिक्र किया है. उन्होंने 20 सितम्बर 1950 को लिखा है कि सोमनाथ मंदिर के पुनरुत्थान को लेकर जब नेहरू ने खुला विरोध किया.
इस पर सरदार पटेल ने उनसे कहा कि सोमनाथ मंदिर का कार्य एक ट्रस्ट द्वारा इकट्ठा किये गये 30 लाख रुपये से हो रहा, जो पहले से ही इस कार्य के लिये इकट्ठा कर लिया गया था और इसमें शासकीय कोष का कोई भी योगदान नहीं है. इसलिये प्रधानमंत्री का इसमें दखल देने का कोई औचित्य नहीं है.
सरदार पटेल, भारत के वामपंथियों को शुरू से पहचानते थे और कभी भी विश्वास नहीं करते थे. मणिबेन 13 सितम्बर 1948 को लिखती है कि पटेल ने नेहरू के विशेष सहायक एम ओ मथाई को हिदायत दी कि यदि हमें भारत का एक राष्ट्र के रूप में निर्माण करना है तो उसमें वामपंथियों की कोई जगह नहीं होनी चाहिये.
इसी तरह मणिबेन आगे लिखती हैं कि नेहरू, मुस्लिम वर्ग को खुश रखने की नीयत से, हैदराबाद नवाब के खिलाफ किसी कड़ी कार्यवाही के विरुद्ध थे, जो सरदार पटेल को अस्वीकार्य था.
जब नेहरू ने पटेल पर दबाव बनाने के लिये अपने मित्र और भारत के गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचार्य का उपयोग किया तब पटेल ने राजा जी से कहा कि, “कोई भी ताकत उन्हें इस नासूर को हटाने से नहीं रोक सकती है, चाहे उसके लिये उन्हें कड़ी से कड़ी कार्यवाही ही क्यों न करनी पड़े. बेहतर यह होगा कि नेहरू अपनी हद में रहे.”
आगे उनको कहा कि, “मैं नहीं चाहता हूं कि भारत के बीचों बीच इस नासूर (हैदराबाद) को पनपने देने के लिये, आगे आने वाली भारत की पीढ़ी, उनको दोषी ठहराये और श्राप दे. एक तरफ पश्चिमी पाकिस्तान, दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान और बीच में हैदराबाद को लेकर पैन इस्लामिक ब्लॉक बना कर दिल्ली पर फिर से मुगलिया सल्तनत के मंसूबे पूरे नहीं होने दिये जा सकते है. एक बार हम हैदराबाद में घुस जायेंगे तो यह अंतर्राष्ट्रीय मामला बनने का मामला खत्म हो जायेगा. यह गृह मंत्रालय का अधिकार क्षेत्र है और कब तक आप और नेहरू मेरे मंत्रालय को किनारे कर के रह सकते है?”
वास्तव में तटस्थ आंकलन किया जाये तो नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कुत्सित प्रयासों के बाद भी यदि आज का भारत जो कुछ भी बचा हुआ है वह सरदार पटेल की दूरदर्शिता का परिणाम है. जो उन्होंने हैदराबद में 1947 को देख लिया था उसे नेहरू और उसके उत्तराधिकारियों ने बिल्कुल भी नहीं देखा जिसके परिणामस्वरूप आज भारत में कश्मीर, केरल, बंगाल नासूर बन गये हैं.