अंग्रेजी साइंस फिक्शन फिल्मों में से एक फिल्म थी गट्टाका (Gattaca). ये थोड़े से पुराने समय की है और इसे भी मैट्रिक्स जैसी फिल्मों का पूर्ववर्ती माना जाता है. इसकी कहानी भविष्य में एक ऐसे काल में घट रही होती है जब अनुवांशिकता पर काफी रिसर्च हो चुकी है, डीएनए मॉडिफाई कर के आँखों या दिल की मामूली बीमारियों से निजात पाने के तरीके ढूंढ लिए गए हैं और अब कई लोग ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करके पैदा होने से पहले ही अपने बच्चों तो अनुवांशिकता में तेज दिमाग, शारीरिक सामर्थ्य और लम्बी उम्र जैसी चीजें दे रहे होते हैं.
ऐसे समय में विन्सेंट यानि कहानी का नायक बिना इन तकनीकों के पैदा हुआ है और वो कमजोर ह्रदय, नजर के चश्मे जैसी चीज़ों से ग्रस्त है. उसकी उम्र भी लम्बी नहीं होगी, ऐसा भी कयास लगाया जाता है. जिस समय समाज में दो ही किस्म के वर्ग हों, एक अनुवांशिक रूप से सक्षम और दूसरा साधारण, वहां दुनियां में जातियां भी सिर्फ दो ही बची हैं. अच्छी जीन वाले साधारण लोगों को हीन और दया का पात्र भी मानते थे, वहीँ कमजोर वाले मन में घृणा पालते जीते. ऐसे ही माहौल में घटनाओं के उलटफेर में एक तैराक जो किसी वजह से एक प्रतियोगिता में दूसरा स्थान ला पाया, वो आत्महत्या की कोशिश करता है.
तैराक नाकाम होता है, और सिर्फ खुद को अपाहिज कर लेता है. अब विन्सेंट उसकी पहचान चुरा कर खरीद सकता था. पहचान चुराते ही उसे अपना बचपन का अन्तरिक्षयात्री होने का सपना पूरा करने का मौका भी मिल जाता. इस काम में छोटी मोटी दिक्कतें थी, जैसे तैराक दाहिना हाथ इस्तेमाल करता था और विन्सेंट ज्यादातर अपना बायाँ हाथ चलाता था. अपना डीएनए ट्रेस जैसे बाल वगैरह ना छूटें इसका ध्यान रखना था. मगर आखिर तैराक की डीएनए पहचान चुरा कर विन्सेंट, गट्टका नाम के स्पेस सेण्टर में घुस जाता है.
सत्तर साल में एक बार मिलने वाले एक शनि के चाँद – टाइटन के अन्तरिक्ष अभियान का मौका भी उसी समय आने वाला था. विन्सेंट उसमें पायलट की जगह पाने में कामयाब भी हो जाता है, लेकिन उसी वक्त स्पेस मिशन के डायरेक्टर का खून हो जाता है और जासूस, कातिल को ढूंढना शुरू कर देते हैं. विन्सेंट के पकड़े जाने की संभावना काफी बढ़ जाती है. कहानी आगे चलती रहती है, विन्सेंट का नायिका (उमा ट्रूमन) से प्रेम प्रसंग भी चलता रहता है. इसी वक्त जासूस जो कि विन्सेंट का भाई भी होता है वो जोसफ को गिरफ्तार कर लेता है.
जोसफ कबूल लेता है कि मिशन डायरेक्टर को उसी ने मारा था, लेकिन जासूसों के दल में एक एंटोन नाम का व्यक्ति भी होता है जो विन्सेंट का भाई था, मगर सबूतों की कमी की वजह से साबित नहीं कर पा रहा था कि विन्सेंट ने किसी की पहचान चुराई है. एंटोन किसी भी तरह विन्सेंट को फंसा कर पकड़ लेना चाहता था, क्योंकि वो एक कमजोर डीएनए वाले को कामयाब होते देखकर जल रहा होता है. यहाँ फिल्म का एक रोचक दृश्य है, जिसमें दोनों भाई विन्सेंट और एंटोन बचपन वाले तरीके से अपना झगड़ा सुलझाने की सोचते हैं.
बचपन में दोनों भाई समंदर में तैरने जाते और जो सबसे ज्यादा दूर तक की दूरी नाप कर किनारे वापस लौटता वो जीत जाता था. एंटोन तैरते वक्त उतनी ही दूर जाना चाहता था, जहाँ से लौटने लायक शक्ति बची रहे. विन्सेंट डूबने की परवाह किये बिना, सिर्फ जीत के लक्ष्य से तैरता है. विन्सेंट जीतता ही नहीं, डूबते एंटोन को निकाल के भी ले आता है. विन्सेंट बताता है कि ये जीत उसे इसलिए मिली क्योंकि उसने वापसी के सफ़र का कभी सोचा ही नहीं (Burning the bridges/ships की अंग्रेजी कहावत). लौटने के बारे में सोचने के कारण एंटोन अपनी असली क्षमता कभी जांच नहीं पाया, विन्सेंट जीत गया.
आखिर जब अन्तरिक्ष में लॉन्च का दिन आता है, तो जिसने विन्सेंट को अपनी पहचान दी थी, उससे भी विन्सेंट विदा लेता है. विन्सेंट उसे पहचान देने का धन्यवाद दे रहा होता है, तो वो विन्सेंट को अपने जीने और जीतने के सपने देने का शुक्रिया कहता है. राकेट के लॉन्च से पहले एक और डीएनए टेस्ट होता है. इस बार डॉक्टर लैमर पकड़ लेता है कि विन्सेंट फर्जीवाड़ा कर रहा है. डॉक्टर कहता है, उसे काफी पहले से पता है कि विन्सेंट फर्जी है, लेकिन वो डीएनए के आधार पर लोगों को छांटने के बदले आत्मविश्वास की शक्ति पर भरोसा करता था. इसलिए विन्सेंट को बाएं हाथ का इस्तेमाल ना करने की सलाह देकर जाने देता है.
फिल्म के अंतिम दृश्यों में विन्सेंट को अपनी पहचान देने वाले तैराक ज़ेरोम को आत्महत्या करते दिखाते हैं. नायिका जो कि विन्सेंट से थोड़े कम अच्छे डीएनए की थी उसे अन्तरिक्ष यात्रा का मौका ना मिलना दिखाते हैं. फिर ये बताते हुए कि आदमी की इच्छाशक्ति किसी भी शारीरिक, या जन्मजात गुणों से ज्यादा जरूरी है, एक लिस्ट दिखाई जाती है. ये वैसे लोगों की लिस्ट है जिसमें किसी ना किसी व्याधि के शिकार लोग हैं. सब अपने अपने क्षेत्रों में बहुत कामयाब हुए, इनमें अल्बर्ट आइन्स्टाइन और अब्राहम लिंकन भी शामिल थे.
इस फिल्म की कहानी इसलिए याद आई क्योंकि भारत में “आरक्षण” होता है. भारत के संविधान निर्माता इसके विरोधी थे और उन्होंने दबावों में आरक्षण को विधायिका में मामूली जगह दी थी. बाद में संशोधनों के जरिये ना केवल इसे सत्तर साल से बढ़ाया जा रहा है, बल्कि इसे और भी क्षेत्रों में जगह दी गई. भारत में आज चाहे दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी संगठन हों, या फिर वामपंथी कही जाने वाली, नरम से लेकर गरम तक की पचास के करीब जातियां, आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा करने लायक दम किसी में नहीं होता.
जन्म के आधार पर विशेष अधिकार देने या ना देने से सत्तर साल के समय यानी तीन पीढ़ियों में कोई फायदा हुआ या नहीं हुआ इसकी जांच को भी विवादों के शोर में दबा दिया जाता है. जांच तो छोड़िये राजनैतिक रोटियां सेंकने वालों को आरक्षण के क्या लाभ हुए, इसकी चर्चा तक मंजूर नहीं. वोट बैंक की लूट खसोट में इसमें एक तथ्य ये भी दिखता है कि किसी दौर में अल्पसंख्यक कहलाने वाले समुदाय विशेष को एकीकृत वोट बैंक कहकर उनके पिछड़ों की बात नहीं की जाती. ज़ात शब्द में जो “ज़” के नीचे नुक्ता है, वही बता देता है कि ये किस भाषा का शब्द है.
इसके बाद भी टुकड़ाखोरों की जमातें, ये जानते हुए भी कि राज हमेशा अश्रफों ने किया, “हम कभी इस मुल्क पर राज करते थे”, का झुनझुना अपने हिस्से के वोट बैंक को थमाना चाहती है. भेदभाव और मुफलिसी झेलते, पासमंदा और हलालखोर जैसी बिरादरियों के साथ बिहार में ऐसा नहीं होता. बिहार में पासमंदा अपना प्रतिनिधित्व अपने हाथों में लेने की लड़ाई शुरू कर चुके हैं. पसमांदा बिरादरी के नेता सदनों में भी पहुँचने लगे हैं. बिहार में मुसलमानों की करीब 50% से 56% आबादी को आरक्षण का लाभ भी मिलता है.
फिल्म की इतनी लम्बी सी कहानी हमने इसलिए सुनाई है क्योंकि हमें पूछना था कि आपके राज्य में क्या हाल हैं? सिर्फ वोट बैंक बना कर झुनझुना थमा रखा है, या मुस्लिम जातों को कोई राजनैतिक प्रतिनिधित्व कोई आरक्षण भी मिलता है?
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