महाकाल : कर क्या रहा है हमारा धार्मिक नेतृत्व, पड़ी ही क्यों कोर्ट के हस्तक्षेप की ज़रुरत

जैसे ही ये खबर आयी कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर की पूजा के लिए कोई नए दिशा निर्देश दिए हैं, सोशल मीडिया में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट को लेकर आक्रोश फूट पड़ा. मगर जैसे जैसे सच्चाई का पता चला वैसे वैसे यह आक्रोश धीरे धीरे हवा हवाई हो गया.

दरअसल, महाकाल शिवलिंग के क्षरण (छोटा होना) को देखते हुए कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पुरातत्व विभाग, भूवैज्ञानिक और अन्य विशेषज्ञों की एक टीम का गठन किया और उन को जांच करने का निर्देश दिया था.

विशेषज्ञों की टीम ने सुप्रीम कोर्ट को कुछ सुझाव सौंपे थे जिसे कोर्ट ने स्वीकार किया. अब महाकाल पर सिर्फ आरओ का (शुद्ध) जल ही चढ़ाया जाएगा. साथ ही भस्म आरती के दौरान शिवलिंग को सूखे सूती कपड़े से पूरी तरह ढंका जाएगा और अभिषेक के लिए हर श्रद्धालु को निश्चित मात्रा में दूध या पंचामृत चढ़ाने की इजाज़त होगी. ऐसे ही कुछ और भी नए नियम हैं.

बात जब महाकाल के क्षरण को रोकने अर्थात शिवलिंग के सरंक्षण की हो तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है और होनी भी नहीं चाहिए. मगर जब यह पता चला कि सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञ समिति की सिफ़ारिशों को मंदिर बोर्ड की सहमति के बाद मंज़ूरी दी है तब थोड़ी बेचैनी हुई.

बेचैनी इसलिए कि इसका मतलब है कि मंदिर के कर्ताधर्ताओं को इस समस्या के बारे में पता था. फिर भी वे चुप बैठे रहे. पता नहीं कब से. अर्थात उनके महाकाल मुसीबत में थे, फिर भी ये ना जाने किसका इन्तजार कर रहे थे. क्या वे चाह रहे थे कि कोई और आये और इस समस्या का समाधान दे. क्या वे इसके लिए भी सक्षम नहीं हैं.

इसमें सुप्रीम कोर्ट का कोई दोष नहीं, उनके पास अगर कोई फ़रियाद लेकर जाएगा तो उसका निपटारा तो उन्हें करना ही पड़ेगा. मगर सुप्रीम कोर्ट संविधान का विशेषज्ञ तो हो सकता है मगर उसे हर बात का विशेषज्ञ बनाने पर हम क्यों तुले हुए हैं. उस पर भी प्रकृति और सरंक्षण जैसे विषय में, वो भी धर्मक्षेत्र में, जो सनातन के मूल में है.

प्रकृति की पूजा करने वाली संस्कृति और प्रकृति सरंक्षण की विशेषज्ञ सभ्यता अपने देवों के देव महादेव को क्षरण से बचाने के लिए किसी और के दिशा निर्देशन का इंतज़ार करें, इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है.

सनातन में प्रकृति के क्षरण को रोकने की अनेक व्यवस्था है, और समय समय पर कई बनाई गई. सच कहें तो प्रकृति का संरक्षण इसकी मूल भावना है. हमने वृक्ष को कटने से बचाने के लिए उनका पूजन करना शुरू किया उन्हें देवता का दर्जा दिया.

नदियाँ पूजी जाने लगीं जिससे उनमें प्रदूषण ना हो. हम कुँए की पूजा करते हैं. हम हर जीव, हर निर्जीव को पूजते हैं जिससे उनका अस्तित्व बना रहे. यह सब ऐसा नहीं कि हम पहले दिन से करने लगे थे. हमने धीर धीरे अपने अनुभव से सीखा और संस्कृति को विकसित किया.

हम कभी भी किसे एक किताब के लकीर के फकीर नहीं रहे. किसी एक के दिशानिर्देश के गुलाम नहीं रहे. बल्कि हर काल और स्थानानुसार सदा परिवर्तनशील रहे हैं. समय के हिसाब से अपने कर्मकाण्डों मे भी परिवर्तन करते रहे हैं.

क्या हमने पशु बलि की प्रथा बंद नहीं कर दी? श्राद्ध और यज्ञ को आधुनिक समय के अनुसार बना दिया. ऐसे अनेक कर्मकांड हैं जिसे समयानुसार हम परिवर्तित और संशोधित करते रहे हैं. कोई कारण नहीं कि महाकाल के क्षरण को रोकने के लिए अगर कोई फैसला लिया जाता तो वो सभी को स्वीकार नहीं होता.

यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि संसार को मार्ग दिखाने वाला अब अपने मार्ग का चुनाव नहीं कर पा रहा. दूसरों को ज्ञान देने वाला अपने निर्णय नहीं कर पा रहा. पीढ़ियों तक वेद, श्रुति रूप से विकसित हो कर हम तक पहुंचे. जिसे रास्ते में उपनिषद और पुराणों द्वारा नई नई व्याख्या से सुससंकृत किया गया.

क्या यह वही सनातन है जिसमें शंकराचार्य जैसे आध्यात्मिक चिंतक दार्शनिक और कर्मयोगी हुए तो दयानन्द सरस्वती जैसे विचारक और समाज सुधारक हुए. सनातन संस्कृति किसी एक महापुरुष या एक ग्रन्थ की विरासत नहीं रही, अनेक ऋषि मुनियों ने हर काल में आकर अपनी तपस्या से इसे सिंचित किया.

मगर आज हमारे धर्म और अध्यात्म का नेतृत्व इतना अदृश्य क्यों है. जबकि मंदिरों में अगर भक्तों की कोई कमी नहीं तो पुजारियों की संख्या भी अनगिनत है. सत्संग में भीड़ है और बाबा हर शहर में एक से अनेक मिल जाएंगे. जिनका वैभव कई बार व्यवसायी की ईर्ष्या का कारण भी हो सकता है.

मगर जहां बात समाज के समग्र विकास और हित की हो या आगे बढ़कर आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करने की हो तो कोई दिखाई नहीं देता, ना ही कोई समाज हित के निर्णय या धर्म और अध्यात्म के सन्देश सुनायी देते हैं. और अगर कोई आता भी है तो वो राजनैतिक और अव्यवहारिक के साथ ही अनावश्यक विषयों पर ही होता है जो फिर स्वीकार्य नहीं हो पाता.

हमारा धार्मिक नेतृत्व ना तो एकमत है ना ही निर्णायक है. जबकि आज सनातन को एक नि:स्वार्थ, निष्पक्ष, निर्णायक नेतृत्व की आवश्यकता सर्वाधिक है. यही कारण है कि हमें दही हांडी से लेकर महिला के मंदिर प्रवेश जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक विषयों के लिए भी किसी और के निर्णय को स्वीकारना पड़ रहा है और इस तरह से हम किसी और को अपने धर्मक्षेत्र में प्रवेश का मौका दे रहे हैं, जो कि मुख्यतः हमारा कार्यक्षेत्र है. हमें इसमें आवश्यक्तानुसार परिवर्तन खुद कर लेना चाहिए था.

हम यह ना भूलें, हम क्या महाकाल को संरक्षित करेंगे. जब सब कुछ खत्म हो जाएगा तब भी महाकाल रहेंगे. क्योंकि वे समय हैं, समय का ना प्रारम्भ है, ना ही अंत. और फिर वे तो कालों के काल महाकाल हैं. इन्हे आदिदेव यूं ही नहीं कहा जाता.

शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं. लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए का कोई क्या क्षरण कर पायेगा. जो स्वयं संहार के अधिपति है उनके बचाने के लिए यह प्रयोजन अगर है भी तो ऐसा करने वालों को यह पता होना चाहिए कि शिव भोले भी हैं. अगर तुम उन्हें कुछ नहीं भी चढ़ाओगे और सिर्फ सच्चे मन से उनकी आराधना कर लोगे तब भी वे प्रसन्न हो जाते हैं क्योंकि वे व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं.

वे तो वेदों में रूद्र रूप में थे और फिर शिवलिंग में होते हुए शंकर के सौम्य रूप में हमारे बीच प्रतिष्ठित हुए. उनके अनेक रूप हैं, वे परिवर्तनशील है क्योंकि वे प्रकृति के स्वामी भी हैं. वे सनातन हैं. उन्हें नष्ट करने का प्रयास तो उज्जैन में भी बाहरी दुष्टों के समय कई शताब्दी तक हुए मगर क्या कोई महाकाल को छू भी पाया. जिन्होंने भी इस का प्रयास किया वो खुद समय के हाथों कहीं गुम हो गया. उस समय उनकी रक्षा के लिए कौन आया था? कोई नहीं. उनका कोई क्या विनाश करेगा, वे तो शव के शिव हैं.

काश देवालयों में बैठे सनातन संस्कृति के रक्षकों की विशाल सेना इस बात को समझ कर अपने कर्तव्य और धर्म का निर्वहन करती. क्या उन्हें पता है सनातन ज्ञान की व्याख्या करते हुए ब्राह्मण धर्म निभाना, पूजन के कर्मकांड करवाने से अधिक महत्वपूर्ण हैं. इसके पहले कि त्रिनेत्र अपना तीसरा नेत्र खोलें हमें अपनी दोनों आँखे खोल लेनी होगी.

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