जब चित्रकूट में श्रीराम भरत को राज-काज की शिक्षा दे रहे थे तो उन्होंने उनसे पूछा था कि तुम्हारे राज्य में पुरोहित और ब्राह्मण सुख से तो हैं न? भरत को कौतूहल हुआ तो पूछ बैठे कि भैया! आपने ब्राह्मणों का पूछा, ये तो मेरी समझ में आ गया पर आपने पुरोहितों का क्यों पूछा? तो इस पर राम उन्हें समझाते हुए कहतें हैं कि यज्ञ और समस्त कर्मकांडों को संपादित कराने वाला पुरोहित समाज में अर्थ-संचालन को गति देता है जिससे समाज के हरेक तबके का आर्थिक उन्नयन होता है.
श्रीराम ने ये इसलिये कहा था क्योंकि हमारे पूर्वजों ने व्रत-त्योहार-उत्सव, कर्मकांड और रीति-रिवाजों को गढ़ा ही इस तरीके से था कि इससे समाज के हरेक तबके का आर्थिक उन्नयन हो सके. अब पुरोहित आता है तो वो पूजा या कर्मकांड में प्रयुक्त होने वाली चीजों की एक सूची सौंपता है. जैसे- पुष्पमाला, फूल, धनिया, पंच मेवा, शहद (मधु), शक्कर, घृत, दही, दूध, फल, नैवेद्य या मिष्ठान्न, इलायची, लौंग, सिंहासन (चौकी, आसन), चंदन, यज्ञोपवीत, कपड़े, ताम्बुल पत्र, कुंकु, चावल, अबीर, गुलाल, हल्दी, रुई, रोली, सिंदूर, सुपारी इत्यादि.
इस सूची में जो चीजें प्रयुक्त होतीं हैं वो सब समाज के हर पेशे में सम्मिलित लोग का आर्थिक-हित साधती है. अभी-अभी बिहार में छठ पूजा संपन्न हुआ. पूजा के अगले दिन मैं एक अखबार में खबर पढ़ रहा था जिसमें लिखा था कि इस छठ के अवसर पर केवल मुजफ्फरपुर जिले के अंदर सूप और बांस की टोकरी का व्यापार 52 करोड़ रूपए का था. बिहार में जिस जाति के लोगों का सूप और टोकरी के व्यवसाय पर एकाधिकार है वो सबके सब “डोम जाति” के हैं जिन्हें बिहार सरकार ने महादलित की सूची में रखा है. अब सोचिये कि सूप और टोकरी के व्यवसाय से समाज के किस वर्ग का हित-साधन हुआ.
इस व्यवसाय से जुड़े लोग साल भर छठ पर्व की प्रतीक्षा करतें हैं क्योंकि अकेले इस पर्व से ही उनकी आमदनी इतनी हो जाती है कि पूरे साल उन्हें अभाव नहीं रहता. रोचक बात ये है कि इस व्यवसाय में सहभागिता अधिकांशतः महिलाओं की होती है. इसी तरह छठ पर्व के दौरान मिट्टी के बने चूल्हे, हाथी की प्रतिमा और कुंभ (घड़े) की बिक्री भी उतनी ही होती है जो कुंभकार समाज को लाभान्वित करता है. गन्ने, दूसरे मौसमी फल और केले की खेती करने वालों की साल भर में जितनी बिक्री नहीं होती उतनी अकेले इस पर्व में हो जाती है.
आज उपभोक्तावाद अपने चरम पर है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगभग हमारे घरों में घुस चुकी है पर एक बिहारवासी होने के नाते मुझे गर्व है कि मेरे यहाँ का ये त्योहार केवल और केवल मेरे देश के लोगों को रोजगार देता है. इसलिये छठ स्वदेशी भाव जागरण और और अपने लोगों को रोजगार देने का बहुत बड़ा माध्यम भी है.
छठ पर्व का महत्त्व हम बिहार-वासियों के लिये केवल यहीं तक नहीं है. आज मिशनरियों ने अपने मत-प्रचार के लिये बिहार को निशाने पर लिया हुआ है पर अपने “इन्वेस्टमेंट” के अनुरूप उन्हें बिहार में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है तो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह लोक-आस्था का महापर्व छठ भी है. एक ही घाट में व्रत करते व्रतियों में समाज के कथित उच्च जाति के लोगों से लेकर समाज के निचले पायदान पर खड़े लोग भी होते हैं, जहाँ जाति-भेद और अस्पृश्यता पूरी तरह मिट जाता है. जाति से इतर व्रत करने वाली हरेक महिला देवी का रूप होती है जिसके पैर छूकर प्रसाद लेने को लोग अपना सौभाग्य समझते हैं.
ट्रेन में किसी भी तरह कष्ट सह के अगर कोई बिहारवासी छठ पर अपने घर जाता है तो उसका मजाक मत बनाइये, उसके ऊपर चुटकुले मत बनाइये. कम से कम इस बात के लिये उसका अभिनन्दन करिये कि उसने अपनी परंपरा को इतने कष्ट सह कर भी अक्षुण्ण रखा है और अपने समाज के सबसे निम्न तबके के न सिर्फ आर्थिक उन्नयन में परोक्ष सहायता कर रहा है बल्कि उन्हें विधर्मियों के पाले में भी जाने से बचाये रखा है.
इन “मैत्रियी पुष्पाओं” के निशाने पर अब छठ का पर्व इसीलिये आया है क्योंकि यह पर्व उनके आकाओं द्वारा मतान्तरण का फसल काटने देने में बाधा बन रहा है और इस पर्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दाल नहीं गल पा रही है.
हर्ष की बात है कि छठ पर कु-प्रचार करने की कोशिश करने वाली विष-कन्याओं के खिलाफ हर राज्य से लोगों ने आगे आकर उसका विरोध किया. समाज की शक्ति इसी तरह संगठित रहे तो भारत का हित हमेशा अक्षुण्ण रहेगा.
अगली बार से छठ को एक अलग नज़रिये से भी देखने का भाव जाग्रत हो, इस लेख का यही हेतु है.