एक अति जागरूक नागरिक ने छठ के समय पोस्ट डाली.. “लौकी 80 रुपये किलो!! .. लूटने का तो बस बहाना चाहिए .. धर्म का मेला लगा हुआ है .. लूट लो बस!!”
हालांकि वो साल भर बस किसानों के ऊपर रोना रोते रहते हैं कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं, उनको फसल का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है, सरकार क्या कर रही है .. वगैरह-वगैरह. रोड पे टमाटर फेंक रहे हैं, दूध बहा रहे हैं तो उनको लेकर खूब रोये-धोये… लेकिन जैसे ही कुछ कीमत बढ़ी महंगाई का रोना लेकर सरकार को कोसने बैठ जाते डे-नाइट बेसिस पे.
ये लोग समाज के निचले तबके के लोगों के कल्याण, उत्थान की बातें एकदम से फ्रंट-फूट में आ के करते हैं.. सरकार को कोसते हैं और फिर अल्टीमेटली बात को ब्राह्मणवाद और हिन्दूवाद से जोड़ देते हैं.
जहाँ ये एक तरफ परब-त्योहारों को ढोंग-ढकोसला और समय की बर्बादी की नजर से देखते हैं वहीं दूसरी तरफ निचले तबके के लोगों के विकास के बारे में भी खूब चिंतन-मन्थन करते हैं. इनके कौशल विकास और रोजगार की बात करते हैं. तो इनका कौशल विकास क्या और रोजगार स्वरोजगार क्या? इनके कौशल विकास से उत्पादित उत्पाद की खपत कहाँ? इनके ग्राहक कौन? और इनके कमाई का जरिया कौन?
देश भर में जितने भी दलित, महादलित उद्धारक बुद्धिजीवी हैं वो एक सिरे से और बड़ी ही कठोरता से हिन्दू परब-त्योहारों का मजाक उपहास उड़ाते हुए मिलेंगे वहीं दूसरी ओर दलितों के उत्थान के लिए भी एक से एक आइडिया देते नजर आएंगे.
यही इस बार छठ को लेकर हुआ… और कहीं न कहीं देश भर से प्रत्येक वर्ष कुछ न कुछ ऐसा-वैसा सुनने को मिलते ही रहता है. तो कहीं-कहीं क्षेत्रवाद का तड़का भी लग जाता है.
परब की धार्मिकता को छोड़ भी दें तो इसके दूसरे पहलू क्या हैं? तो जो दूसरा पहलू हैं वो गौर करने लायक है. और वो है अर्थ-व्यवस्था. छठ चढ़ते ही (वैसे दीवाली के पहले ही) बाजार बूम मारने लगता है. अब ये बाजार किस तरह का? इन बाजारों पे मुख्यतः किन लोगों का कब्जा? तो इन बाजारों पे समाज के सबसे निचले तबका मने महादलित समाज का कब्जा. लौकी, शकरकंद को छोड़ भी दे तो सबसे जरूरी चीज सूप, दउरी और टोकरा-टोकरी. छठ में इन सामानों की ही सबसे ज्यादा माँग होती है. और इसको आपूर्ति करने वाले कौन? तो यही महादलित समाज के लोग. बिहार में डोम और झारखण्ड में तुरी/डोम.
इस बार सूप 220 से 250 रुपये जोड़ा, दउरी 140 से 150 रुपये जोड़ा और पंखा 20 से 30 जोड़ा के रूप में बेचा गया. प्रत्येक जिले में इनकी माँग हजारों लाखों में रही. प्रत्येक जिले के एक अनुमानित बिजनेस का ब्यौरा वहाँ की लोकल अखबारों में पढ़ने को मिल रहा होगा. लाखों, करोड़ों में बिजनेस हुआ हरेक जिले में. बहुत जरूरी बात ये कि इनके निर्माता बहुत कम ही बिचौलिए से सम्बन्ध रखते हैं, ये डाइरेक्ट मार्केट में अपने सामान बेचते हैं. मने कि शुद्ध मुनाफा इनके ही खाते में.
इन सब को मद्देनजर ही झारखंड सरकार ने JSLPS (Jharkhand State Livelihood Promotion Society) परियोजना के माध्यम से महिलाओं को बाँस से कई तरह के सामान बनाने का प्रशिक्षण देने का काम कर रही है जिससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिल सके व आत्मनिर्भर बनाया जा सके.
और जब इतना सब प्रशिक्षण ले भी लिए तो ये कौन से दिन का इंतजार करेंगे? निःसंदेह उस दिन का जब इनके सामान बाजार में अच्छे दाम वे बिक रहे होंगे. और जो तुरी/डोम समाज है वो इस मामले में पारंगत कुशल कारीगर हैं. इन्हें तो बेसब्री से इन त्योहारों का इंतजार रहता है.
हमारे सोहराय पूजा में भी नए सूप दउरी की माँग खूब होती है और फिर सोहराय के छः दिन बाद छठ में तो और भी. तो ये कारीगर दशहरा के बाद ही इस कार्य में जोर-शोर से लग जाते हैं. और सोहराय, छठ में ही साल भर की कमाई का रास्ता तलाशते है. बिहार के कारीगर झारखण्ड के जंगलों के बाँस को बहुत पसंद करते हैं कारण कि बाँस की क्वालिटी और बनावट. एक-एक बाँस 40-60 रुपये में सप्लाई होती है जिससे कि प्रत्येक बाँस से 15-20 सूप बनता है और वहीं एक बाँस से 25 के करीब डलिया. अब बाँस के मालिक कौन? समझ तो रहे होंगे.
सामान्य दिनों में सूप की कीमत जहाँ 30 से 70 रुपये के बीच में रहती है वहीं सोहराय-छठ में ये 2 से 3 गुणे ज्यादे कीमत में बिकती है, और लोग खरीदते भी हैं.
एक पेपर की हेडलाइन देखी “महंगाई पर आस्था भारी!” होनी ही चाहिए आस्था भारी. ताकि इन गरीबों को कमाने का जरिया तो मिले.
हमारे जितने भी परब त्योहार है उनके पीछे एक सूक्ष्म अर्थव्यवस्था है. ऐसा नहीं है कि इनमें लगने वाले सामान केवल बड़े सेठों के कारखानों में बने सामान ही प्रयोग में आते हो, बल्कि हरेक तबके का सामान इनमें प्रयोग होता है. अर्थव्यवस्था की एक सतत श्रृंखला कार्य करती है इनमें. परब-त्योहारों को केवल धार्मिकता की नजर से न देखे बल्कि इनके दूसरे पहलुओं पे भी गौर करें.
अर्थव्यवस्था सुदृढ़ता की बात बारंबार होती है. लेकिन क्या केवल ऊपरी अर्थव्यवस्था से ही अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी? जिस अर्थव्यवस्था में सबकी सहभागिता न हो क्या वो अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सकती है?
मान लीजिये छठ बंद हो गया तो इनका प्रभाव सबसे पहले किसके ऊपर पड़ेगा? बेशक इन्हीं महादलित समाज पे. जिनको बोला जाता कि ये छठ करते हैं वे न करें तो क्या समस्या होनी है इन्हें? कुछ भी तो नहीं! ऊपर से इनके पैसे भी बचेंगे और समय भी. लेकिन कर रहे हैं तो सबकी कुछ न कुछ सहभागिता है और अर्थव्यवस्था का लचीलापन भी.
जितने भी परब-त्योहार हैं वो भारतीयता के द्योतक है, सबकी सहभागिता है, उत्सवधर्मिता है. अर्थव्यवस्था का प्रवाह है. इसे क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद के चश्मे से न देखें. भारतीयता इसी में निहित है.
जय छठी मैया।
जय बूढ़ा बाबा।
ग्रहों के मारने के स्टाइल पर फिदा हूँ, यहाँ कौन किसको मार सकता है, सभी वक्त के द्वारा मारे जा रहे