मैं यात्रा में हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या मैं इसी यात्रा पर निकला था जिस पर हूँ? यात्राओं को थोड़ा और अधिक जीने के लिये असल में ये भी एक इट्रेस्टिंग सवाल है.
मुझे लगता है कि मैं हमेशा यात्रा को कुछ इस तरह ही देखना चाहूँगा कि ‘यात्राएँ तय नहीं की जा सकतीं बल्कि यात्राएँ ख़ुद हमारे लिये कुछ तय कर रही होती हैं’. हमें बस निकल जाना होता है बाक़ी सब आपको यात्राएँ ख़ुद बताती जाती हैं और यदि आप यात्रा के बहाव में ख़ुद को थोड़ा फ़्री छोड़ पाये तो देखेंगे कि किस तरह वो आपका हाथ पकड़ पागलों सी ख़ुश होती बस दौड़े जा रही है और किसी गहरे प्रेम में डूबी प्रेमिका (जो अपना जिया, महसूस किया और देखा एक एक क्षण भी बस अपने प्रेमी तक पहुँचना ही उसकी नियति समझती है) की तरह आपको हर एक जगह ले जा रही है, अनुभवों से मिलवा रही है और ख़ुश हो रही है.
ऐसे ही यात्रा करते मैं फणीश्वर नाथ रेणु जी के गाँव ‘औराही हिंगना’ पहुँचा. हाईवे से जब गाँव की ओर सड़क मुड़ती है तो उस सड़क पर एक द्वार बना हुआ है जिस पर लिखा हुआ है ‘रेणु द्वार’ वो देखकर ही ख़ुशी होती है कि हम हिंदी के महान साहित्यकार के गाँव में जा रहे हैं और गर्व भी होता है कि गाँव का द्वार तो उनके नाम से है ही साथ ही उनके गाँव का नाम ही अब ‘रेणु गाँव’ है.
जब आप भीतर की सड़कों पर जाते हैं और रास्ता पूछने के लिये रुककर वहाँ आस पास खेतों में काम करते किसी किसान से बस बोलना शुरू करते हैं की ‘रेणु जी का…’ इतने में ही वो हाथ से इशारा कर देता है की उस तरफ़..! आप चुप होकर बस उसको देखकर मुस्कुरा सकते हैं.. उसे धन्यवाद बोल सकते हैं.. और आगे चलते हुए उस किसान या गाँव वाले के चेहरे में रेणु जी की किसी कहानी या उपन्यास के किसी गाँव वाले का चेहरा खोज सकते हैं.
पतली पगडंडी सी सड़क आगे बढ़ती जाती है या यूँ कहिए कि उस भीतरी गाँव से बाहर की ओर आती दिखाई पड़ती है. मैं उस पर आगे बढ़ते हुए सोचता हूँ कि ये सड़क मुझे रेणु जी के गाँव नहीं शायद उनके समय में ले जा रही है. और ये भी सोचता हूँ कि वो व्यक्ति कितने समय पहले ही इतने भीतर से निकलकर आया और अपने साहित्य के जादू से लोगों के दिलों पर छा गया.
रास्ते में आस-पास सिर्फ़ हरियाली है खेत हैं. कहीं भैंस कहीं गाय. बदन उघड़े और सर पर गमछा बांधे किसान. और घरों के नाम पर जो भी निर्माण है उसमें लगभग सारा ही काम बाँस का है. सारे छोटे-बड़े घर बाँस के बने हैं. पुराने पड़ चुके काले बाँस की दीवारें, छतें, खिड़कियाँ, बैठकें, फाटक और तमाम तमाम चीज़ें सचमुच ही उस रास्ते पर चलते आपको किसी पुराने समय में ले जाती हैं और आप मैला आँचल, समवदिया, पंचलैट, रसप्रिया और मारे गए गुलफ़ाम से भी आगे गुज़र जाते हैं. मैं चलते हुए बार बार ख़ुद से कहता हूँ कि मैं किसी पुराने समय में जा रहा हूँ जहाँ से निकलकर कभी फणीश्वर नाथ रेणु आए थे.
उनके घर पहुँचकर लगा जैसे किसी आश्रम में प्रवेश किया है. ढेर सारे बच्चे आँगन में क्रिकेट खेलते मिले. रेणु जी के छोटे सुपुत्र डी पी राय जी से बहुत ही स्नेहिल मुलाक़ात रही और उन्होंने ढेर सारा वक़्त और स्मृतियाँ साझा की. रेणु जी के साथ ही धर्मवीर भारती, नागार्जुन, अज्ञेय, राजकमल और न जाने कितने ही महत्वपूर्ण साहित्यकारों और किताबों पर बात होती रही और इस बीच हमने वो कमरा भी देखा जहाँ बैठकर रेणु जी लिखा करते थे.
डी पी राय जी ने साथ ही साथ बहुत उत्साह से हमें रेणु जी की कहानी पर Prem Modi के निर्देशन में आने वाली फ़िल्म ‘पंचलैट’ के बारे में कई क़िस्से और अनुभव सुनाए और इस बात पर अपनी ख़ुशी भी ज़ाहिर की के इतने सालों बाद फिर रेणु जी की किसी कहानी पर फ़िल्म बनी है.
फ़िल्म 17 नवम्बर को रिलीज़ हो रही है उसके लिए डी पी राय जी, Anurag Roy और रेणु जी के पूरे परिवार को और साथ ही पंचलैट की टीम में हमारी अपनी कल्पना झा, Amitosh Nagpal, Joy Supratim, Rakesh Kumar Tripathi जी और सारी ही टीम को फ़िल्म की सफलता की अग्रिम शुभकामनाएँ है.
रेणु जी के गाँव की यात्रा सचमुच किसी पुरानी कहानी में प्रवेश करने की तरह रही और इस गाँव से हमेशा का इक रिश्ता बन गया.