सदियों से शिव-पार्वती के साथ गणेश और कार्तिकेय के परिक्रमा की लोककथा सुनी और सुनाई जाती रही है. कथा के मूल में है कि जो सर्वप्रथम तीनों लोक की परिक्रमा करके आएगा वह विजयी घोषित होगा. और गणेश जी माता-पिता की परिक्रमा कर आते हैं. गणेश जी को अति बुद्धिमान मान लिया जाता हैं. मगर क्या हमारी लोककथा सिर्फ गणेश जी को बुद्धिमान घोषित करने के लिए रची गई होगी? यकीनन नहीं.
अगले स्तर के ज्ञान के लिए यह भी कहा जाएगा कि इस पौराणिक कथा का सन्देश है कि माता पिता का स्थान सर्वोपरि है और उनमें सारा संसार होता है. यह सच है कि हर लोककथा की तरह ही यह कथा भी सांसारिक ज्ञान के साथ ही सामाजिक व पारिवारिक सन्देश भी दे रही है. मगर लोककथाओं में सिर्फ इतना ही नहीं होता, ऐसा मेरा मानना है, कुछ और भी है, जो गहरा है रहस्यों को उजागर करने वाला है और दार्शनिक होगा. हर कथा की तरह इसका भी एक वैज्ञानिक पहलू भी होगा.
हम मंदिरों की परिक्रमा करते हैं, पेड़ों की करते हैं. नदी, तालाब, पहाड़ यहां तक कि चिता की भी परिक्रमा करते हैं. ना जाने किस किस की परिक्रमा करते रहते हैं. भारतीय धर्मों में हर पवित्र स्थलों देव स्थानों के चारों ओर श्रद्धाभाव से चलना ‘परिक्रमा’ या ‘प्रदक्षिणा’ कहलाता है.
मन्दिर, नदी, पर्वत आदि की परिक्रमा को पुण्यदायी माना गया है. दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की ही देन है. फिर चाहे काबा में परिक्रमा हो या बोधगया में की जाने वाली परिक्रमा. आखिरकार ऐसा क्या है परिक्रमा में? क्या सन्देश छिपा है इसमें? किस रहस्य को उजागर करने का यह प्रयास करती है?
आज हम जानते हैं, क्योंकि हमें अब जाकर बताया गया है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है. हमारी पृथ्वी भी सूर्य की परिक्रमा कर रही है. निरंतर. जिसके कारण सूर्यदेव पूर्व से निकल कर प्रतिदिन पश्चिम में अस्त होने जाते हैं. अर्थात हमारा दिन रात भी इसी परिक्रमा का ही परिणाम है.
सच कहें तो यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है. व्यक्ति का संपूर्ण जीवन भी एक चक्र ही है. इस चक्र को समझ कर ही सदियों पहले परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया.
भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है. इसलिए हम मंदिरों की परिक्रमा करते हैं. वही मंदिर जिसके केंद्र में हमारे देवता विराजमान होते हैं.
यही क्यों, पदार्थ के सूक्ष्मतम परमाणु में नाभि के चारों ओर इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं. ये परिक्रमा का सूक्ष्मतम रूप है. यह वही परिक्रमा है जो गणेश जी शिव -पार्वती के चारों ओर लगाते हैं. एक शक्ति के चारों ओर परिक्रमा जीवन का सच है.
अगर सूर्य के चारों ओर अनेक ग्रह परिक्रमा करते हैं तो बच्चे अपनी माँ के चारों ओर घूमते हैं. हमने हर शक्ति के चारों ओर घूमना सिखाया. इसमें अहम् यह है कि उस परिक्रमा का हम सिर्फ आध्यत्मिक उपयोग करते आये हैं, ना कि विज्ञान की तरह एटम बम बना कर विनाश करने का सामान बना दिया.
जितनी भी महत्व की चीज़ें हैं हम सबकी परिक्रमा करते आये हैं. हमने पीपल, बरगद, तुलसी की परिक्रमा की परम्परा डाली क्योंकि ये सभी विशेष गुणकारी हैं, विशिष्ट हैं, अतिरिक्त ऑक्सीजन देते हैं. इनमें औषधीय गुण हैं, ये जीवनदायनी हैं अर्थात हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं और हमने इनकी परिक्रमा को धर्म से जोड़ा. अध्यात्म से जोड़ा. व्यवसाय से नहीं.
शास्त्रों में नर्मदा परिक्रमा का विशेष महत्व है. यूं तो सभी प्रमुख और पवित्र नदियों की परिक्रमा के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलता है. गंगा, गोदावरी, महानदी, गोमती, कावेरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र आदि. लेकिन नर्मदा की परिक्रमा का ही ज्यादा महत्व रहा है. क्यों, क्योंकि नदियों में नर्मदा सबसे प्राचीन है. इसका हर पाषाण शिव लिंग है.
आदिदेव रूद्र की जन्मस्थली है नर्मदा. यहां के किसी भी शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती. नर्मदा के दर्शन ही काफी हैं. ये नदी इतनी विशिष्ट रही है, यही कारण है कि इसकी परिक्रमा सबसे पुण्य तीर्थ कहलाया.
आज हम जान के कह सकते हैं नर्मदा प्राचीनतम नदी है. ऐसा कई शोधों में मत बना है कि मानव सभ्यता का जन्म नर्मदा घाटी में ही हुआ था. यहाँ मिले जीवाश्मों के द्वारा युगों का आंकलन हुआ. मगर यह सब तथ्य तो हमें आज पता चल रहे हैं, मगर नर्मदा परिक्रमा तो हम सदियों से करते आ रहे हैं. जिससे परिक्रमा करने वाला, मानव सभ्यता के इतिहास के विकासक्रम को देखे, समझे और उसका अनुभव के साथ उसकी अनुभूति करे. वो उसका साक्षी बने, उपभोगी नहीं.
हम हर परिक्रमा में अपनी शक्तियों को केंद्र में रखकर उसके चक्कर लगाते हैं. आज हम हर सत्ता के भी तो चक्कर लगाते हैं. शीर्ष पर बैठे लोगों के चक्कर लगाते हैं. एक तरह से हम आज की सत्ता और शक्ति के हर केंद्र की परिक्रमा करते रहते हैं. आशिक भी अपने प्रेम को पाने के लिए चक्कर लगाता है. लेकिन यहां हमारी नीयत में कुछ लेना होता है. पाना. कुछ मिल जाए. किसी भी तरह. बस एक बार सत्ता के केंद्र में बैठे के दर्शन हो जाए. हम चक्कर लगाते रहते हैं.
लेकिन वैदिक काल से सनातन परम्परा में देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को सम्मान प्रदर्शन के रूप में परिक्रमा को किया जाता था. यहां गणेश और आज के तथाकथित भक्तों की परिक्रमा करने के उद्देश्य के फर्क को समझना होगा. और समझा जा सकता है.
और जो नहीं समझ रहे उनके लिए हम सब जीवन की परिक्रमा ही कर रहे हैं. दिन रात की परिक्रमा. जीवन यापन के लिए परिक्रमा. और बस उसमें ही उलझ कर रह गए हैं. जबकि ये जीवन अपने आप में भी एक परिक्रमा ही कर रहा है.
हम एक चक्र में घूम रहे हैं. निरंतर. मगर हम अपने केंद्र को नहीं देख रहे, जिसमें अंतिम सत्य, जिसे ईश्वर-परमात्मा चाहे जो कहें, वो है और उसके चारों ओर हमारी आत्मा परिक्रमा लगा रही है.
लेकिन मेरा जिज्ञासु मन इस के आगे की कल्पना करता रहता है कि, जिसकी हम परिक्रमा कर रहे हैं वो किसकी परिक्रमा करता रहता होगा. वो परिक्रमा कितनी दिव्य होगी.