जर्मनी में रहने वाले एक यहूदी दार्शनिक थिओडर लेसींग ने 1925 में वाइमर सत्ता के दमनकारी नीतियों के विरोध में आवाज़ उठाई. वैसे देखा जाए तो यह आवाज़ हिंडेनबर्ग सरकार के विरोध में उठाई गयी थी लेकिन उसका असली निशाना नाज़ियों की उभरती हुई ताकत पर था। लेसींग ने सरकार को नाज़ियों को तवज्जो देने के लिए दोष दिया था।
नाजी तत्काल समझ गए और हरकत में आ गए. हनोवर यूनिवर्सिटी जहां लेसींग अध्यापन करते थे, वहाँ उन्होने एक लेसींग विरोधी समिति बनाई और छात्रों को कहा कि उनके लेक्चर्स का बहिष्कार करें. अगला कदम था जब वे उनके लेक्चर्स में जा धमके और शोर मचाकर लेक्चर्स चलने नहीं दिये. लेसींग को वहाँ से त्यागपत्र देना पड़ा।
इसके बारे में लेसींग ने लिखा कि वे छात्रों द्वारा किए गए इस अपमान को रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके. बिलकुल असहाय थे “against the murderous bellowing of youngsters who accept no individual responsibilities but pose as spokesman for a group or an impersonal ideal, always talking in the royal ‘we’ while hurling personal insults … and claiming that everything is happening in the name of what’s true, good and beautiful.”
यह नाज़ी स्टाइल का फ़ासिज़्म था 1920 में.

29 जनवरी 2016 को राजीव मल्होत्रा जी का मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सायंसेस (TISS) में भाषण था. वहाँ वामपंथी ‘छात्रों’ ने हुड़दंग मचाई. उस वक्त उसके क्लिपिंग्स आए थे. काफी उग्र हुए थे, और यह इंस्टीट्यूट अभिजात्य वर्ग के लिए प्रख्यात है.
वामपंथ हमेशा हिंसक और असहिष्णु रहा है और साथ-साथ मुखर तथा वाचाल भी. उनके पास शालीनता के मुखौटे पहने हुए वक्ता भी मिलेंगे जो इतने निरीह या मरियल लगेंगे कि क्या कहने. ये शब्दों के योद्धा होते हैं. कुछ योद्धा होते हैं और कुछ हत्यारे भी होते हैं.
ये परले दर्जे के कमीने होते हैं जो लेखक, अध्यापक आदि भी होते हैं और शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में वाम की अधिसत्ता फैलाने का काम करते हैं. इसके तहत ये औसत या उससे भी निचले दर्जे के लोगों को पुरस्कार से प्रतिष्ठित बनाते हैं ताकि वे अपनी यह उधार की प्रतिष्ठा इनके बचाव में ला सके. और यह सब काम ये हमारे आप के पैसों से करते हैं.
इनको सपोर्ट करनेवाले ‘कार्यकर्ता’ वही होते हैं जो सेनबारी, मारीचझपी आदि कांडों को अंजाम देते हैं. ज्योति बसु, बैरिस्टर थे, हमेशा बेदाग सफ़ेद वस्त्र पहनते थे, और अभिजात्य वर्ग से थे. हमेशा स्कॉच से कम पीते न थे और गरीबों के हितों की बस बातें करते थे. सेनबारी, मरिचझपी आदि कांड उनके ही समय के हैं.
इतिहास देखें तो इस्लाम से भी खूंखार कोई हैं तो वामपंथी हैं. दोनों में एक बात कॉमन है और वो यही है कि अच्छे शब्दों पर अपनी मोनोपॉली स्थापित करना. ताकि इनका विरोधी याने उन शब्दों का विरोधी, उन शब्दों के तहत इंगित तत्वों का विरोधी. उन तत्वों की ढाल के आड़ में ये वार करते हैं.
वाम करता क्या है… ये गैर कम्युनिस्ट तंत्र में गैरतमंद गरीब को बेगैरत भुक्खड़ बना देता है और उसे कहता है कि यही तेरा हक़ है. हर जान कीमती हो जाती है जिसके लिए माहौल गरमाया जाता है. देश कम्युनिस्ट हो जाये तो फिर जान की कोई कीमत नहीं.
सौ साल से कम समय में कम्युनिस्टों ने जितनी अपने ही देशवासियों की हत्याएँ की हैं उस अनुपात में तो इस्लाम ने भी काफिरों की हत्याएँ नहीं की हैं. फिर भी वामियों की मानें तो हिन्दू फासिस्ट है. बस इसलिए फासिस्ट है क्योंकि वो वामपंथी परजीवी (parasite) नहीं होता.