भानुमति -5 : कृष्ण हैं हृषिकेश, इंद्रियों के स्वामी

काम्पिल्य नरेश यज्ञसेन द्रुपद ने गुरु संदीपनी से एक ऐसे तेजस्वी युवक के बारे में पूछा था जिससे वे द्रौपदी का विवाह कर सकें और जो द्रोण से उनका प्रतिशोध ले सके. द्रोण इस समय कौरवों के प्रधान सेनापति और युद्धशाला के आचार्य हैं, अतः उनसे भिड़ने का मतलब भीष्म, कर्ण, कृप, भूरिश्रवा सहित सम्पूर्ण कुरुशक्ति से युद्ध ठानना. गुरु संदीपनी को इतना उत्कृष्ट योद्धा केवल एक ही दिखाई देता है, यादवों का उद्धारक, नायक वासुदेव कृष्ण. यद्यपि उनके अन्य शिष्य वासुदेव बलराम और देवभाग-तनय उद्धव भी महान धनुर्धर, गदाधारी, मल्ल युद्ध और व्यूह निर्माण में प्रवीण हैं, अवंति के विन्द-अनुविन्द भी हैं, पर कृष्ण, कृष्ण तो अनन्य हैं. गुरु को कभी-कभी ये भी लगता है कि यही एक ऐसा शिष्य है जो गुरु से आगे निकल गया.

आचार्य श्वेतकेतु गुरु संदीपनी के कहने पर द्रुपद का संदेश लेकर आये हैं, द्रुपद चाहते हैं कि कृष्ण द्वारिका लौटने से पूर्व काम्पिल्य में उनका आतिथ्य ग्रहण करें. कृष्ण इस निमंत्रण को स्वीकार कर लेते हैं. अगली सुबह वे अपने मित्रों के साथ प्रस्थान करने वाले हैं कि अचानक महात्मा विदुर उन्हें पितामही, साम्राज्ञी सत्यवती का सन्देश लाते हैं कि माता उनसे मिलना चाहती हैं. ये अचंभे की बात थी, बहुत कम अतिथियों को ये सम्मान मिलता था.

विदुर कृष्ण को लेकर सत्यवती के पास लाते हैं. वे भगवती की छोटी प्रतिमा के सामने लकड़ी के आसन पर बैठी उनका स्वागत करती हैं. कृष्ण उन्हें साष्टांग प्रणाम कर उनके कहने पर सामने रखे आसन पर बैठ गए. 120 वर्षीय भीष्म और 80 वर्षीय कृष्ण द्वैपायन व्यास की 100 वर्षीय माता में अब भी वो सुंदरता विद्यमान है जिसने प्रतापी शांतनु को अपने वश में कर लिया था.

माता ने विदुर को भी बैठने का संकेत कर कृष्ण से कहा, “मैंने सुना कि तुम जा रहे हो. यहां तुम प्रसन्न तो रहे?”

“हाँ माता, आप सभी से मुझे बहुत स्नेह मिला.”

“तुम्हारे पिता वसुदेव, तुम्हारी माता देवकी एवं रोहिणी स्वस्थ तो हैं ना? उन्हें मेरा आशीर्वाद कहना, बलराम को भी. तुम्हारा कोई पुत्र है कृष्ण?”

“हाँ माता, प्रद्युम्न.”

“किससे, रुक्मिणी से? उसे भी मेरा आशीर्वाद देना पुत्र. तुम्हारी दूसरी पत्नी का नाम शैव्या है ना? भगवती करें कि तुम परिवार से सुखी रहो.”

कृष्ण माता की व्यथा समझ रहे थे. अपने पहले पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास से उनके बचपन में ही अलग हो जाना, फिर चित्रांगद का अल्पायु में ही वीरगति, विचित्रवीर्य की रोग से मृत्यु, विचित्रवीर्य के एक पुत्र का अंधा पैदा होना, दूसरे का अल्पायु में ही राजन्य वर्ग में शिखर पर पहुंचकर सन्यास ले लेना, फिर अगली पीढ़ी का आपसी वैमनस्व. देवव्रत भीष्म के प्रति हुआ अन्याय भी उन्हें कहीं कचोटता होगा.

माता ने ही मौन भंग किया, “तुम्हारा उपकार है कुरुवंश पर. यदि तुमने भानुमति की मान रक्षा नहीं की होती तो कौरव आर्यावर्त में मुँह दिखाने योग्य नहीं होते. लोग तुम्हें उचित ही हृषिकेश कहते हैं, इंद्रियों का स्वामी”.

“आप मुझे लज्जित कर रही हैं माता. भानुमति बच्ची जैसी है, मुझे उसे देख नन्ही सुभद्रा की याद आती है. अगली सुबह भानुमति ने मुझे अपना भाई मानते हुए कुछ सौगातें भेजी थी जिसे मैंने स्वीकार किया. अब आप ही बताइये माता, मैंने क्या कोई उपकार किया. भाई यही तो करते हैं, इसमें किसी आश्चर्य की क्या बात?”

“साधु कृष्ण, साधु. कितना अच्छा होता जो कुरुकुमार भी तुमसे कुछ सीख पाते.”

“सभी कुरुकुमार दुष्चरित्र तो नहीं होंगे माता. विकर्ण और युयुत्सु अन्य जैसे नहीं लगे मुझे. पांडव तो अब नहीं रहे, वो होते तो आप कदाचित इतनी व्यथित नहीं होती.”

माता ने इधर उधर देखा, जैसे पक्का करना चाहती हों कि कोई अन्य तो उनकी बातें नहीं सुन रहा, “कृष्ण, तुमने भानुमति प्रकरण में अपनी सद्चरित्रता दिखाई है. तुम विश्वसनीय प्रतीत होते हो. क्या तुम हमारी मदद करोगे?”

“आप आदेश करें माता. अपितु मैं समझ नहीं पाता कि मैं सामान्य यादव-नायक कुरु साम्राज्ञी की क्या सहायता कर सकता हूँ.”

“क्या तुम मेरे खो गए पुत्रों को खोज निकालोगे? क्या मेरे हस्तिनापुर को उसके प्रिय युवराज, धर्मराज से मिलवा दोगे?”

कृष्ण को समझने में पल भर का समय लगा और वो आह्लाद से भर गए. क्या धर्मराज युधिष्ठिर और उनके महावीर भाई जीवित हैं? आहा ये तो इतना सुखद समाचार है कि वे अपनी सारी प्रतिष्ठा हार जाए. प्रेम, उत्साह और आनन्द से ‘हृषिकेश’ की आंखें भर आईं और उन्होंने पहले विदुर फिर माता सत्यवती की ओर देखकर पूछा, “क्या मेरे फुफेरे भाई जीवित है?”

उत्तर विदुर ने दिया, “हमें ये नहीं पता. हम ये जानते हैं कि वे लाक्षागृह में नहीं मरे. मेरी सूचना पर सहदेव और भीम ने सुरंग तैयार करवा ली थी और निश्चित तिथि से एक दिन पहले ही उस भवन को उसके निर्माता सहित अग्नि में होम कर निकल गए. अंतिम सूचना के अनुसार वे तुम्हारे नाना नागराज आर्यक की सीमा में प्रवेश करते हुए देखे गए थे. कदाचित वे और आगे राक्षसों की सीमा भी पार कर गए हों. हमारी समस्या है कि हम अधिक छानबीन नहीं कर सकते, अन्यथा कपटी शकुनि भांप जाएगा. हम स्वयं प्रयास नहीं कर सकते पर तुम कर सकते हो.”

माता बीच में बोल पड़ीं, “बोलो कृष्ण, क्या हमारी सहायता करोगे?”

“माता, आप जानती नहीं आपने मुझे आज क्या दे दिया है. नहीं माता, मैं आपकी सहायता नहीं करूंगा, पांडवों को खोजकर मैं अपनी ही सहायता करूँगा. वे धर्म है माता, वे अधिक दिनों तक छुप नहीं सकते. आर्यावर्त का भविष्य उन पर टिका है. मैं उन्हें ढूंढ निकालूंगा, उन्हें आना ही होगा. अहा, मुझे नहीं पता था कि भानुमति मेरे लिए इतनी शुभ होगी.”

(नाग, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, देव, वानर, दानव इत्यादि मानवों की विभिन्न प्रजातियों के नाम हैं. इन जातियों में परस्पर वैवाहिक संबंध होते थे. नागराज आर्यक की पुत्री का विवाह यादव नायक शूरसेन से हुआ था. उद्धव का विवाह आर्यक के पुत्र राजा कर्कोटक की दो पुत्रियों से हुआ. मझले पांडव भीम का विवाह राक्षसी हिडिम्बा से हुआ. अर्जुन का विवाह नागकन्या उलूपी से हुआ जिसके पुत्र ने महाभारत संग्राम में भाग लिया था. सम्राट शांतनु का विवाह देवजाति की गंगा से हुआ था. इन्ही कुरुओं के पूर्वज पुरु का विवाह उर्वशी से हुआ था.)

भानुमति – 4 : कृष्ण ने बचाई लाज

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