‘इस्लाम के बारे में आप जानते ही क्या हैं?’ बहुत लंबे समय तक यह जुमला मुसलमानों का अचूक शस्त्र हुआ करता था, जिसका वार सहसा खाली नहीं जाता था. क्यूंकि हिन्दू की जानकारी भारत में इस्लामी शासकों तक ही सीमित थी. उनके ज़ुल्मों को ही ले कर बात करने की कोशिश करते थे और ऊपर लिखे एक ही सवाल में परास्त हो जाते थे.
तब फिर उसे एक दया और उपहास के मिश्रण के भाव भंगिमा से समझाया जाता कि इस्लाम में ये है वो है, रसूल दया की मूरत थे, अपने दुश्मनों को भी माफ कर देते थे, कुरआन में ये लिखा है, वो लिखा है…
आखिर में समझाया जाता था कि जिन सुलतानों की आप बात कर रहे हैं उनके वास्ते पूरी क़ौम को खराब न ठहराओ, और उन्होने जो किया उसके भी कारण तुम कहाँ जानते हो, तुम तो कुछ भी नहीं जानते.
आदमी खिसियाना हो कर चला आता. लेकिन बाद में इंटरनेट आ गया. मोबाइल में भी गूगल आ गया. ज़माना बदलने लगा. अब सवाल इतने मूर्खतापूर्ण न रहे. दया की मूरत की कलई उखड़ने लगी, दुश्मनों को माफ कर देते थे या साफ कर देना ज्यादा पसंद होता था, सब कुछ समझ में आने लगा.
चंद तानाशाहों के खातिर पूरी क़ौम को खराब न समझें या चंद शरीफों को देखकर पूरी कौम को शराफत का सर्टिफिकेट दें भी या नहीं – ऐसे भी सवाल अब तो बिलकुल जायज़ लगने लगे.
‘इस्लाम के बारे में आप जानते ही क्या हैं?’ यह जुमला पहले तलवार था, अब धीरे-धीरे ढाल में तब्दील होने लगा. और वो ढाल भी पैने सवालों के सटीक प्रहारों से चिथड़े हाल होने लगी, और अब ये तलवार हिन्दुओं के हाथों में है.
आज वाकई ये सवाल मुसलमानों से ही पूछा जा रहा है कि ‘इस्लाम के बारे में आप जानते ही क्या हैं?’ और दिख भी रहा है कि उन्हें भी वाकई कुछ पता नहीं है.
‘मिया गिरे तो भी टांग ऊपर’ इस मुहावरे को सार्थक करते बेचारे तब कहने की कोशिश करते हैं कि ‘आप लोगों को अरबी आती नहीं तो आलोचना मत करो’, लेकिन हम अगर अनुवाद का text delete कर के केवल अरबी लिखाई सामने कॉपी पेस्ट कर दो तो शायद ही कोई पढ़ सकता है कि क्या लिखा है.
तो भाय लोग, आप लोग भी इस्लाम के बारे में जानते ही क्या है? आप लोग तो बस मानते हो जो मौलवी कहते हैं. असली अंधभक्त तो आप लोग हैं! आप की असल तकलीफ तो यह हो गई है कि अब हम, आप लोगों से ज्यादह कुर’आन और हदीस को पढ़ने लगे हैं और ऐसे सवाल उठाने लगे हैं जिन्हें उठाने को आप ने सोचा भी होगा तो हिम्मत नहीं न हुई होगी मुर्तद कहलाने के डर से.
अरबी में लिखी आयतें तो काला अक्षर ऊंट बराबर है आप लोगों के लिए भी. आप भी अनुवाद ही पढ़ रहे हैं. उर्दू हुआ तो भी अनुवाद ही है. तो जो हम ने अंग्रेज़ी में पढ़ा, वो आप ने उर्दू में पढ़ा. बात एक बराबर है क्योंकि हम भी मान्यवर मौलानाओं का किया हुआ अनुवाद ही पढ़ते हैं, फिरंगियों का किया नहीं.
किस बात के समर्थन में मरने मारने के लिए तैयार हो जाते हैं आप? इस्लाम के बारे में आप भी जानते ही क्या हैं? कम से कम हम तो सच जानते हैं, आप तो जो इमाम साहब कहे वो बिना कोई सवाल किये सच मानते हैं. हम बेहतर हैं आप से, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति सत्य जानने की है, और यह बद्दू अरबी संस्कृति बिना कोई सवाल किए बस मानने की.
भारत का बहुत भला हो जाएगा अगर भारतीय मुसलमान भी इस्लाम के बारे में in depth जानने की कोशिश करें. क्योंकि बहुतांश भारतीय मुस्लिमों का DNA भारतीय ही है. और भारतीय दिमाग की यह परंपरा रही है कि वो उसी का सम्मान करता है जो वाकई सम्मान के योग्य हो.
भारतीय मानस सवाल उठाता है और जो सम्मान के लायक नहीं होता उसे कूड़ेदान में फेंकते उसे तनिक भी देर नहीं लगती. अपनी भारतीयता से अरब का बुर्का हटाकर चार सवाल भी पूछा कीजिये, देश का भला हो जाएगा. काश इस्लाम का उद्भव भारत में हुआ होता तो आज दुनिया के लिए समस्या होती ही नहीं.