हाल में ही अमेरिका में सोशल मीडिया पर प्रचारों के जरिये चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश पर जोरदार बहसें चली. वहां इस सिलसिले में एक अध्यादेश – कानून लाने की कोशिशें भी जारी हैं. शुतुरमुर्गी प्रवृति से ग्रस्त भारत के राजनेता ऐसे मामलों में अपना सर शेखूलरवाद की रेत में घुसेड़ लेते हैं. सोशल मीडिया नया माध्यम है, फिर भी दस साल में ये जिस तेजी से उभरा है कि परंपरागत पेड मीडिया को इस फ्री मीडिया से कड़ी टक्कर मिलने लगी है. विदेशों में जैसे आने वाली समस्याओं के प्रति जागरूक रहा जाता है, उसके उलट यहाँ कूड़े को समेट कर कालीन के नीचे घुसा देने की प्रवृति दिखती है.
उदाहरण के तौर पर देखें तो भारत की फिल्मों में वामपंथियों का पूरी तरह एकतरफा प्रभाव दिखेगा. विदेशों में जहाँ फिल्मों में कम्युनिज्म के प्रभाव और घुसपैठ पर चर्चा हुई, वहां यहाँ इस तरह की कोई बात कभी नहीं की जाती. विदेशी फिल्मों में मार्क्सवादी मिथकों के अलावा दूसरे विचारों को भी प्रयाप्त जगह मिलती है, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता. या तो आप उनके जैसे होंगे, या फिल्म इंडस्ट्री से बाहर रहेंगे. जिन्हें जानकारी जरा कम हो उन्हें इस सिलसिले में PLU (people like us) का जुमला एक बार ढूंढ कर पढ़ लेना चाहिए. गाँधी जी ने भारतीय लोगों की शब्दों की समझ के गाय-बैल के बराबर होने की जो बात करीब सौ साल पहले की थी वो और स्पष्ट होगी.
ऐसी वजहों से ये जरूरी हो जाता है कि मार्क्सवादी मिथकों के एकतरफा प्रभाव से अपने आप को बचाने के लिए आप हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओँ की फ़िल्में भी देखें. हिंदी की हा हुसैनी परंपरा के वाहक व्यर्थ प्रलाप ना करें. दुनिया के तौर तरीके बदलते देखने के बाद भी उन्होंने इप्टा की तर्ज पर कोई नाटक-फिल्मों में अपनी परंपरा, अपने विचारों को डालने वाला संगठन नहीं बनाया. फिल्म-कला की समीक्षा तक में उनकी कोई उपस्थिति नहीं है, इसलिए उनके स्वनामधन्य “राष्ट्रीय” संगठन को हिन्दुओं की सभ्यता-संस्कृति के मामले में चुप ही रहना चाहिए. चुप रहने पर अज्ञान ढंका रहेगा, बोलने पर मूर्खता के उजागर हो जाने का खतरा है.
तो जैसा कि पहले भी कहा, फिल्मों पर मार्क्सवादी मिथकों का गंभीर प्रभाव रहा है. ऐसी बहुत कम फ़िल्में हैं जिनमें गिरोहों का असर नहीं होता इसलिए पूरे नवम्बर हम जिन फिल्मों की बात कर रहे होंगे उनमें भी है. आपको अपना “नीर-क्षीर विवेक” इस्तेमाल कर के अपने काम का हिस्सा निकालना और बेकार हिस्से छांटने होंगे. इस से पहले कि नवम्बर में हम करीब तीस फिल्मों की चर्चा करें पहले आपको वामपंथ के खतरों से आगाह करने वाली फ़िल्में खुद देख लेनी चाहिए. क्या हो सकता है उसे बिलकुल साफ़ सीधा दिखाने के लिए एक फिल्म The Red Nightmare बनी थी.
आर्म्ड फोर्सेज इनफार्मेशन फिल्म्स ने इसे 1957 में बनाया था. इसे अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स के लिए शीत युद्ध (कोल्ड वॉर) के दौर में तैयार किया गया था. यानि फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट युग की है, काफी पुरानी है. बाद में Freedom and You नाम से बनी इसी फिल्म को जब टीवी पर भी प्रसारित किया गया तो धीरे धीरे इसे रेड नाईटमेयर के नाम से ख्याति मिली. ये एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो एक सुबह जब अचानक जागता है तो उसका देश लोकतान्त्रिक राष्ट्र के बदले कम्युनिस्ट तानाशाही वाले शासन में होता है. इसे एक बार ढूंढ कर देखा ही जाना चाहिए. ये पुराने जमाने की होने की वजह से बहुत रोचक ना भी लगे तो भी देख लीजिये.
अब आते हैं रोचक फिल्मों पर जो कि अल्फ्रेड हिचकॉक की बनाई हुई हैं. अल्फ्रेड हिचकॉक जासूसी, सस्पेंस जैसी विधाओं के माहिर थे. उनका लिखा पढ़ने पर भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता. यही वजह है कि पचास के दशक में बनी उनकी फिल्मों को आज भी देखा जाता है. पहली फिल्म है “द मैन हु न्यू टू मच” (The Man Who Knew Too Much) जो कि 1956 में आई थी. ये वाली रीमेक थी. असली फिल्म को हिचकॉक ने ही 1934 में बनाया था, और ये हिचकॉक की बनाई इकलौती रीमेक फिल्म है. ये सीधा सीधा कम्युनिज्म पर बनी हुई फ़िल्में नहीं हैं. अपने राज अपने अन्दर छुपाये रखना और धोखे, पूछताछ में आम लोगों को पकड़ना, गुप्त रूप से आम आदमी का भेष बनाए सरकारी जासूस जैसी चीज़ें आपको इसमें दिखेंगी.
इसकी कहानी बिलकुल साधारण सी है. एक युगल होता है जो छुट्टियाँ मनाने मोरक्को जाता है. वहां कुछ जालसाज होते हैं जो एक हत्या का षड्यंत्र रच रहे थे. उसी षड्यंत्र में गलती से ये परिवार शामिल हो जाता है. अब जालसाज अपनी धूर्तता में कामयाब होने के लिए इस परिवार को रोकने की पूरी कोशिश कर रहे होते हैं और ये लोग अपनी जान बचाते हुए षड्यंत्रकारियों को नाकाम करने की कोशिश में लगे होते हैं. अंग्रेजी फिल्मों में जब सस्पेंस कहा जाता है तो वो ऐसी फ़िल्में होती हैं जिसमें आगे क्या होगा ये हर पल सोचना पड़ता है, जैसे हाल की शर्लाक होम्स वाली फ़िल्में. जब सायकोलॉजिकल थ्रिलर कहा जाता है तो उसका मतलब साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब्स जैसी फिल्मों से होता है. इस फिल्म के जमाने में हिचकॉक सस्पेंस की विधा के माहिर माने जाते थे, लेकिन कई समीक्षक इस फिल्म को सायकोलॉजिकल थ्रिलर की श्रेणी में भी रखते हैं.
दूसरी फिल्म भी अल्फ्रेड हिचकॉक की ही है, और ये भी उसी दौर में यानि 1959 में आई थी. नार्थ बाय नार्थवेस्ट (North by Northwest) को आप सीधा जासूसी फिल्म कह सकते हैं. धोखे-फरेब, झूठ-सच और नैतिकता को किनारे रखकर काम करने जैसे विषयों पर बनी ये फिल्म शीत युद्ध के दौर की अमेरिकी जासूसी फिल्म है. इसमें जासूस हैं, और फिर जासूसों की जासूसी कर रहे जासूस हैं. उस समय में मेनहट्टन जैसे शहरी इलाकों में लोग नौकरियां ढूँढने जाया करते थे. इस फिल्म का नायक भी मेनहट्टन में ही नौकरी करता है. उसे गलती से सरकारी एजेंट मान लिया जाता है और फिर उसकी हत्या करने के लिए उसे न्यू यॉर्क से लेकर साउथ डकोटा तक दौड़ाया जाता है.
बाद में आई इन्वेशन ऑफ़ द बॉडी स्नैचर्स जैसा इन फिल्मों में कम्युनिस्ट कपट को सीधा सीधा नहीं दिखाया गया है. ये शीत युद्ध के दौर की थी तो इसमें घुमा फिरा कर उनकी धूर्तता की बात की गई है. ये काफी कुछ वैसा ही है जैसे भारत में जब कहा जाए कि फ़िल्में वामिस्लामी कचरे से भरी होती हैं तो आप एक बार में इस बात को हजम नहीं कर पायेंगे. फिर जब जावेद अख्तर कौन सी विचारधारा के हैं ये देखेंगे, उनकी पत्नी शबाना और ससुर कैफ़ी आजमी की विचारधारा देखेंगे तो ध्यान जाएगा. उनका एक बेटा फरहान अख्तर भी है ये भी याद रखियेगा.
पुराने दौर की पुरस्कृत फ़िल्में जैसे मदर इंडिया देख कर सोच रहे हों कि हमेशा लाला लालची क्यों, पंडित धूर्त क्यों या ठाकुर जालिम कैसे? तो एक बार महबूब प्रोडक्शन का बैनर देखिये. हंसिया-हथौड़ा नजर ना आये ऐसा नहीं हो सकता. हाल के दौर की ही इतिहास को तोड़ने मरोड़ने जैसी फ़िल्में बनाने वाले एक निर्माता ने बाजीराव पर फिल्म बनाई थी. इतिहास की थोड़ी भी समझ, फ़िल्मकार के इरादों का अंदाजा लगाने वालों ने उसे जी भर के कोसा भी था. सुना है किसी मुस्लिम समलैंगिक पर भी वो फिल्म बना रहे हैं. इसके प्रचार के लिए वही हथकंडे इस्तेमाल होंगे जो हमेशा से होते आये हैं. पुरुषों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसे न्यूज़ की बहस में विवादित किया जाएगा. महिलाओं के लिए इसमें शामिल विशेष नृत्य, जेवर और लहंगे के बारे में बताया जाएगा.
जहाँ तक हमारा सवाल है, हमने मोदी जी के भाषणों से सीखा है कि विपक्षी को चाहे जितनी गालियाँ दो, मगर उसका नाम हरगिज़ नहीं लेते. तो हम समलैंगिक मुस्लिम आक्रमणकारी का नाम नहीं बताएँगे, जिस किले में ढाई बार ऐसी चिताएं सजी थी, उस किले और उस घटना का नाम भी नहीं बताएँगे. जिस रानी की इस वीरता के लिए वो आज भी सम्मानित हैं, उस राजपुताना के गौरव का नाम भी नहीं लेंगे.
फिल्म, फिल्म की नायिका, जिस घटना पर फिल्म बनी, जिस खलनायक के हिसाब से फिल्म विवादित है, उनमें से किसी का भी नाम टाइप करने पर वो एक बार गूगल सर्च का काउंट बढ़ा देगा. नाम के बीच में माँ का नाम घुसा कर अपने आप को नारीवादी घोषित करने वालों को हम किसी किस्म का प्रचार क्यों दें. उस एक फिल्म के बारे में हम कुछ भी नहीं बताएँगे.