”पंकज जी, आप जरा अपने दोस्त …….. को समझाइये, वह शादी के बाद वाइफ से बात ही नहीं करता है. उस लड़की का क्या कसूर है?” यह मैसेज अभी-अभी यहीं इनबॉक्स में ऐसे सज्ज़न से मिला है जो मेरी फ्रेंड लिस्ट में नहीं हैं. और ऐसे सज्जन के बारे में बात की गयी है जिन्हें नाम से तो जानता हूं लेकिन संभवतः वे भी मेरे फ्रेंड लिस्ट में नहीं है. बताइए इस मामले में भला अपन क्या मदद कर सकते हैं?
वैसे मान्यताओं से उलट अपना यह दो टूक मानना है कि कोई पति या पत्नी अगर एक दूसरे से बात नहीं करना चाहे तो वह उसकी मर्जी होना चाहिए. समाज को इन पचड़ों से दूर रहना चाहिए. फिलहाल भले यह संभव नहीं है क्योंकि हमारे यहां लड़कियों की कंडिशनिंग ऐसी नहीं हुई है, उसे इस तरह पाला नहीं गया है कि वह बात नहीं करने वाले पति से दो मिनट में अलग हो जाय. लेकिन आने वाले समय में हमें अपनी संतान को ऐसा ही बनाना होगा जिससे वह उपेक्षा करने वाले पति का मुहताज न हो. पति-पत्नी दोनों आत्मनिर्भर हो, जिस क्षण लगे कि एक-दूसरे के वे लिए बोझ हैं, उसी क्षण राम-राम करके निकल जाए.
कम बच्चे पैदा कीजिये. लिंग भेद से मुक्त होइए. बच्चों को आर्थिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर बनाइये. वह कलक्टर बने या क्लर्क, यह महत्वपूर्ण नहीं हो, महत्त्व बस इस बात का हो कि बालिग़ होते ही अपने पांव पर वह खड़ी हो. लड़कियों को पूरी आज़ादी मिले और उस आज़ादी की कीमत अदा करने का सामर्थ्य भी बेटियों के पास हो, ऐसा समाज बनाइये प्लीज़. ऐसा समाज जिसे दो लोगों के वैवाहिक मामलों में रत्ती भर भी दखल देने का अधिकार नहीं हो.
हालांकि मैं खुद भी शादीशुदा हूं. लगभग अच्छा ही है दाम्पत्य जीवन, लेकिन बावजूद इसके वैवाहिक मामलों में मेरा एप्रोच बड़ा ही रेडिकल है. मैं तो ऐसी व्यवस्था की कल्पना करता हूं जहां ‘वैवाहिक कानून’ जैसा कुछ हो ही नहीं. एक समय सीमा के बाद ऐसे तमाम कानूनों को खत्म कर दिया जाय.
संतान को पैदा करते समय ही बाप/मां को यह पता हो कि अगर बेटी भी हुई तो भविष्य में किसी तरह उसे एक इन्सान के गले बांध कर उसका काम खत्म नहीं होना है. उसे आत्मनिर्भर बनाना होगा. बेटियों को भी किशोर उम्र से ही इस सपने को खत्म करना होगा कि कोई राजकुमार घोड़े पर सवार होकर उसे लेने आ रहा है जिससे सात जन्म तक उसे बंध कर रहना होगा.
इसके उलट उसे पता हो कि अपना सलीब उसे खुद ढोना है, आज़ादी चाहिए तो खुद कमाना होगा. किसी अन्य मर्द (यानी पति) के पैसे पर आपकी फुटानी बिलकुल नहीं चलने वाली. और अगर वैसे ही चलनी है तो आज़ादी भूल जाइए. आज़ादी इतनी सस्ती नहीं है. आग का दरिया को पार करना होता है स्वतंत्रता के लिए.
सो, लड़िये, जूझिये, बढ़िये, कमाइए, मस्त रहिये. गरिमा पति की ब्याहता बन कर जीवन गुजार देने में नहीं बल्कि खुद के पांव पर खड़ा होकर दुनिया देखने में है. मैं फिर दुहराना चाहूंगा कि यह अभी की जवान महिलाओं के लिए नहीं है. उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है समाज को. जैसी रीत रही है उसके अनुसार वह जीवन जी कर समाज में अपना योगदान देती रही हैं.
उनके लिए यह ज़रूर आग्रह होगा कि उनकी संतान वैसी नहीं हो, जैसा वह खुद रही हैं, वे इसकी चिंता करें. उनकी बेटी किसी पालन करने वाले राजकुमार के सपनों के साथ जवान न हो, इसकी कोशिश करें वह. दुनिया नयी हो जाती है तुम नयी नज़र से देखो तो.
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