कल मैं आजतक चैनल वाले राहुल के एक ट्वीट पर लोगों की प्रतिक्रिया पढ़ रहा था. देश के एक नामी टीवी एंकर्स का सामान उनके साथ उनके गंतव्य पर एयरलाइन्स वालों ने नहीं पहुंचाया तो वो उसकी शिकायत में ट्वीट कर रहे थे.
आमतौर पर इस तरह की घटना पर आम लोगों की सहानुभूति यात्री के साथ होती है और एयरलाइन्स वालों के खिलाफ आक्रोश फूटता है. मगर यहाँ ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया, उलटे तकरीबन सभी लोग पत्रकार राहुल का मजाक उड़ाते हुए कटाक्ष कर रहे थे.
ध्यान से देखने पर समझ आ रहा था कि वे उसे पसंद नहीं करते और ये नापसंदगी नफ़रत की सीमा रेखा को भी पार कर रही थी. यकीनन उनमें से किसी के साथ भी उस पत्रकार का कोई निजी बैर या प्रतिस्पर्धा नहीं होगी. तो फिर ऐसा क्यों है?
इसका कारण हम सब जानते हैं. और वो है कि आज मीडिया और पत्रकारों के कारनामों से आम लोग उन्हें नापसंद करते हैं और यह नापसंदगी इतनी बढ़ गई है कि वो नफ़रत तक में बदल चुकी है. मीडिया को लोग नापसंद और नफ़रत करते हैं इस बात को जानते हुए अब इसे राजनीति में समझने की कोशिश करते हैं.
यहां ध्यान देने वाली बात है कि आम लोग मीडिया से नाराज़ नहीं हैं. आप नाराज़ किससे होते हैं? अपनों से. नाराज़ उसी से और वहीं हुआ जाता है, जहां आपको कुछ उम्मीद होती है. किसी से जब कुछ अपेक्षा होती है और वो जब पूरी नहीं होती तो अक्सर नाराज़गी हो जाती है.
किसी की नाराज़गी दूर होने की संभावना हमेशा बनी रहती है. मगर नापसंदगी के पसंद में बदलने की संभावना कम ही होती है और नफ़रत वाले की तो ना के बराबर होती है. अब यहां हमें फ़िल्मी होने की आवश्यकता नहीं और व्यवहारिक ही बने रहें.
आखिरकार ऐसा क्यों? नाराज़गी के कारण जहां स्पष्ट होते हैं वहीं नापसंदगी के कई कारण हो सकते हैं और कई बार तो कारण स्पष्ट भी नहीं होता. लेकिन जो कारण होते हैं, वो बड़े होते हैं. नापसंदगी किसी के मूल स्वभाव, उसकी सोच या यहां तक कि उसकी भावना, जीवनशैली, जीवनकर्म आदि आदि के कारण हो सकती है.
लेकिन नफ़रत तो आप तब करते हैं जब कारण गहरा हो. आप को उसके या उसके कारनामों के बारे में पता हो, जिसके दुष्पिणाम से आप को नुकसान या कष्ट हुआ है या होने की संभावना है. यह एक तरह का ज़हर है जो आपके मन में किसी के लिए उबलता-उगलता रहता है.
इस नाराज, नापसंदगी और नफ़रत की यूं ही व्याख्या कर देना आसान नहीं. इसे उदाहरण से समझते हैं.
आज की तारीख में दिग्विजय सिंह से राष्ट्रवादी क्या करते हैं? उन्हें या तो नापसंद करते हैं या नफ़रत. ऐसा क्यों, इसके कारण जानते ही आप काफी कुछ व्याख्या समझ गए होंगे. मगर ऐसी ही नापसंदगी और नफ़रत कोई और समूह भी करता है, आरएसएस और भाजपा से. वे कौन लोग हैं यहां बताने की आवश्यकता नहीं.
लेकिन उपरोक्त दोनों नापसंदगी-नफ़रत में एक अंतर है, दिग्विजय के लिए नापसंदगी-नफ़रत उनके कारनामो, कथनों और विचारों के कारण है, जबकि आरएसएस और अन्य हिन्दू संगठनों के लिए नापसंदगी-नफ़रत पैदा की गई. वो भी बड़े सुनियोजित ढंग से और आजादी के तुरंत बाद से.
धर्म के आधार पर बंटवारे के बाद भी हिन्दुस्तान में मुसलमानों को रोके जाने के कारण अधिकाँश हिन्दुओं में आक्रोश का होना स्वभाविक था मगर वे उसे व्यक्त नहीं कर पाए. उलटे नेहरू-गांधी ने मुसलमानों को एक तो जबरन रोका भी और बाद में नेहरू के द्वारा बड़े षड्यंत्रपूर्वक तरीके से इन्ही मुसलमानों के बीच में हिन्दुओं के विरोध में एक डर और नफ़रत के बीज भी बो दिए गए. जिसके कारण यह वर्ग उनका वोटबैंक बन गया.
ध्यान रहे, विरोधी के लिए नफ़रत और नापसंदगी सबसे बड़ा हथियार होता है अपने पक्ष में वोटबैंक बनाने का. ऐसी ही कुछ कुछ भावना उन्होंने दलितों के बीच भी पैदा की. साथ ही आम लोगों के बीच गोडसे के कारण आरएसएस और अन्य हिन्दू संगठन के लिए नापसंदगी पैदा करने में भी नेहरू सफल रहे.
इतने सारे लोग जब आप के विरोधी को नापसंद और नफ़रत करते हों तो आप का जीतना और जीतते चले जाना स्वाभविक है. और कांग्रेस ने इस नापसंद और नफ़रत के सहारे लम्बे समय तक राज किया.
नेहरू-इंदिरा की राजनीति सफल थी. मुसलमान और मीडिया में आज भी अधिकांश ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आरएसएस और अन्य हिन्दू संगठनों को या तो नापसंद करते हैं या नफ़रत. इसका बड़ा लम्बे समय तक फायदा उठाया गया. मीडिया माहौल बनाये रखता और यह वर्ग संगठित होकर एकमुश्त वोट करता.
चूंकि बाकी बहुसंख्यक निष्क्रिय था. यही कारण है जो नेहरू परिवार राज करता रहा. लेकिन पिछले कुछ समय में कांग्रेस के कारनामे जब आम जनता में पहुंचने लगे तो ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी जो उन्हें या तो नापसंद करते या नफ़रत.
उदाहरण के लिए आप देख लीजिये आज नेहरू से लेकर सोनिया के लिए आम लोगों के मन में क्या है, जवाब मिल जाएगा. और एक समय इस दूसरे ग्रुप की संख्या इतनी बढ़ गई कि वो पहले ग्रुप से कही अधिक हो गए, ऐसे में 2014 का होना समझा जा सकता.
आज भी आम जनता के बीच में ये दूसरे ग्रुप के नापसंद और नफ़रत वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. सत्तर साल का आक्रोश अब भी निकलना जारी है.
जबकि दूसरी तरफ मोदी और भाजपा-आरएसएस को नापसंद और नफ़रत करने वाले लोगों की संख्या स्थिर है और कहीं-कहीं कम भी हो रही है. मोदी के किसी भी ट्वीट को देखिये, उसमें एक वर्ग जो उन्हें नापसंद या नफ़रत करता है वो तो वही है, बाकी अन्य या तो समर्थन में हैं या नाराज मिल जाएंगे.
ये नाराज वे लोग हैं जिन्हें अपेक्षा थी और उम्मीद है. जो उन्हें नापसंद करते हैं और नफ़रत करते हैं उनकी संख्या आज़ादी के बाद से वही है, मगर जो कांग्रेस को नापसंद और नफ़रत करते हैं उनकी संख्या अब भी बढ़ रही है. और ऐसा लगता है जैसे-जैसे इतिहास के पन्ने खुल कर आम लोगों तक पहुंचेंगे यह संख्या बढ़ती रहेगी.
दूसरी तरफ भाजपा से लोग नाराज़ हो सकते हैं मगर वे उनके पास नहीं जाना चाहेंगे जिन्हे वे नापसंद और नफ़रत करते हों.
अगर यकीन नहीं होता तो राहुल के ट्वीटर पर एक निगाह डालें. राहुल से लोग नाराज़ नहीं हैं. मगर गांधी होने का जितना फायदा वो लेते हैं उससे कहीं अधिक उनको नुकसान मिलता है.
मगर उनके साथ एक और मुश्किल है, गांधी नाम हटाने के बाद उनके पास और कुछ बचता ही नहीं. और जब तक किसी के साथ ये नेहरू-गांधी नाम जुड़ा रहेगा तब तक उसे इस जनभावना का शिकार होना ही पड़ेगा. और फिर ठीक भी तो है आखिरकार वे कांग्रेस के उत्तराधिकारी हैं तो अच्छा बुरा दोनों ढोना होगा.
ऐसे हालात में कांग्रेस के चिंतकों को नए सिरे से सोचना होगा जिससे वे नाराज़गी, नापसंदगी और नफ़रत के बीच एक नया समीकरण बना सकें. इस खेल में वे वैसे भी माहिर हैं.
बहरहाल देश में एक विपक्ष की आवश्यकता है. क्योंकि प्रजातंत्र में मज़बूत विपक्ष का होना अधिक ज़रूरी है, ऐसे विपक्ष का नहीं जिसे लोग नापसंद या नफ़रत करते हों.