हिन्दुओं में एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी ये है कि ‘उर्दू’ और ‘अरबी’ एक मज़हब विशेष के मानने वालों की भाषा है इसलिये हमें इसे सीखने या इसका प्रचार करने की कोई जरूरत नहीं है. जबकि सच ये है कि किसी मज़हब के साथ इसका संबध मात्र इतना ही है कि उनकी किताब जिस भाषा में उतरी थी वो अरबी है और जिस भाषा में उनके ‘नवाब’ बात किया करते थे वो उर्दू थी.
जहाँ तक ‘उर्दू’ की बात है तो उर्दू की परवरिश भारत में हम हिन्दुओं ने ही ज्यादा की है. पंडित दयाशंकर ‘नसीम’, पंडित रतननाथ ‘सरशार’, नरेश कुमार ‘शाद’, मुंशी प्रेमचंद, जगत मोहन लाल ‘खां’, बेनी नारायण ‘जहां’, तिलोक चंद ‘महरूम’, रघुवीर सहाय ‘फ़िराक’, जगन्नाथ ‘आजाद’, आनंद नारायण ‘मुल्ला’, राजेन्द्र सिंह ‘बेदी’, किशन चंदर ये तमाम हिन्दू नाम है जिन्होंने उर्दू भाषा को जनप्रिय बनाया और जब ये भाषा रोज़गारपरक हुई तो हमने अपनी बेवकूफी में इससे किनारा कर लिया.
रोज़गारपरक से मतलब ये है कि आपको विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में तो दूसरे मज़हब वाले मिल जायेंगें पर ‘उर्दू’ के विभाग में शायद ही आपको कोई गैर-मुस्लिम मिलेगा. फ़िल्म इंडस्ट्री में उर्दू वाले आज शहंशाह बने फिरते हैं, हर उर्दू चैनेल पर वही लोग भरे पड़े है, उर्दू अखबार और पत्रिकाओं के दफ्तर में सिर्फ उनको काम मिलता है तो क्या ये हमारी जहालत नहीं है कि उर्दू से खुद को अलग कर हमने अपने लिये रोजगार के कई बड़े अवसरों को गँवा दिया?
अगर कुछ उर्दू में लिखा है तो ‘देश-विरोध’ में ही होगा ऐसा भी नहीं है क्योंकि प्रेमचन्द की मशहूर और ज़ब्तशुदा रचना ‘सोज़े-वतन’ उर्दू में ही थी. इसलिए उर्दू अपने आरंभिक काल से लेकर आज तक कभी भी मुसलमानों की भाषा नहीं थी, मुसलमान आगे आये, उर्दू को अपना घोषित करते हुये विभाजन का तर्क बनाकर सामने किया और हमने उर्दू को हमेशा के लिए अपने से अलग कर लिया और हमने उर्दू को उनके लिये छोड़ दिया.
उर्दू ज़ुबान में शेरो-शायरी करने वाले आपके घर की आबरू कब्ज़ा रहे हैं और आप बेबस और लाचार बने सिर्फ कोसते रहते हैं. कभी आपने उर्दू-अखबारात उठा कर देखे हैं कि वहां कैसे-कैसे आलेख होते हैं और क्या-क्या संदेश प्रसारित किये जातें हैं?
आपके लिये तो वो काला अक्षर भैंस बराबर ही है. तो आप अगर इसको नहीं सीखते और उन संदेशों और आलेखों का संज्ञान नहीं लेते तो यकीन जानिये कि देश में फैलाए जा रहे ज़हर के प्रसार में कहीं न कहीं आप भी भागीदार हैं.
जहाँ तक ‘अरबी भाषा’ का ताअल्लुक है तो ये संसार की प्राचीनतम भाषाओँ में एक मानी जाती है. सेमेटिक मजहब की भाषाओँ में यह हिब्रू के समकक्ष है. भविष्य पुराण की माने तो नोहा (नूह) के जमाने में भगवान विष्णु ने भाषा को सहज करने की दृष्टि से एक मलेच्छ भाषा को जन्म दिया था और उसे नोहा (नूह) को सिखाया था. इस भाषा को हिब्रू कहा गया जो दायें से बाईं ओर लिखी जाती है. ‘ही’ मतलब हरि और ब्रू मतलब बोला गया यानि जो भाषा हरि के द्वारा बोली गई वो हिब्रू कहलाई.
उनकी किताब अरबी भाषा में है महज़ इसलिये ‘अरबी भाषा’ से हमारा ताअल्लुक नहीं, ऐसी सोच गलत है. इस्लाम पूर्व के कवियों की रचनाओं में महादेव, वेद और भारत भूमि की स्तुति के पद मिलते हैं. प्राचीन अरबी काव्य-ग्रन्थों अंदर ऐसे कई कई पद मिलते हैं. इन्हीं काव्य-संग्रहों में अरबी कवि लबी-बिन-ए-अरबतब-बिन-तुर्फा की लिखी महादेव स्तुति मिलती है. इस्लाम के आगमन के पूर्व अरबी भाषा में कई पुराणों का अनुवाद भी हुआ था. अरबी में अनुदित अति-प्राचीन भागवत पुराण का मिलना इसकी पुष्टि करता है.
इसका अर्थ ये भी है कि अरबी से हमारा भी ताअल्लुक है जो इस्लाम के आगमन के काफ़ी पूर्व से है. पर हमने क्या किया? हममें कितने लोग हैं हैं जिनको ये पता है कि ‘अरबी भाषा’ में कितने वर्ण हैं? शायद 0.000001 प्रतिशत को भी नहीं.
आपने अरबी नहीं सीखी तो इसका अर्थ ये है कि आप भारत के विश्वविद्यालयों के अरबी विभाग में नौकरी के अवसर गँवा रहे हैं. आज भारत का मध्य-पूर्व और अफ्रीका के कुछ देशों के साथ व्यापार के असीमित अवसर है, अगर आप अरबी जानेंगे तो इस अवसर के फ़ायदे आप भी उठा सकतें हैं मगर आपको इसमें रूचि ही नहीं है.
जो धर्मप्रचार में रूचि रखते हैं उनके लिये कुछ तथ्य रखता हूँ. बाईबिल का आज दुनिया के 2200 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, आप जिस भाषा का नाम लीजिये ईसाई मिशनरियां उस भाषा में अनुवादित बाईबल आपके सामने प्रस्तुत कर देंगी.
मुसलमान अनुवाद कार्य में इतने आगे तो नहीं पहुँचे पर उन्होंने दुनिया की हर प्रमुख भाषा में अपनी किताब अनुवादित कर ली है, यहाँ तक की हदीस भी अरबी से इतर कई भाषाओँ में अनुवादित हो चुकी है. जमात-अहमदिया तो बाकायदा हर ‘पुस्तक मेला’ में अलग-अलग भाषाओँ में कुरान के अनुवाद की प्रदर्शनियाँ भी लगाती है.
हममें से कितने लोगों ने अपनी किताबों को अरबी या उर्दू में अनुवादित करने की ज़हमत उठाई है? इस्कॉन, गीता-प्रेस और आर्य-समाज के इक्का-दुक्का प्रयासों को छोड़ दें तो इस मामने में हमारी उपलब्धि लगभग शून्य है. हमारी कुछ किताबों का फ़ारसी में अनुवाद भी हुआ तो ये भी उनकी ही मेहरबानी थी, हम खाली हाथ ही बैठे रहे हमेशा से.
मध्य-पूर्व और मिस्र समेत अफ्रीका के कई देशों में अरबी भाषा चलती है, तो अपनी जहालत में क्या हमने वहां के करोड़ों अरबी भाषी लोगों को अपने धर्म की जानकारी से वंचित करने का प्रयास नहीं किया है? आज अगर इन देशों से कोई हिन्दू धर्म के किताबों को अपनी भाषा में पढ़ना चाहे तो वो खुद को कितना असहाय महसूस करेगा?
हमारे यहाँ शब्द को ‘ब्रह्म’ कहा गया है और हर भाषा श्रीहरि और माँ शारदा से प्रदत्त मानी गई है. इसलिये किसी भाषा को सीखने से परहेज़ मत कीजिये.
वैसे, बातें कई हैं पर फिलहाल आग्रह ये है कि कोई भी भाषा किसी मज़हब विशेष की बपौती नहीं है और जहाँ तक अरबी और उर्दू का ताअल्लुक है तो ये तो बिलकुल भी नहीं. इसके पौधे को हमने सींचा है. अब तय आपको करना है कि आप क्या करेंगे? कोसते, कुढ़ते हुये बस अपनी बेबसी का रोना रोयेंगे या आगे आकर अपने आर्थिक, सामजिक और धार्मिक पक्ष को बेहतरी प्रदान करेंगें? सु-समय और सु-अवसर बार-बार नहीं आते.