उसके हाथ कांपे भी अगर, तो रुकेंगे नहीं

जब किसी हिन्दू पर प्रगतिशीलता का खुमार चढ़ता है, वह साबित करता है कि मुस्लिम देशभक्त होते हैं, या हो सकते हैं.

साबित करना कठिन भी नहीं है. मेथड काफी सरल है… इतिहास में से एक-दो मुस्लिम क्रांतिकारियों के नाम निकाल लीजिए…

अव्वल तो यह लिस्ट अशफाकउल्लाह खान जी से आगे नहीं जाती… तो फिर इसमें अब्दुल हमीद या डॉ कलाम को जोड़ लीजिये… हो गया एक अकाट्य तर्क तैयार.

वैसे इसमें शक तो नहीं हो सकता कि अशफाकउल्लाह खान देशभक्त थे… और सामान्य व्याकरण की दृष्टि से देखें तो एक तरह से मुसलमान भी थे… कम से कम नाम से…

पर देशभक्ति और इस्लाम के इस बेमेल कॉकटेल में प्रगतिशील हिंदुओं की ही रुचि होती है. मुसलमानों की रुचि सामान्यतः नहीं होती… सिवाय कभी कभी तर्क की सुविधा के. और एक मुसलमान के लिए इसमें कोई गर्व की बात भी नहीं होती.

देशभक्त-मुस्लिम एक विरोधाभासी शब्दयुग्म है… अंग्रेज़ी में बोलें तो ऑक्सिमोरॉन. और यह बात मैं किसी प्रकार की घृणा से परिचालित होकर नहीं बोल रहा. यह इस्लाम की परिभाषा में निहित है.

‘इस्लाम माने शांति’ के नारे पर मत जाइए… इस्लाम का शाब्दिक अर्थ है Submission, समर्पण. और यह समर्पण भी ऐसा वैसा नहीं, खालिस शत प्रतिशत समर्पण… सिर्फ अल्लाह को समर्पण ही नहीं माँगता है इस्लाम, अल्लाह के अलावा और किसी को किसी भी प्रकार का समर्पण शिर्क है.

अब ऐसे में देश के लिए समर्पण या भक्ति का स्कोप कहाँ से निकलेगा भाई? यानि अगर कोई मुसलमान देश के लिए भक्ति निकाल कर ला रहा है तो वह अल्लाह के हिस्से से काट कर ही ला रहा है… एक मुसलमान उतना ही देशभक्त है जितना वह मुसलमान नहीं है.

तो ऐसे में आप अशफाकउल्लाह खान जैसे क्रांतिकारियों को कहाँ फिट करते हैं? वे देशभक्त थे… सीधी सी बात है वे मुसलमान थे ही नहीं. मुसलमान होते तो जान जिहाद के लिए देते, देश के लिए कैसे देते? उनके नाम के फेरे में मत जाइए… बख्श दीजिये उन्हें… काहे खामख्वाह उन्हें घसीट कर मुसलमान बनाने पर पड़े हैं?

और एक मुसलमान अगर कहीं प्रेशर में, या गलती से देशभक्त हो भी जाएगा तो उसकी हालत दीवार फ़िल्म के शशि कपूर जैसी हो जाएगी… फ़र्ज़ और रिश्तों में उलझा हुआ. आप उसे भाई समझें… वह भी आपको भाई समझेगा. पर उसके हाथ फ़र्ज़ से बंधे होंगे… और अल्लाह का हुक्म मानने में उसके हाथ कांपे भी, तो रुकेंगे नहीं…

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